मशहूर पार्श्व गायक महेन्द्र कपूर को अनिता कुमार की श्रद्धाँजलि
दोस्तो,
जन्म- ९ जनवरी १९३४ मूल- अमृतसर, पंजाब मृत्यु- २७ सितम्बर, २००८
अभी-अभी खबर आयी कि शाम साढ़े सात बजे महेंद्र कपूर सदा के लिए रुखसत हो लिए। सुनते ही दिल धक्क से रह गया। अभी कल ही तो हेमंत दा की बरसी थी और वो बहुत याद आये, और आज महेंद्र कपूर चल दिये।
कानों में गूंजती उनकी आवाज के साथ साथ अपने बचपन की यादें भी लौट रही हैं। 1950 के दशक में जब महोम्मद रफ़ी, तलत महमूद, मन्ना डे, हेमंत दा, मुकेश और कालांतर में किशोर दा की तूती बोलती थी ऐसे में भी महेंद्र कपूर साहब ने अपना एक अलग मुकाम बना लिया था। एक ऐसी आवाज जो बरबस अपनी ओर खींच लेती थी। यूं तो उन्होंने उस जमाने के सभी सफ़ल नायकों को अपनी आवाज से नवाजा लेकिन मनोज कुमार भारत कुमार न होते अगर महेंद्र कपूर जी की आवाज ने उनका साथ न दिया होता। महेंद्र कपूर जी का नाम आते ही जहन में 'पूरब और पश्चिम' के गाने गूंजते लगते हैं
"है प्रीत की रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूँ, भारत का रहने वाला हूँ भारत की बात सुनाता हूँ"
आज भी इस गीत को सुनते-सुनते कौन भारतीय साथ में गुनगुनाने से खुद को रोक सकता है और किस भारतीय की छाती इस गाने के साथ चौड़ी नहीं होती। लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया था "जय जवान, जय किसान", भारत के इस सपूत ने शास्त्री जी के इस नारे को अपने गीतों में न सिर्फ़ जिया बल्कि उस नारे को अमर भी कर दिया। जहां एक तरफ़ 'शहीद' फ़िल्म में उनकी आवाज गूंजी
"मेरा रंग दे बसंती चौला, माय , रंग दे बंसती चौला"
तो दूसरी तरफ़ 'उपकार' फ़िल्म के किसान की आवाज बन उन्हों ने गर्व से कहा
"मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती," ।
गीत सुनें
चलो इक बार फिर से
शेष गाने आप नीचे के प्लेयर से सुनें।
मोहम्मद रफ़ी को अपना गुरु मानने वाले, महेंद्र जी ने 1956 में ही फ़िल्मी गीतों के गायन की दुनिया में प्रवेश किया, लोगों ने शुरू-शुरू में कहा कि मोहम्मद रफ़ी को कॉपी करता है, लेकिन महज तीन साल बाद ही सन 1959 में उनका गाया 'नवरंग' फ़िल्म का गाना
-"आधा है चंद्रमा रात आधी, रह न जाये तेरी-मेरी बात आधी"
कालजयी गीत हमारे दिलों पर अपनी मोहर लगा गया। इसके पहले कि लोग कहते कि अरे ये तो तुक्का था जो लग गया, 1959 में ही एक और फ़िल्म 'धूल का फूल' का वो प्यारा सा गीत
"तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ, वफ़ा कर रहा हूँ वफ़ा चाहता हूँ"
ऐसा लोकप्रिय हुआ कि हर कोई उनसे वफ़ा करने को मजबूर हो गया।
फ़िर तो महेंद्र जी की शोहरत को मानो पंख लग गये, 1963 में आयी फ़िल्म 'गुमराह' का वो सदा बहार गीत
-" चलो इक बार फ़िर से अजनबी बन जाएं हम दोनों"
तान छेड़ते महेन्द्र
