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Showing posts with the label Salil Chaudhari

चील चील चिल्लाके कजरी सुनाए.....हास्य रस में सराबोर होकर सुनिए ये गीत, हंसिये, हंसायिये और खुश रहिये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 494/2010/194 'र स माधुरी' शृंखला की चौथी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम रसों की बात कर रहे हैं और नौ कड़ियों की इस शृंखला की हर कड़ी में एक रस की चर्चा कर रहे हैं और उस रस पर आधारित कोई लोकप्रिय फ़िल्मी गीत बजा रहे हैं। शृंगार, अद्भुत और शांत रस के बाद आज बारी हास्य रस की। हास्य रस, यानी कि ख़ुशी के भाव जो अंदर से हम महसूस करते हैं। बनावटी हँसी को हास्य रस नहीं कहा जा सकता। हास्य रस इतना संक्रामक होता है कि आप इस रस को अपने आसपास के लोगों में भी पल में आग की तरह फैला सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में हास्य का अर्थ तो यही होता है कि ख़ुश होना, जो चेहरे पर हँसी या मुस्कुराहट के ज़रिए खिलती है, लेकिन जो शुद्ध हास्य होता है वह हम अपने अंदर बिना किसी कारण के ही महसूस करते हैं। और यह भाव तब उत्पन्न होती है जब हम यह समझ या अनुभूति कर लेते हैं कि ईश्वर या जीवन हम पर महरबान है। इस तरह का हास्य एक दैवीय रस होता है, जिसे एक दैवीय तृप्ति भी कह सकते हैं। हास्य रस के जो सब से विपरीत रस हैं वो हैं करुण, भयानक और रौद्

दिल तड़प तड़प के.....सलिल दा की धुन पर मुकेश (जयंती पर विशेष) और लता की आवाजें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 445/2010/145 'गी त अपना धुन पराई' लघु शृंखला में इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के कुछ ऐसे सदाबहार नग़में जो प्रेरित हैं किसी मूल विदेशी धुन या गीत से। ये दस गीत दस अलग अलग संगीतकारों के हमने चुने हैं। पिछले चार कड़ियों में हम सुन चुके हैं स्नेहल भाटकर, अनिल बिस्वास, मुकुल रॊय और राहुल देव बर्मन के स्वरबद्ध गीत; आज बारी है संगीतकार सलिल चौधरी की। सलिल दा और प्रेरीत गीतों का अगर एक साथ ज़िक्र हो रहा हो तो सब से पहले जो गीत याद आता है, वह है फ़िल्म 'छाया' का - "इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा", जो कि मोज़ार्ट की सीम्फ़नी से प्रेरीत था। लेकिन आज हमने आपको सुनवाने के लिए यह गीत नहीं चुना है, बल्कि एक और ख़ूबसूरत गीत जो आधारित है पोलैण्ड के एक लोक गीत पर। फ़िल्म 'मधुमती' का यह सदाबहार गीत है "दिल तड़प तड़प के दे रहा है ये सदा, तू हम से आँख ना चुरा, तुझे क़सम है आ भी जा"। लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ों में गीतकार शैलेन्द्र की रचना। मूल पोलैण्ड का लोक गीत कुछ इस तरह से है - "Szła Dzieweczka do Laseczka,

भारतीय और पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत, दोनों में ही माहिर थे सलिल दा

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २९ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में आज प्रस्तुत है गीतकार योगेश का लिखा, सलिल चौधरी का संगीतबद्ध किया हुआ फ़िल्म 'छोटी सी बात' का शीर्षक गीत। इस गीत को आप '१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला में सुन चुके हैं। गीतकार योगेश द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम का एक अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं - "मेरे पिताजी की मृत्यु के बाद मुझे लखनऊ छोड़ना पड़ा। हमारे एक आत्मीय संबंधी बम्बई में फ़िल्म लाइन में थे, सोचा कि कहीं ना कहीं लगा देंगे, पर ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। बल्कि मेरा एक दोस्त जो मेरे साथ क्लास-५ से साथ में है, वह मेरे साथ बम्बई आ गया। उसी ने मुझसे कहा कि तुम्हे फ़िल्म-लाइन में ही जाना है। यहाँ आकर पहले ३ सालों तक तो भटकते रहे। ३ सालों तक कई संगीतकारों से 'कल आइए परसों आइए' ही सुनता रहा। ऐसे करते करते एक दिन रोबिन बनर्जी ने मुझे बुलाया और कहा कि एक लो बजट फ़िल्म है, जिसके लिए मैं गानें बना रहा हूँ। एक साल तक हम गानें बनाते रहे और गानें स्टॊक होते गए। तो जब 'सखी रॊबिन' फ़िल्म के लिए निर्माता ने गानें मँगवाए, एक ही दिन

