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एक परवाज़ दिखाई दी है...

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१३ ना म सोचा हीं न था, है कि नहीं "अमाँ" कहके बुला लिया इक ने "ए जी" कहके बुलाया दूजे ने "अबे ओ" चार लोग कहते हैं जो भी यूँ जिस किसी के जी आया उसने वैसे हीं बस पुकार लिया। तुमने इक मोड़ पर अचानक जब मुझको "गुलज़ार" कहके दी आवाज़, एक सीपी से खुल गया मोती, मुझको इक मानी मिल गया जैसे!! ये लफ़्ज़ खुद में हीं मुकम्मल हैं। यूँ तो इस लहजे में किसी का भी परिचय दिया जाए तो परिचय में चार चाँद लग जाएँगे लेकिन अगर परिचय देने वाला और परिचय पाने वाला एक हीं हो तो कुछ और कहने की गुंजाईश नहीं बचती। अपनी जादूगरी से शब्दों को एक अलग हीं मानी देने वाला इंसान जब गज़ल कहता है तो यूँ लगता है मानो गज़ल ने अपना सीना निकालकर पन्ने पर रख दिया हो। पढो तो एकबारगी लगे कि कितनी सीधी बात कही गई है और अगले हीं पल आप बातों की गहराई के मुरीद हो जाएँ। ऐसे हैं हमारे "गुलज़ार" साहब। आपने उनका यह शेर तो सुना हीं होगा और अगर सुना न हो तो पढा तो जरूर होगा: ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा, काफिला साथ और सफर तन्हा। तन्हाई का दर्द इससे बढिया तरीके से बयाँ हीं नहीं किया