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हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद... राही मासूम रज़ा, जगजीत-चित्रा एवं आबिदा परवीन के साथ

"मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद" - बस इस पंक्ति से हीं राही साहब ने अपने चाँद के दु:ख का पारावार खड़ कर दिया है। चाँद शायरों और कवियों के लिए वैसे हीं हमेशा प्रिय रहा है और इस एक चाँद को हर कलमकार ने अलग-अलग तरीके से पेश किया है। अधिकतर जगहों पर चाँद एक महबूबा है और शायद(?) यहाँ भी वही है।

भला हुआ मेरी मटकी फूटी.. ज़िन्दगी से छूटने की ख़ुशी मना रहे हैं कबीर... साथ हैं गुलज़ार और आबिदा

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११३ सू फ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बडे खूबसूरत रूप लेता है| कभी नैहर छूट जाता है, कभी चोला बदल लेता है| जो मरता है ऊंचा ही उठता है, तरह तरह से अंत-आनन्द की बात करते हैं| कबीर के यहां, ये खयाल कुछ और करवटें भी लेता है, एक बे-तकल्लुफ़ी है मौत से, जो जिन्दगी से कहीं भी नहीं| माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे । एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रोदुंगी तोहे ॥ माटी का शरीर, माटी का बर्तन, नेकी कर भला कर, भर बरतन मे पाप पुण्य और सर पे ले| आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे"..: भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे । मैं तो पनिया भरन से छूटी रे ॥ बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय । जो दिल खोजा आपणा, तो मुझसा बुरा ना कोय ॥ ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नांहि । सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठे घर मांहि ॥ हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को हुशारी क्या । रहे आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ॥ कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा ना जाये । एक गया सो जा रहा, दरिया लहर समाये ॥ लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल । लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥ हँस हँस कु

साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२ न शे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है। सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये । जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥ कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये ! गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे औ

मन लागो यार फ़क़ीरी में: कबीर की साखियों की सखी बनकर आई हैं आबिदा परवीन, अगुवाई है गुलज़ार की

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१११ सू फ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़। माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे, मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे। आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं। मन लागो यार फ़क़ीरी में... एक तो करैला उस पर से नीम चढा... इसी तर्ज़ पर अगर कहा जाए "एक तो शहद ऊपर से गुड़ चढा" तो यह विशेषण, यह मुहावरा आज के गीत पर सटीक बैठेगा। सच कहूँ तो सटीक नहीं बैठेगा बल्कि थोड़ा पीछे रह जाएगा, क्योंकि यहाँ गुड़ चढे शहद के ऊपर शक्कर के कुछ टुकड़े भी हैं। कबीर की साखियाँ अपने आप में हीं इस दुनिया से दूर किसी और शय्यारे से आई हुई सी लगती है, फिर अगर उन साखियों पर आबिदा की आवाज़ के गहने चढ जाएँ तो हर साखी में कही गई दुनिया को सही से समझने और सही से समझकर जीने का सीख देने वाली बातों का असर कई गुणा बढ जाएगा। वही हुआ है यहाँ... लेकिन यह जादू यही तक नहीं थमा। इससे पहले की आबिदा अप

है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५ इ ससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद! आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिल

ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए.. मख़्दूम मोहिउद्दीन के लफ़्ज़ औ' आबिदा की पुकार..वाह जी वाह!

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९३ दि न से महीने और फिर बरस बीत गये फिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती है फिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती है फजाओं में आसमानों में मुझे यूं महसूस होता है जैसे तू हयात बन गया है और मैं मर गया हूं। अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और जज़्बातों से लबरेज कर जाती हैं। मैंने "मख़्दूम की शायरी के दीवाने" इसलिए कहा क्योंकि आज भी हममें से कई सारे लोग "मख़्दूम" से अनजाने हैं, लेकिन जो भी "मख्दूम" को जानते हैं उनके लिए मख़्दूम "शायर-ए-इंक़लाब" से कम कुछ भी नहीं। जिसने भी "मख़्दूम" की शायरी पढी या सुनी है, वह उनका दीवाना हुए बिना रह नहीं सकता। हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाला यह शायर "अंग्रेजों" और "निज़ाम" की मुखालफ़त करने के कारण हमेशा हीं लोगों के दिलों में रहा है। उर्दू अदब में कई सारे ऐसे शायर हुए हैं, जिन्हें बस लिखने से काम था, तो कई ऐसे

गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम....... महफ़िल-ए-नौखेज़ और "फ़ैज़"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३१ आ ज की महफ़िल बड़ी हीं खुश-किस्मत है। आज हमारी इस महफ़िल में एक ऐसे शम्म-ए-चरागां तशरीफ़फ़रमां हैं कि उनकी आवभगत के लिए अपनी जबानी कुछ कहना उनकी शान में गुस्ताखी के बराबर होगा। इसलिए हमने यह निर्णय लिया है कि इनके बारे में या तो इन्हीं का कहा कुछ पेश करेंगे या फिर इनके जानने वालों का कहा। इनकी शायरी के बारे में उर्दू के एक बुजुर्ग शायर "असर" लखनवी फ़रमाते हैं: "इनकी शायरी तरक़्की के मदारिज (दर्जे) तय करके अब इस नुक्ता-ए-उरूज (शिखर-बिन्दु) पर पहुंच गई है, जिस तक शायद ही किसी दूसरे तरक्क़ी-पसंद (प्रगतिशील) शायर की रसाई हुई हो। तख़य्युल (कल्पना) ने सनाअत (शिल्प) के जौहर दिखाए हैं और मासूम जज़्बात को हसीन पैकर (आकार) बख़्शा है। ऐसा मालूम होता है कि परियों का एक ग़ौल (झुण्ड) एक तिलिस्मी फ़ज़ा (जादुई वातावरण) में इस तरह मस्ते-परवाज़ (उड़ने में मस्त) है कि एक पर एक की छूत पड़ रही है और क़ौसे-कुज़ह (इन्द्रधनुष) के अक़्कास (प्रतिरूपक) बादलों से सबरंगी बारिश हो रही है।" पंजाब के सियालकोट में जन्मे इस बेमिसाल शायर को "उर्दू" अदब और "उर्दू&qu

तुझसे तेरे जज्बात कहूँ.... महफ़िल-ए-पुरनम और "बेगम"

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११ यूँ तो गज़ल उसी को कहते हैं जो आपके दिल-औ-दिमाग दोनों को हैरत में डाल दे। पर आज की गज़ल को सुनकर एकबारगी तो मैं सकते में आ गया या यह कहिए कि गज़ल को सुनकर और फ़िर उसके बारे में जाँच-पड़ताल करने के बाद मैं कुछ देर तक अपने को संभाल हीं नहीं सका। गु्लूकार की आवाज़ इतनी बुलंद कि मैं सोच हीं बैठा था कि वास्तव में यह कोई गुलूकार हीं है और उसपर सोने पे सुहागा कि गज़ल के बोल भी मर्दों वाले।लेकिन जब गज़ल की जड़ों को ढूँढने चला तो अपने कर्णदोष का आभास हुआ। आज की गज़ल को किसी गुलूकार ने नहीं बल्कि एक गुलूकारा ने अपनी आवाज़ से सजाया है। इन फ़नकारा के बारे में क्या कहूँ... गज़ल-गायकी के क्षेत्र में इन्हें बेगम का दर्जा दिया जाता है और बेगम की हैसियत क्या होती है वह हम सब बखूबी जानते हैं। यह "बेगम" १९७३ से हीं इस पदवी पर काबिज है। वैसे अगर आपके घर में हीं संगीत का इतना बढिया माहौल हो तो लाजिमी है कि आपमें भी वैसे हीं गुण आएँगे। लेकिन इनके लिए बदकिस्मती यह थी कि यह जिस समाज से आती हैं वहाँ महिलाओं को निचले दर्जे का नागरिक माना जाता है और वहाँ महिलाओं के लिए संगीत तो क्या

आबिदा और नुसरत एक साथ...महफिल-ए-ग़ज़ल में

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०२ उ नकी नज़र का दोष ना मेरे हुनर का दोष, पाने को मुझको हो चला है इश्क सरफ़रोश। इश्क वो बला है जो कब किस दिशा से आए, किसी को पता नहीं होता। इश्क पर न जाने कितनी हीं तहरीरें लिखी जा चुकी हैं, लेकिन इश्क को क्या कोई भी अब तक जान पाया है। पहली नज़र में हीं कोई किसी को कैसे भा जाता है, कोई किसी के लिए जान तक की बाजी क्यों लगा देता है और तो और इश्क के लिए कोई खुद की हस्ती तक को दाँव पर लगा देता है। आखिर ऎसा क्यों है? अगर इश्क के असर पर गौर किया जाए तो यह बात सभी मानेंगे कि इश्क इंसान में बदलाव ला देता है। इंसान खुद के बनाए रस्तों पर चलने लगता है और खुद के बनाए इन्हीं रस्तों पर खुदा मिलते हैं। कहते भी हैं कि "जो इश्क की मर्जी वही रब की मर्जी " । तो फिर ऎसा क्यों है कि इन खुदा के बंदों से कायनात की दुश्मनी ठन जाती है। तवारीख़ गवाह है कि जिसने भी इश्क की निगेहबानी की है, उसके हिस्से में संग(पत्थर) हीं आए हैं। सरफ़रोश इश्क इंसान को सरफ़रोश बना कर हीं छोड़ता है,वहीं दूसरी ओर खुदा के रसूल हीं खुदा के शाहकार को पाप का नाम देने लगते हैं: संग-दिल जहां मुझसे भले हीं अलहदा