न जाने क्यों होता है ये जिंदगी के साथ...कि कुछ गीत कभी दिलो-जेहन से उतरते ही नहीं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 372/2010/72 ली ग से हट के फ़िल्मों की बात करें तो ऐसी फ़िल्मों में बासु चटर्जी का योगदान उल्लेखनीय रहा है। मध्यम वर्गीय परिवारों की छोटी छोटी ख़ुशियों, तक़लीफ़ों और उनकी ज़िंदगियों को असरदार तरीके से प्रस्तुत करने में बासु चटर्जी और ऋषिकेश मुखर्जी का अच्छा ख़ासा नाम रहा है। आज हम '१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला में जिस फ़िल्म क गीत सुनेंगे, उसे बी. आर. चोपड़ा ने बनायी थी और बासु दा का निर्देशन था। यह फ़िल्म थी १९७५ की 'छोटी सी बात'। याद है ना आपको अमोल पालेकर की वो भोली अदाएँ, और साथ में विद्या सिंहा और अशोक कुमार। क्या कहा, याद नहीं? चलिए हम आपको इस फ़िल्म की थोड़ी भूमिका बता देते हैं। अरुण (अमोल पालेकर) एक शर्मीला क़िस्म का लड़का, जो बम्बई में अकाउंटैण्ट का काम करता है, प्रभा (विद्या सिंहा) नाम की लड़की से इश्क़ लड़ाने के सपने देखा करता है। लेकिन वह कभी प्रभा से अपनी दिल की बात नहीं कह पाता। उधर नागेश (असरानी) अरुण को उकसाता है कि वह 'रोमांस स्पेशियलिस्ट' जुलियस नागेन्द्रनाथ (अशोक कुमार) से प्रेम शास्त्र की तालीम ले प्रभा को हासिल क

छम छम नाचत आई बहार....एक ऐसा मधुर गीत जिसे सुनकर कोई भी झूम उठे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 366/2010/66 "ए क बार फिर बसंत जवान हो गया, जग सारा वृंदावन धाम हो गया, आम बौराई रहा, सरसों भी फूल रहा, खेत खलिहान शृंगार हो गया, पिया के हाथ दुल्हन शृंगार कर रही, आज धूप धरती से प्यार कर रही, बल, सुंदरता के आगे बेकार हो गया, सृष्टि पे यौवन का वार हो गया, रात भी बसंती, प्रभात भी बसंती, बसंती पिया का दीदार हो गया, सोचा था फिर कभी प्यार ना करूँगा, पर 'अंजाना' बसंत पे निसार हो गया, एक बार फिर बसंत जवान हो गया।" अंजाना प्रेम ने अपनी इस कविता में बसंत की सुंदरता को शृंगार रस के साथ मिलाकर का बड़ा ही ख़ूबसूरत नज़ारा प्रस्तुत किया है। दोस्तों, इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं इस रंगीले मौसम को और भी ज़्यादा रंगीन बनानेवाले कुछ रंगीले गीत इस 'गीत रंगीले' शृंखला के अंतर्गत। आज प्रस्तुत है राग बहार पर आधारित लता मंगेशकर की आवाज़ में फ़िल्म 'छाया' का गीत "छम छम नाचत आई बहार"। राजेन्द्र कृष्ण के लिखे इस गीत की तर्ज़ बनाई है सलिल चौधरी ने। १९६१ की यह फ़िल्म ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे सुनिल

