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हर शाम शाम-ए-ग़म है, हर रात है अँधेरी...शेवन रिज़वी का दर्द और तलत का अंदाज़े बयां

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 356/2010/56 'द स महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़' की आज की कड़ी में फिर एक बार शायर शेवन रिज़्वी का क़लाम पेश-ए-ख़िदमत है। दोस्तों, तलत महमूद ने "शाम-ए-ग़म" पर बहुत सारे गीत गाए हैं। दो जो सब से ज़्यादा मशहूर हुए, वो हैं "शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीं हैं हम, आ भी जा" और "फिर वही शाम, वही ग़म, वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। हमने इन दो गीतों का ज़िक्र यहाँ इसलिए किया क्योंकि आज जिस ग़ज़ल की बारी है इस महफ़िल में, वह भी 'शाम-ए-ग़म' से ही जुड़ा हुआ है। जैसा कि हमने बताया शेवन रिज़्वी की लिखी हुई ग़ज़ल, तलत साहब की आवाज़ और संगीत है हाफ़िज़ ख़ान का। जी हाँ, वही हाफ़िज़ ख़ान, जो ख़ान मस्ताना के नाम से गाने गाया करते थे, ठीक वैसे ही जैसे सी. रामचन्द्र चितलकर के नाम से। ख़ैर, यह ग़ज़ल है फ़िल्म 'मेरा सलाम' का, जो बनी थी सन् १९५७ में। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे भारत भूषण और बीना राय। तलत साहब ने इस फ़िल्म में आज की इस ग़ज़ल के अलावा एक और मशहूर ग़ज़ल गाई थी "सलाम तुझको ऐ दुनिया अब आख़िरी है