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न बोले तुम न मैंने कुछ कहा....फिर भी श्रोताओं और ओल्ड इस गोल्ड में बन गया एक अटूट रिश्ता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 377/2010/77 स मानांतर सिनेमा के गानें इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजाए जा रहे हैं और हमें पूरी उम्मीद है कि इन लीग से हट कर गीतों का आप भरपूर आनंद उठा रहे होंगे। विविध भारती पर प्रसारित विशेष कार्यक्रम 'सिने यात्रा की गवाह विविध भारती' में यूनुस ख़ान कहते हैं कि ६० के दशक के उत्तरार्ध में एक नए क़िस्म का सिनेमा अस्तित्व में आया जिसे समानांतर सिनेमा का नाम दिया गया। इनमें कुछ कलात्मक फ़िल्में थीं तो कुछ हल्की फुल्की आम ज़िंदगी से जुड़ी फ़िल्में। इसकी शुरुआत हुई मृणाल सेन की फ़िल्म 'भुबोन शोम' और बासु चटर्जी की फ़िल्म 'सारा आकाश' से। ७० के दशक मे समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। उस दौर में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, एम. एस. सथ्यु, मणि कौल, जब्बर पटेल और केतन मेहता जैसे फ़िल्मकारों ने 'उसकी रोटी', 'अंकुर', 'भूमिका', 'अर्ध सत्य', 'गरम हवा', 'मिर्च मसाला' और 'पार्टी' जैसी फ़िल्में बनाई। लेकिन यह भी सच है कि ७० के दशक के मध्य भाग तक हिंदी सिनेमा अमिताभ बच्चन के ऐंग

आई झूम के बसंत....आज झूमिए बसंत की इन संगीतमयी बयारों में सब गम भूल कर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 368/2010/68 ब संत ऋतु की धूम जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर और इन दिनों आप सुन रहे हैं इस स्तंभ के अन्तर्गत लघु शृंखला 'गीत रंगीले'। आज जिस गीत की बारी है वह एक ऐसा गीत है जिसे बजाए बिना अगर हम इस शृंखला को समाप्त कर देंगे तो यह शृंखला एक तरह से अधूरी ही रह जाएगी। बसंत के आने की ख़ुशी को जिस धूम धाम से इस गीत में सजाया गया है, यह गीत जैसे बसंत पंचमी के दिन बजने वाला सब से ख़ास गीत बना हुआ है आज तक। "आई झूम के बसंत झूमो संग संग में"। फ़िल्म 'उपकार' के लिए इस गीत की रचना की थी गीतकार इंदीवर और संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी ने। युं तो ऐसे गीतों में दो मुख्य गायकों के साथ साथ गुमनाम कोरस का सहारा लिया जाता है, लेकिन इस गीत की खासियत है कि बहुत सारी मुख्य आवाज़ें हैं और कुछ अभिनेताओं की आवाज़ें भी ली गई हैं। इस गीत में आप आवाज़ें सुन पाएँगे मन्ना डे, आशा भोसले, शमशाद बेग़म, मोहम्मद रफ़ी, महेन्द्र कपूर, सुंदर, शम्मी की। कल्याणजी-आनंदजी ने कई अभिनेताओं को गवाया है, यही बात जब विविध भारती पर आनंदजी से पूछा गया था तब उनका जवाब था - " इत्ते

लाई है हज़ारों रंग होली...और हजारों शुभकामनाएं संगीतकार रवि को जन्मदिन की भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 362/2010/62 'गी त रंगीले' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। दोस्तों, आप ने बचपन में अपनी दादी नानी को कहते हुए सुना होगा कि "उड़ गया पाला, आया बसंत लाला"। ऋतुराज बसंत के आते ही शीत लहर कम होने लग जाती है, और एक बड़ा ही सुहावना सा मौसम चारों तरफ़ छाने लगता है। थोड़ी थोड़ी सर्दी भी रहती है, ओस की बूँदों से रातों की नमी भी बरकरार रहती है, ऐसे मदहोश कर देने वाले मौसम में अपने साजन से जुदाई भला किसे अच्छा लगता है! तभी तो किसी ने कहा है कि "मीठी मीठी सर्दी है, भीगी भीगी रातें हैं, ऐसे में चले आओ, फागुन का महीना है"। ख़ैर, हम तो आज बात करेंगे होली की। होली फागुन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता, और आम तौर पर फागुन का महीना ग्रेगोरियन कलेण्डर के अनुसार फ़रवरी के मध्य भाग से लेकर मार्च के मध्य भाग तक पड़ता है। और यही समय होता है बसंत ऋतु का भी। दोस्तों, आज हमने जो गीत चुना है इस रंगीली शृंखला में, वह कल के गीत की ही तरह एक होली गीत है। और क्योंकि आज संगीतकार रवि जी का जनमदिन है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना उन्ही का स्वरबद्ध क