जाने वाले सिपाही से पूछो...ओल्ड इस गोल्ड का ३०० एपिसोड सलाम करता है देश के वीर जांबाज़ सिपाहियों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 300 औ र दोस्तों, हमने लगा ही लिया अपना तीसरा शतक। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज पूरा कर रहा है अपना ३००-वाँ अंक, और इस मुक़ाम तक पहुँचने में आप सभी के योगदान और प्रोत्साहन की हम सराहना करते हैं कि इस सीरीज़ को यहाँ तक लाने में आप ने हमारा भरपूर साथ दिया। और हर बार की तरह हमें पूरा विश्वास भी है कि आगे भी आपका ऐसा ही साथ बना रहेगा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथ। जैसा कि इन दिनों आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के पसंद के गानें और आज बारी है पाँचवें गीत की, तो आज के इस ख़ास अंक को शरद जी के पसंद के गीत के ज़रिए हम समर्पित करना चाहेंगे हमारे देश के उन वीर जवानों को जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर इस मातृभूमि की रक्षा करते हैं, हमारी हिफ़ाज़त करते हैं, इस देश को दुश्मनों से सुरक्षित रखते हैं। आज हम घर में चैन से बस इसलिए सो सकते हैं कि सरहद पर हमारे फ़ौजी भाई जाग रहे होते हैं। देश के वीर जवानों का ऋण किसी भी तरह से चुकाया तो नहीं जा सकता लेकिन यह हमारी छोटी से कोशिश है उन वीरों को सम्मानित करने की, उन शहीदों के आगे नतमस्तक होने की। और इस कोशिश में शरद जी की भी कोशिश शामिल ह

ओ सजना बरखा बहार आई....लता के मधुर स्वरों की फुहार जब बरसी शैलेन्द्र के बोलों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 288 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। आज का जो गीत हमने चुना है वह कोई दार्शनिक गीत नहीं है, बल्कि एक बहुत ही नमर-ओ-नाज़ुक गीत है बरखा रानी से जुड़ा हुआ। बारिश की रस भरी फुहार किस तरह से पेड़ पौधों के साथ साथ हमारे दिलों में भी प्रेम रस का संचार करती है, उसी का वर्णन है इस गीत में, जिसे हमने चुना है फ़िल्म 'परख' से। शैलेन्द्र का लिखा यह बेहद लोकप्रिय गीत है लता जी की मधुरतम आवाज़ में, "ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अखियों में प्यार लाई"। मुखड़े में "बरखा" शब्द वाले गीतों में मेरा ख़याल है कि इस गीत को नंबर एक पर रखा जाना चाहिए। और सलिल चौधरी के मीठे धुनों के भी क्या कहने साहब! शास्त्रीय, लोक और पहाड़ी धुनों को मिलाकर उनके बनाए हुए इस तरह के तमाम गानें इतने ज़्यादा मीठे लगते हैं सुनने में कि जब भी हम इन्हे सुनते हैं तो चाहे कितने ही तनाव में हो हम, हमारा मन बिल्कुल प्रसन्न हो जाता है। इसी फ़िल्म में कुछ और गीत हैं लता जी की आवाज़ में जैसे कि "मिला है किसी का झुमका

मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा...जब किशोर ने स्वर दिए शैलेन्द्र के शब्दों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 285 रा ज कपूर के आर.के.फ़िल्म्स के बैनर के बाहर की फ़िल्मों में लिखे हुए गीतकार शैलेन्द्र के गीतों का करवाँ इन दिनों बढ़ा जा रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। मन्ना डे, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी और मुकेश के बाद आज बारी है हमारे किशोर दा की। इससे पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शैलेन्द्र, सलिल चौधरी और किशोर कुमार की तिकड़ी का केवल गीत बजाया है फ़िल्म 'नौकरी' से "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में" । आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं इसी तिकड़ी का बनाया हुआ १९५७ की फ़िल्म 'मुसाफ़िर' का एक बड़ा ही प्यारा सा बच्चों वाला गीत - "मुन्ना बड़ा प्यारा अम्मी का दुलारा, कोई कहे चाँद कोई आँख का तारा"। 'फ़िल्म ग्रूप' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया ॠषीकेश मुखर्जी ने। फ़िल्म की कहानी काफ़ी दिलचस्प थी। कहानी एक मकान और उसमें रहने वाले किराएदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। हर किराएदार कुछ दिनों के लिए रहता है, दर्शकों के दिलों में जगह बनाता है