सुनिल दत्त और माला सिन्हा पर फ़िल्माया गया ये गीत हर टूटे दिल की आवाज बन गया और आज भी है। इस गाने पर महेंद्र जी को पहली बार फ़िल्म फ़ेअर अवार्ड भी मिला। इसी जैसा एक और गीत जो हमें याद आ रहा है वो है फ़िल्म 'वक़्त' का। हम लगभग दस साल के रहे होंगे जब फ़िल्म आयी "वक़्त", इस फ़िल्म के दो गाने बहुत लोकप्रिय हुए, एक तो मन्ना डे का गाया हुआ सदाबहार गीत जो आज भी हर किसी को गुदगुदाता है "ऐ मेरी जोहरा जबीं" और दूसरा गीत जो बहुत लोकप्रिय हुआ वो था महेंद्र जी का गाया " दिन हैं बहार के ",
शशी कपूर और शर्मिला टैगोर पर फ़िल्माये इस गीत में महेंद्र जी ने जमाने भर की बेबसी भर शशी कपूर के किरदार को नयी ऊंचाई पर पहुंचा दिया था।
जहां ये गमगीन गाने हमारे गमों के साथी बने वहीं 'बहारें फ़िर भी आयेगीं' फ़िल्म का गीत "बदल जाए अगर माली चमन होता नहीं खाली"
हर दिल की हौसलाअफ़्जाई करता मिल जाता है। 'किस्मत' फ़िल्म का वो गाना "लाखों है यहां दिल वाले पर प्यार नहीं मिलता" और "तुम्हारा चाहने वाला खुदा की दुनिया में मेरे सिवा भी कोई और हो खुदा न करे" कितने प्रेमियों को जबान दे गया
क्या क्या याद करें? अगर उन्होंने देश प्रेम, विरह, रोमान्स, आशावाद दिया तो भक्ति का रंग भी खूब जमाया। पूरब पश्चिम में उनकी गायी आरती "ॐ जय जगदीश हरे " तो आज मेरे ख्याल से हर घर में पूजा के अवसर पर बजती है। किसने सोचा था कि फ़िल्म का हिस्सा बन कर भी ये आरती फ़िल्मी रंग से अछूती रहेगी। बिना किसी लटके-झटके के सीधे सादे ट्रेडिशनल ढंग से गायी ये आरती आज भी मन को शांती देती है। 74 साल की उम्र में भी गुर्दे की बीमारी से जूझते हुए भी इस भारत के सपूत ने चैन से घर बैठना स्वीकार नहीं किया और देश-विदेश में घूम-घूम के भारतीय संगीत का जादू बिखेरता रहा, फ़िर वो जादू चाहे हिन्दी में हो या पंजाबी, गुजराती या मराठी में। मानो कहते हों
"तुम अगर साथ देने का वादा करो मैं यूं ही मस्त नगमें लुटाता रहूँ"
पूरे कायनात की मौसिकी यहां इस परिवार में बसती है...
चूँकि इस पूरे माह हम बात कर रहे हैं मंगेशकर बहनों की, जिनकी दिव्य आवाजों ने हिन्दी फ़िल्म संगीत का आकाश सजाया है. इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज आवाज़ पर, दिलीप कवठेकर आयें हैं, आशा जी के गुलाम अली साहब के साथ बनी एल्बम "मेराज़-ए-ग़ज़ल" की रिकॉर्डिंग के समय का एक संस्मरण लेकर, पढ़ें और आनंद लें इस बेमिसाल सी ग़ज़ल का.
मेरा बचपन का मित्र है, दीपक भोरपकर.इन्दौर में बचपन में साथ साथ गाना बजाना करते थे. वह तबला बजाता था, मै गाना.
बडे दिनों बाद लगभग २५ वर्षों बाद पुनर्मिलन हुआ तो पता चला की जनाब मुंबई में है, और हृदयनाथ मंगेशकर के साथ कार्यक्रम में बजाते भी है. यह भी पता चला की वो लताजी और आशा जी को तबले पर रियाज़ भी करवाता है.वे दोनो लगभग रोज़ रियाज़ करती थी उन दिनों में भी.