चैन से हमको कभी आपने जीने न दिया...यही शिकायत रही ओ पी को ताउम्र

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 316/2010/16 आ ज १६ जनवरी, संगीतकार ओ. पी. नय्यर साहब का जन्मदिवस है। जन्मदिन की मुबारक़बाद स्वीकार करने के लिए वो हमारे बीच आज मौजूद तो नहीं हैं, लेकिन हम उन्हे अपनी श्रद्धांजली ज़रूर अर्पित कर सकते हैं उन्ही के बनाए एक दिल को छू लेने वाले गीत के ज़रिए। नय्यर साहब के बहुत सारे गानें अब तक हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनवाया है। आज हम जो गीत सुनेंगे वो उस दौर का है जब नय्यर साहब के गानों की लोकप्रियता कम होती जा रही थी। ७० के दशक के आते आते नए दौर के संगीतकारों, जैसे कि राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि, ने धूम मचा दी थी। ऐसे में पिछले पीढ़ी के संगीतकार थोड़े पीछे ही रह गए। उनमें नय्यर साहब भी शामिल थे। लेकिन १९७२ की फ़िल्म 'प्राण जाए पर वचन न जाए' में उन्होने कुछ ऐसा संगीत दिया कि इस फ़िल्म के गानें ना केवल सुपरहिट हुए, बल्कि जो लोग कहने लगे थे कि नय्यर साहब के संगीत में अब वो बात नहीं रही, उनके ज़ुबान पर ताला लगा दिया। आशा भोसले की आवाज़ में इस फ़िल्म का "चैन से हमको कभी आप ने जीने ना दिया, ज़हर जो चाहा अगर पीना तो पीने ना दिया"

ओ हसीना जुल्फों वाली....जब पंचम ने रचा इतिहास तो थिरके कदम खुद-ब-खुद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 302/2010/02 'पं चम के दस रंग' शृंखला की दूसरी कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। कल आपने पहली कड़ी में सुनें थे पंचम के गीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत की मधुरता। आज इसके बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हुए आप के लिए हम लेकर आए हैं एक धमाकेदार पाश्चात्य धुनों पर आधारित गीत। फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' राहुल देव बर्मन की पहली सुपरहिट फ़िल्म मानी जाती है, जिसमें कोई संशय नहीं है। इसी फ़िल्म में वो अपने नए अंदाज़ में नज़र आए और जिसकी वजह से उन्हे पाँच क्रांतिकारी संगीतकारों में जगह मिली। (बाक़ी के चार संगीतकार हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचंद्र, ओ. पी. नय्यर, और ए. आर. रहमान)। इन नामों को पढ़कर आप ने यह ज़रूर अंदाज़ा लगा लिया होगा कि इन्हे क्रांतिकारी क्यों कहा गया है। तो फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' पंचम की कामयाबी की पहली मंज़िल थी। इस फ़िल्म से फ़िल्म संगीत जगत में उन्होने जो हंगामा शुरु किया था, वह हंगामा जारी रखा अपने अंतिम समय तक। रफ़ी साहब पर केन्द्रित शृंखला के अन्तर्गत इस फ़िल्म से " दीवाना मुझसा नहीं " गीत हमने सुनवाया था और फ़िल्म की

इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने...."अदा" के तखल्लुस से गज़ल कह रहे हैं शहरयार साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५७ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान

दाता सुन ले- "बावरे फकीरा" के नेट लॉन्च के साथ नमन करते हैं शिरडीह साईं बाबा को, साथ ही जानिए कि कैसा है लता की दिव्य आवाज़ में नए दौर का "जेल" भजन

ताजा सुर ताल TST (30) दोस्तों, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर के एपिसोडों से लगभग अगले 20 एपिसोडों तक, जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में आये एक नए प्रतिभागी महिलाओं को चुनौती देने. चलिए हमारे कहने का असर हुआ, और विश्व दीपक तन्हा जी भी मैदान में कूद पड़े, पर 3 में से 2 जवाब सही दिए, एक जगह चूक कर गए. और उनकी भूल का