आजा रे परदेसी, मैं तो कब से खडी इस पार....लता के स्वरों में गूंजी शैलेन्द्र की पीड़ा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 282 "शै लेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। इस शृंखला में हम ना केवल राज कपूर निर्मित फ़िल्मों के बाहर शैलेन्द्र के लिखे गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ये सभी गानें अपने आप में एक एक मास्टरपीस हैं और एक दूसरे से बिल्कुल जुदा है, अलग है, अनूठा है। आज जिस गीत को हमने चुना है वह एक हौंटिंग् नंबर है लता जी का गाया हुआ। ५० और ६० के दशकों में एक ट्रेंड चला था सस्पेन्स फ़िल्मों का और हर ऐसी फ़िल्म में लता जी का गाया हुआ एक हौंटिंग् गीत होता था। १९४९ में फ़िल्म 'महल' के बाद १९५८ में अगली इस तरह की सुपरहिट सस्पेन्स फ़िल्म आई 'मधुमती' जो पुनर्जनम की कहानी पर आधारित थी। इस फ़िल्म में शैलेन्द्र ने एक ऐसा गीत लिखा जिसे गा कर लता जी को अपने जीवन का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। जी हाँ, "मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियाँ थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी"। सलिल चौधरी के मीठे धुनों से सजी इस फ़िल्म के सभी के सभी गानें ख़ूब ख़ूब सुने गये और आज भी उनकी चमक उतनी ही बरकरार है, और रेडियो पर इस फ़िल्म के गानें त

सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं....कौन न खो जाए मुकेश की इस मस्ती भरी आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 187 दि लीप कुमार के लिए पार्श्वगायन की अगर बात करें तो सब से पहले उनके लिए गाया था अरुण कुमार ने उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में। उसके बाद कुछ वर्षों के लिए तलत महमूद बने थे दिलीप साहब की आवाज़। बाद में रफ़ी साहब की आवाज़ ही ज़्यादा सुनाई दी थी दिलीप साहब के होठों से। लेकिन ५० के दशक में कुछ ऐसे गीत बनें हैं जिनमें दिलीप कुमार का प्लेबैक दिया था मुकेश ने, और ख़ास बात यह कि मुकेश की आवाज़ भी उन पर बहुत जचीं और ये तमाम गानें ख़ूब चले भी, फ़िल्म 'यहूदी' का 'ये मेरा दीवानापन है" कह लीजिए या फिर फ़िल्म 'अंदाज़' का "झूम झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत", या फिर 'मधुमती' का "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" और "दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा"। लेकिन कहा जाता है कि दिलीप साहब नहीं चाहते थे कि मुकेश उनके लिए गाए क्योंकि उनका ख़याल था कि मुकेश की आवाज़ उन पर फ़िट नहीं बैठती। यह बात है १९४८ की जब 'अंदाज़' बन रही थी। फ़िल्म के संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हे समझाया कि ऐसे गीतों के लिए मुकेश की आव

कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये, मौसम बीता जाए... कैसे एक गीत समा गयी जीवन की तमाम सच्चाइयाँ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 179 दो स्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। तीन गानें हम सुन चुके हैं, आज है चौथे गीत की बारी। यह एक ऐसा गीत है जो जुड़ा हुआ है हमारी मिट्टी से। इस गीत को सुनते हुए मन कहीं सुदूर गाँव में पहुँच जाता है जहाँ पर सावन की पहली फुहार के आते ही किसान और उनके परिवार के सदस्य जी जान से लग जाते हैं बीज बुवाई के काम में। "धरती कहे पुकार के, बीज बिछा ले प्यार के, मौसम बीता जाए"। फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' का यह गीत मन्ना डे, लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में है जिसे लिखा है शैलेन्द्र ने और संगीतकार हैं सलिल चौधरी ने। इसी फ़िल्म का एक और समूह गीत "हरियाला सावन ढोल बजाता आया" हमने अपनी कड़ी नं. ९१ में सुनवाया था, और उसके साथ साथ इस फ़िल्म से जुड़ी तमाम जानकारियाँ भी हमने आप को दी थी, जिनका आज हम दोहराव नहीं करेंगे। सलिल दा की कुछ धुनें बहुत ही मीठी, नाज़ुक सी हुआ करती थी, कुछ धुनों में पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत की झलक मिलती थी, और उनके कुछ गानें ऐसे थे जिनमें झलकते थे क

मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने...सपनों के सौदागर गुलज़ार साहब को जन्मदिन पर समर्पित एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 175 "ए क मूड, कुछ बोल, एक मीठी सी धुन, बस, इतनी सी जान होती है गाने की। हाँ, कुछ गानों की उम्र ज़रूर बहुत लम्बी होती है। गीत बूढ़े नहीं होते, उन पर झुर्रियाँ नहीं पड़ती, बस सुनने वाले बदल जाते हैं"। दोस्तों, क्या आप को पता है कि गीत की यह परिभाषा किन के शब्द हैं? ये हैं अल्फ़ाज़ उस अनूठे गीतकार, शायर, लेखक, और निर्देशक की जिनकी कलम से निकलते हैं ऐसे ग़ैर पारम्परिक उपमायें और रूपक जो सुनने वालों को हैरत में डाल देते हैं। कभी इन्होने बादल के पंखों में मोती जड़े हैं तो कभी सितारों को ज़मीन पर चलने को मजबूर कर दिया है, कभी सर से आसमान उड़ जाता है, और कभी जिगर की गरमी से बीड़ी जलाने की भी बात कह जाते हैं। यह उन्ही के गीतों में संभव है कि कभी छाँव छम से पानी में कूद जाए या फिर सुबह शाम से खेलने लगे। इस अनोखे और अनूठे शख़्स को हम सब गुलज़ार के नाम से जानते हैं। आज उनके जन्मदिवस पर हम उन्हे दे रहे हैं ढेरों शुभकामनायें एक लम्बी उम्र की, बेहतरीन स्वास्थ्य की, और इसी तरह से लगातार लिखते रहने की। गुलज़ार साहब का लिखा जो गीत आज हम चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'आन

छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में....सपनों को पंख देती किशोर कुमार की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 163 प्रो फ़. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि "Dream is not something that we see in sleep; Dream is something that does not allow us to sleep"| इस एक लाइन में उन्होने कितनी बड़ी बात कही हैं। सच ही तो है, सपने तभी सच होते हैं जब उसको पूरा करने के लिए हम प्रयास भी करें। केवल स्वप्न देखने से ही वह पूरा नहीं हो जाता। ख़ैर, आप भी सोच रहे होंगे कि मैं किस बात को लेकर बैठ गया। दरअसल इन दिनों आप सुन रहे हैं किशोर कुमार के गीतों से सजी लघु शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़', जिसके तहत हम किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये ज़िंदगी के दस अलग अलग पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं, और आजका पहलू है 'सपना'। जी हाँ, वही सपना जो हर इंसान देखता है, कोई सोते हुए देखता है तो कोई जागते हुए। किसी को ज़िंदगी में बड़ा नाम कमाने का सपना होता है, तो किसी को अर्थ कमाने का। आप यूं भी कह सकते हैं कि यह दुनिया सपनों की ही दुनिया है। आज किशोर दा की आवाज़ के ज़रिये हम जो सपना देखने जा रहे हैं वह मेरे ख़याल से हर आम आदमी का सपना है। हर आदमी अपने परिवार को सुखी देखना चाहता

गंगा आये कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे...जीवन का फलसफा दिया था कभी गुलज़ार साहब ने इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 146 क वि गुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानियों और उपन्यासों पर बनी फ़िल्मों की जब बात आती है तब 'काबुलीवाला' का ज़िक्र करना बड़ा ही ज़रूरी हो जाता है। उनकी मर्मस्पर्शी कहानियों में से एक थी 'काबुलीवाला'। और फ़िल्म के परदे पर इस कहानी को बड़े ही ख़ूबसूरती के साथ पेश किये जाने की वजह से कहानी बिल्कुल जीवंत हो उठी है। यह कहानी थी एक अफ़ग़ान पठान अब्दुल रहमान ख़ान की और उनके साथ एक छोटी सी बच्ची मिनि के रिश्ते की। बंगाल के बाहर इस कहानी को जन जन तक पहुँचाने में इस फ़िल्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज दशकों बाद यह फ़िल्म सिनेमाघरों के परदों पर या टीवी के परदे पर दिखाई तो नहीं देता लेकिन रेडियो पर इस फ़िल्म के सदाबहार गानें आप ज़रूर सुन सकते हैं। दूसरे शब्दों में आज यह फ़िल्म जीवित है अपने गीत संगीत की वजह से। इस फ़िल्म का एक गीत "ऐ मेरे प्यारे वतन... तुझपे दिल क़ुर्बान" बेहद प्रचलित देशभक्ती रचना है जिसे प्रेम धवन के बोलों पर मन्ना डे ने गाया था। इसी फ़िल्म का एक दूसरा गीत है हेमन्त कुमार की आवाज़ में जो आज हम आप के लिए लेकर आये हैं 'ओल्

