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लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले.. ज़िंदगी और मौत के बीच उलझे ज़ौक़ को साथ मिला बेग़म और सहगल का

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९७ ना ज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’, इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले इस तपिश का है मज़ा दिल ही को हासिल होता काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम दिल होता यूँ तो इश्क़ और शायर/शायरी में चोली-दामन का साथ होता है, लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो इश्क़ को बखूबी समझते हैं और हर शेर लिखने से पहले स्याही को इश्क़ में डुबोते चलते हैं। ऐसे शायरों का लिखा पढने में दिल को जो सुकूं मिलता है, वह लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ज़ौक़ वैसे हीं एक शायर थे। जितनी आसानी ने उन्होंने "सर-ता-ब-कदम" दिल होने की बात कही है या फिर यह कहा है कि गुलशन के फूलों को जो अपनी नज़ाकत पे नाज़ है, उन्हें यह मालूम नहीं कि यह नाज़-ओ-नज़ाकत उनसे बढकर भी कहीं और मौजूद है .. ये सारे बिंब पढने में बड़े हीं आम मालूम होते हैं ,लेकिन लिखने वाले को हीं पता होता है कि कुछ आम लिखना कितना खास होता है। मैंने ज़ौक़ की बहुत सारी ग़ज़लें पढी हैं.. उनकी हर ग़ज़ल और ग़ज़ल का हर शेर इस बात की गवाही देता है कि यह शायर यकीनन कुछ खास रहा है। फिर भी न जाने क्यों, हमने इन्हें भुला दिया है या फिर ह

जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है.. "मीर" के एकतरफ़ा प्यार की कसक औ’ हरिहरण की आवाज़

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६ प ढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग, मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां। जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़, ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा। ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था: न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब। ‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।। हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने: शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’। ‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।। ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं

तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो.. बशीर और हुसैन बंधुओं ने माँगी बड़ी हीं अनोखी दुआ

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१ "ज गजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है। बशीर साहब कहते हैं- "पाकिस्तान में मेरी शाइरी ऊर्दू में छपी है, खूब बिक रही है, वह भी मुझे रायल्टी दिए बिना। वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंदी में तीन अलग अलग पुस्तक "फूलों की छतरीयां", "सात जमीनें एक सितारा" और "मोहब्बत खुशबू हैं" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। अभी हरिहरन ने तीस हजार रुपए भेजे हैं, मेरी दो गजलें गाईं हैं। मुझसे पूछे बगैर पहले गा लिया और फिर मेरे हिस्से के पैसे भेज दिए। मेरे साथ तो सभी अच्छे हैं। अल्लामा इकबाल, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी ये सब इंकलाबी शायरी करते थे, लेकिन म

अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल.. अपने शोख कातिल से ग़ालिब की इस गुहार के क्या कहने!!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७८ दे खते -देखते हम चचा ग़ालिब को समर्पित आठवीं कड़ी के दर पर आ चुके हैं। हमने पहली कड़ी में आपसे जो वादा किया था कि हम इस पूरी श्रृंखला में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेंगे जो अमूमन हर किसी आलेख में दिख जाता है, जैसे कि ग़ालिब कहाँ के रहने वाले थे, उनका पालन-पोषण कैसे हुआ.. वगैरह-वगैरह.. तो हमें इस बात की खुशी है कि पिछली सात कड़ियों में हम उस वादे पर अडिग रहे। यकीन मानिए.. आज की कड़ी में भी आपको उन बातों का नामो-निशान नहीं मिलेगा। ऐसा कतई नहीं है कि हम ग़ालिब की जीवनी नहीं देना चाह्ते... जीवनी देने में हमें बेहद खुशी महसूस होगी, लेकिन आप सब जानते हैं कि हमारी महफ़िल का वसूल रहा है- महफ़िल में आए कद्रदानों को नई जानकारियों से मालामाल करना, ना कि उन बातों को दुहराना जो हर गली-नुक्कड़ पर लोगों की बातचीत का हिस्सा होती है। और यही वज़ह है कि हम ग़ालिब का "बायोडाटा" आपके सामने रखने से कतराते हैं। चलिए..बहुत हुआ "अपने मुँह मियाँ-मिट्ठु" बनना.. अब थोड़ी काम की बातें कर ली जाएँ!! तो आज की कड़ी में हम ग़ालिब पर निदा फ़ाज़ली साहब के मन्त्वय और ग़ालिब की हीं कित

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है.. ग़ालिब के दिल से पूछ रही हैं शाहिदा परवीन

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७२ पू छते हैं वो कि "ग़ालिब" कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या अब जबकि ग़ालिब खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि ग़ालिब को जानना और समझना इतना आसान नहीं तभी तो वो कहते हैं कि "हम क्या बताएँ कि ग़ालिब कौन है", तो फिर हमारी इतनी समझ कहाँ कि ग़ालिब को महफ़िल-ए-गज़ल में समेट सकें.. फिर भी हमारी कोशिश यही रहेगी कि इन दस कड़ियों में हम ग़ालिब और ग़ालिब की शायरी को एक हद तक जान पाएँ। पिछली कड़ी में हमने ग़ालिब को जानने की शुरूआत कर दी थी। आज हम उसी क्रम को आगे बढाते हुए ग़ालिब से जुड़े कुछ अनछुए किस्सों और ग़ालिब पर मीर तक़ी मीर के प्रभाव की चर्चा करेंगे। तो चलिए पहले मीर से हीं रूबरू हो लेते हैं। सौजन्य: कविता-कोष मोहम्मद मीर उर्फ मीर तकी "मीर" (१७२३ - १८१०) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर का जन्म आगरा मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देख रेख मे बीता। पिता के मरणोपरांत ११ की वय मे वो आगरा छोड़ कर दिल्ली आ गये। दिल्ली आ कर उन्होने अपनी पढाई पूरी की और शाही शायर बन गये। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ-उद-दुलाह

एहतराम की अंतिम कड़ी- मीर तकी 'मीर' की ग़ज़ल

एहतराम - अजीम शायरों को सलाम इस श्रृंखला में अब तक हम ६ उस्ताद शायरों का एहतराम कर चुके हैं. आज पेश है शिशिर पारखी साहब के आवाज़ में ये आखिरी सलाम अजीम शायर मीर के नाम, सुनिए ये लाजवाब ग़ज़ल- हस्ती अपनी हुबाब की सी है । ये नुमाइश सराब की सी है ।। नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए, हर एक पंखुड़ी गुलाब की सी है । चश्मे-दिल खोल इस भी आलम पर, याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है । बार-बार उस के दर पे जाता हूँ, हालत अब इज्तेराब की सी है । मैं जो बोला कहा के ये आवाज़, उसी ख़ाना ख़राब की सी है । ‘मीर’ उन नीमबाज़ आँखों में, सारी मस्ती शराब की सी है । हुबाब=bubble; सराब=illusion, mirage इज्तेराब=anxiety, नीमबाज=half open मीर तकी 'मीर' आगरा में रहने वाले सूफी फ़कीर मीर अली मुत्तकी की दूसरी पत्नी के पहले पुत्र मुहम्मद तकी, जिन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में मीर तकी 'मीर' के नाम से जाना जाता है का जन्म वर्ष अंदाज़न 1724 ई. माना गया है. वैसे एकदम सही जन्म वर्ष का भी कहीं लेखा जोखा नहीं मिलता. ख़ुद मीर तकी 'मीर' ने अपनी फारसी पुस्तक 'जिक्रे मीर' अपना संक्षिप्त सा परिचय दिया