बज उठेंगीं हरे कांच की चूडियाँ....आशा की आवाज़ में एक चहकता नग्मा...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 203 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के फ़रमाइशी नग़में। आज बारी है उनके पसंद का तीसरा गीत सुनने की। आशा भोंसले की आवाज़ में यह गीत है फ़िल्म 'हरे कांच की चूड़ियाँ' का शीर्षक गीत "बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ"। यह गीत बहुत ज़्यादा प्रचलित गीतों में नहीं गिना जाता है, और शायद हम में से बहुत लोगों को यह गीत कभी कभार ही याद आता होगा। ऐसे में इस सुंदर गीत का ध्यान हम सब की ओर आकृष्ट करने के लिए हम अदा जी का शुक्रिया अदा किए बग़ैर नहीं रह सकते। 'हरे कांच की चूड़ियाँ' १९६७ की फ़िल्म थी। नायिका प्रधान इस फ़िल्म में नैना साहू ने मुख्य भूमिका निभायी और उनके साथ में थे विश्वजीत, नासिर हुसैन, सप्रू, और राजेन्द्र नाथ प्रमुख। फ़िल्म की मूल कहानी कुछ इस तरह की थी कि मोहिनी (नैना साहू) प्रोफ़ेसर किशनलाल (नासिर हुसैन) की बेटी है। मोहिनी मेडिकल की छात्रा है जो सभी के साथ खुले दिल से मिलती जुलती है। एक बार वो बेहोश हो जाने के बाद जब डाक्टरी जाँच करायी जाती है तो डाक्टर उसे गर्भवती करार देता है। कि

ये काफिला है प्यार का चलता ही जायेगा....मुकेश और आशा ने किया था अपने श्रोताओं से वादा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 198 युं तो आशा भोंसले और मुकेश ने अलग अलग असंख्य गीत गाए हैं, लेकिन जब इन दोनों के गाए हुए युगल गीतों की बात आती है तो हम बहुत ज़्यादा लोकप्रिय गीतों की फ़ेहरिस्त बनाने में असफल हो जाते हैं। हक़ीकत यह है कि मुकेश ने ज़्यादातर लता जी के साथ ही अपने मशहूर युगल गीत गाए हैं। लेकिन फिर भी आशा-मुकेश के कई युगल गीत हैं जो यादगार हैं। ख़ास कर राज कपूर की उन फ़िल्मों में जिनमें लता जी की आवाज़ मौजूद नहीं हैं, उनमें हमें आशा जी के साथ मुकेश के गाए गानें सुनने को मिले हैं, जैसे कि 'फिर सुबह होगी', 'मेरा नाम जोकर', वगेरह। राज कपूर कैम्प से बाहर निकलें तो आशा-मुकेश के जिन गीतों की याद झट से आती है, वे हैं 'एक बार मुस्कुरा दो' फ़िल्म के गानें और फ़िल्म 'तुम्हारी क़सम' का "हम दोनो मिल के काग़ज़ पे दिल के चिट्ठी लिखेंगे जवाब आएगा"। आज हमने जिस युगल गीत को चुना है वह इन में से कोई भी नहीं है। बल्कि हम जा रहे हैं बहुत पीछे की ओर, ४० के दशक के आख़िर में। १९४८ में हंसराज बहल के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'चुनरिया' से शुरुआत करने क

सब कुछ करना इस दुनिया में, प्यार न करना भूल के...चेता रहे हैं आशा और एस डी बतीश साहब

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 197 आ ज है '१० गायक और एक आपकी आशा' की सातवीं कड़ी। इस शृंखला में हम आप को सुनवा रहे हैं आशा भोंसले के साथ १० अलग अलग गायकों के गाये फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के १० युगल गीत। इन गायकों में से कुछ गायक हैं अपने ज़माने के मशहूर गायक, और कुछ हैं थोड़े से कम जाने पहचाने, जिन्हे हम कह सकते हैं कमचर्चित। आज ऐसे ही एक कमचर्चित गायक की बारी। ये गायक भी हैं और संगीतकार भी। फ़िल्म संगीत में ये कमचचित ज़रूर हो सकते हैं लेकिन संगीत के क्षेत्र में इनका नाम एक चमकता हुआ सितारा है जिन्होने संगीत के विकास में, संगीत के प्रचार में बेहद सराहनीय योगदान दिया है। ये हैं शिव दयाल बतीश, जिन्हे हम एस. डी. बतीश के नाम से भी जानते हैं, और जिन्होने कई गीत सिर्फ़ बतीश के नाम से भी गाए हैं। हम बतीश जी पर थोड़ी देर में आते हैं, आइए उससे पहले चलते हैं ५० के दशक के शुरुआती साल में। १९५१ में एक फ़िल्म आयी थी 'अदा'. १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' से शुरुआत करने के बाद इसके अगले ही साल संगीतकार मदन मोहन को अपना पहला बड़ा ब्रेक मिला शेखर और रेहाना अभिनीत देवेन्