कहीं दूर जब जब दिन ढल जाए....ऐसे मधुर गीत होठों पे आये....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 131 क ल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप ने १९६१ में बनी फ़िल्म 'प्यासे पंछी' का गीत सुना था। आइये आज एक लम्बी छलांग लगा कर १० साल आगे को निकल आते हैं। यानी कि सन् १९७१ में। दोस्तों, यही वह साल था जिसमें बनी थी ऋषिकेश मुखर्जी की कालजयी फ़िल्म 'आनंद'। इस फ़िल्म ने लोगों के दिलों पर कुछ इस क़दर छाप छोड़ी है कि आज लगभग ४ दशक बाद भी जब यह फ़िल्म टी.वी. पर आती है तो लोग उसे बड़े प्यार और भावुकता से देखते हैं। 'आनंद' कहानी है आनंद सहगल (राजेश खन्ना) की, जो एक कैंसर का मरीज़ हैं, और यह जानते हुए भी कि वह यहाँ पर चंद रोज़ का ही मेहमान है, न केवल अपनी बची हुई ज़िंदगी को पूरे जोश और आनंद से जीता है बल्कि दूसरों को भी उतना ही आनंद प्रदान करता है। ठीक विपरीत स्वभाव के हैं भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन), जो उनके डौक्टर हैं, जो देश की दुरवस्था को देख कर हमेशा नाराज़ रहते हैं। आनंद से रोज़ रोज़ की मुलाक़ातें और नोंक-झोंक डा. भास्कर को ज़िंदगी के दुख तक़लीफ़ों के पीछे छुपी हुई ख़ुशियों के रंगों से अवगत कराती है। अपनी चारों तरफ़ ढेर सारी ख़ुशियाँ बिखेर कर,

जिंदगी ख्वाब है....राज कपूर ने जिसे जिया एक सिल्वर स्क्रीन ख्वाब की तरह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 103 'रा ज कपूर विशेष' जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे। दोस्तों, कल हमारा अंक ख़त्म हुआ था मुकेशजी की बातों से जिनमें वो बता रहे थे राज कपूर के बारे मे। वहीं से बात को आगे बढ़ाते हुए सुनते हैं कि मुकेश ने आगे क्या कहा था अमीन सायानी को दिये उस पुराने साक्षात्कार मे - " अमीन भाई, एक दिन हम रणजीत स्टूडियो मे बैठे थे। हज़रत के पास एक टूटी-फूटी फ़ोर्ड गाड़ी हुआ करती थी उन दिनों। तो उसमे बिठाया हमें और ले गये बहुत दूर एक जगह। वहाँ ले जाकर अपना फ़ैसला सुनाया कि 'हम एक फ़िल्म 'आग' बनाना चाहते हैं'। तो कुछ 'सीन्स‍' भी सुनाये। 'सीन्स' तो पसंद आये ही थे मगर मुझे जो ज़्यादा बात पसंद आयी, वह थी कि जिस जोश के संग वो बनाना चाहते थे 'आग' को। " लेकिन 'आग' बनाते समय राज कपूर को काफ़ी तक़लीफ़ों का सामना करना पड़ा था, इस सवाल पर मुकेश कहते हैं - " काफ़ी तकलीफ़ें, अमीन भाई कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पैसे की तकलीफ़ें, डेटों की तकलीफ़ें, यानी कि फ़िल्म बनाते समय जो जो तकलीफ़ें आ सकती हैं एक 'प्रोड्युसर'

हरियाला सावन ढोल बजाता आया....मानसून की आहट पर कान धरे है ये मधुर समूहगान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 91 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के लिए आज हम एक बड़ा ही अनोखा समूहगान लेकर आये हैं। सन् १९५३ में बिमल राय की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'दो बीघा ज़मीन'। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ते के 'न्यू थियटर्स' में शुरु किया था और उसके बाद मुंबई आकर 'बौम्बे टाकीज़' से जुड़ गये जहाँ पर उन्होने कुछ फ़िल्में निर्देशित की जैसे कि १९५२ में बनी फ़िल्म 'माँ'। उस वक़्त 'बौम्बे टाकीज़' बंद होने के कगार पर थी। इसलिए बिमलदा ने अपनी 'प्रोडक्शन' कंपनी की स्थापना की और अपने कलकत्ते के तीन दोस्त, सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन के साथ मिलकर सलिल चौधरी की बंगला उपन्यास 'रिक्शावाला' को आधार बनाकर 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की ठानी। सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने एक बार बताया था इस फ़िल्म के बारे में, सुनिए उन्ही के शब्दों में - " १९५२ में ऋत्विक घटक बिमलदा को 'रिक्शावाला' दिखाने ले गये। बिमलदा इस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने मेरे पिताजी को अपनी कंपनी के साथ जुड़ने का न्योता दे बैठे, और इस तरह से बुनियाद पड़ी