तू हुस्न है मैं इश्क हूँ, तू मुझमें है मैं तुझमें हूँ....साहिर, रवि, आशा और महेंद्र कपूर वाह क्या टीम है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 195 आ शा भोंसले ने जिन जिन पार्श्व गायकों के साथ सब से ज़्यादा लोकप्रिय गानें गाये हैं, उनमें किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी के बाद, मेरे ख़याल से महेन्द्र कपूर का नाम आना चाहिए। बी. आर. चोपड़ा कैम्प के सदस्यों में संगीतकार रवि और गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ साथ आशा भोंसले और महेन्द्र कपूर ने भी एक लम्बे समय तक काम किया है। आशा जी और महेन्द्र कपूर के गाए युगल गीतों में 'नवरंग', 'धूल का फूल', 'हमराज़', 'गुमराह', 'आदमी और इंसान', 'वक़्त', 'पति पत्नी और वो', और 'दहलीज़' जैसी मशहूर फ़िल्मों के गानें रहे हैं। आज हम जिस गीत को आप तक पहुँचा रहे हैं वह है फ़िल्म 'हमराज़' का, "तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ, तू मुझ में है मैं तुझ में हूँ"। करीब करीब ७ मिनट २७ सेकन्ड्स के इस गीत में इतिहास की मशहूर प्रेम कहानियों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से साहिर साहब ने ज़िंदा किया है। सोहनी-महिवाल, सलीम-अनारकलि तथा रोमियो जुलियट की दास्तान का बयान हुआ है इस गीत में। १९६७ में बनी फ़िल्म 'हमराज़' बी. आर. चोपड

रे मन सुर में गा...फ़िल्मी गीतों में भी दिए हैं मन्ना डे और आशा ने उत्कृष्ट राग गायन की मिसाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 193 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के पार्श्वगायकों में एक महत्वपूर्ण नाम मन्ना डे साहब का रहा है। भले ही उन्हे नायकों के पार्श्व गायन के लिए बहुत ज़्यादा मौके नहीं मिले, लेकिन उनकी गायकी का लोहा हर संगीतकार मानता था। शास्त्रीय संगीत में उनकी मज़बूत पकड़ का ही नतीजा था कि जब भी किसी फ़िल्म में शास्त्रीय संगीत पर आधारित, या फिर दूसरे शब्दों में, मुश्किल गीतों की बारी आती थी तो फ़िल्मकारों और संगीतकारों को सब से पहले मन्ना दा की ही याद आ जाती थी। आज '१० गायक और एक आपकी आशा' की तीसरी कड़ी में आशा भोंसले का साथ निभाने के लिए हमने आमंत्रण दिया है इसी सुर गंधर्व मन्ना डे साहब को! युं तो मन्ना दा ने लता मंगेशकर के साथ ही अपने ज़्यादातर लोकप्रिय युगल गीत गाए हैं, लेकिन आशा जी के साथ भी उनके गाए बहुत सी सुमधुर रचनाएँ हैं। आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में छा रहा है शास्त्रीय संगीत का रंग मन्ना दा और आशा जी की आवाज़ों में। फ़िल्म 'लाल पत्थर' का यह गीत है "रे मन सुर में गा"। क्या गाया है इन दोनों ने इस गीत को! कोई किसी से कम नहीं। इस जैसे गीत को सुन कर

चल बादलों के आगे ....कहा हेमंत दा ने आशा के सुर से सुर मिलाकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 192 '१० गायक और एक आपकी आशा' की पहली कड़ी में कल आप ने आशा भोसले और तलत महमूद का गाया फ़िल्म 'इंसाफ़' का युगल गीत सुना था। आज भी कल जैसा ही एक नर्म-ओ-नाज़ुक रोमांटिक युगल गीत लेकर हम हाज़िर हुए हैं। आज के गायक हैं हेमंत कुमार। इससे पहले की हम आज के गीत की चर्चा करें, क्योंकि यह शृंखला केन्द्रित है आशा जी पर, तो आशा जी के बारे में पहले कुछ बातें हो जाए! आशा जी ने फ़िल्म जगत में अपना सफ़र शुरु किया था बतौर बाल कलाकार। 'बड़ी माँ' और 'आई बहार' जैसी फ़िल्मों में उन्होने अभिनय किया था। बतौर पार्श्वगायिका उन्हे पहला मौका दिया था संगीतकार हंसराज बहल ने, फ़िल्म थी 'चुनरिया' और साल था १९४८। लेकिन यह फ़िल्म नहीं चली और उनका गाना भी नज़रंदाज़ हो गया। शोहरत की ऊँचाइयों को छूने के लिए उन्हे करीब करीब १० साल संघर्ष करना पड़ा. १९५७ के कुछ फ़िल्मों से वो हिट हो गयीं और १९५८ में बनी 'हावड़ा ब्रिज' के "आइए मेहरबान" गीत से तो वो लोगों के दिलों पर राज करने लगीं। १९४८ की 'चुनरिया' से लेकर १९५८ की 'हावड़ा ब्रिज