उन दिनों आशा जी का गुलाम अली साहब के साथ जो एलबम निकल रहा था उस के लिए रियाज़ चल रहा था. दीपक उसी में बहुत व्यस्त था. दुर्भाग्यवश ,संभव होते हुए भी मेरा वहां जाने का संयोग नही बन पाया. लेकिन बातों बातों में उन दिनों का यह ताज़ा संस्मरण उसने सुनाया जो आप के लिये प्रस्तुत है.
"गये दिनों का सुराग लेकर, किधर से आया, किधर गया वो..."
इस गज़ल की बंदिश गुलाम अली जी नें आशा जी को पहली बार सुनाई. इसमें सुर संयोजन बडा ही क्लिष्ट है, हरकतें और मुरकीयां भी काफ़ी उतार चढाव में. गुलाम अली जी नें पहले थोडी सादी ही धुन दी यह सोच कि आशाजी को कठिनाई होगी गाने में. बाद में जमा तो थोडी हरकतें बढा देंगे. तो आशाजी नें बडे विनय से कहा कि आपकी जो भी बंदिश होगी मुझे गाने में कोई तकलीफ़ नही होगी. वैसे भी मेरे भाई भी इस तरह की ही धुनें बनाया करते है. मै मेहनत करूंगी ,आप मुझे एक दिन दें बस.
दूसरे दिन जब गुलाम अली वापिस आये तो पाया की आशाजी नें उनकी धुन में ना सिर्फ़ प्रवीणता हासिल कर ली थी, मगर अपनी तरफ़ से कुछ और खास 'चीज़ें' डाल दी, जिससे ग़ज़ल में और जान आ गयी थी. गुलाम अली साहब बेहद खुश हुए. वो भी इस महान गायिका की गायन प्रतिभा के कायल हुए बिना नही रह सके.
उसके बाद जब गुलाम अली जी नें हृदयनाथ मंगेशकर से मिल कर उनसे उनकी कुछ खास धुनें सुनी तो वे उनके भी कायल हो गये.कहने लगे, कि पूरे कायनात की मौसिकी यहां इस परिवार में बसती है!!
गुलाम अली साहब ग़लत नही थे, इस बात की एक बार फ़िर पुष्टि करती है ये ग़ज़ल आशा जी की सुरीली आवाज़ में. आप भी सुनें -
ख़ैयाम साहब ने जितना भी संगीत दिया है वो भीड़ से अलग नज़र आता है । उनके गीत अर्द्ध रात्रि का स्वप्न नहीं हो कर दोपहर की उनींदी आंखों का ख्वाब हैं जो नींद टूटने के बाद कुछ देर तक अपने सन्नाटे में डुबोये रखते हैं । आज जिस गीत की बात हो रही है ये गीत फ़िल्म "शंकर हुसैन" का है । "शंकर हुसैन" जितना विचित्र नाम उतने ही मधुर गीत । दुर्भाग्य से फ़िल्म नहीं चली और बस गीत ही चल कर रह गये । फ़िल्म में ''कैफ भोपाली'' का लिखा गीत जो लता मंगेशकर जी ने ही गाया था ''अपने आप रातों में '' भी उतना ही सुंदर था जितना कि ये गीत है, जिसकी आज चर्चा होनी है । हम आगे कभी ''अपने आप रातों में '' की भी बातें करेंगें लेकिन आज तो हमको बात करनी है ''आप यूं फासलों से ग़ुज़रते रहे दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही'' की । लता जी की बर्फानी आवाज़, जांनिसार अख्तर ( जावेद जी के पिताजी) के शबनम के समान शब्दों को, खैयाम साहब की चांदनी की पगडंडी जैसी धुन पर इस तरह बिखेरती हुई गुज़र जाती है कि समय भी उस आवाज़ के पैरों की मधुर आहट में उलझा अपनी चाल भूलता नज़र आता है ।
इस गीत के भावों को पहचानना सबसे मुश्किल कार्य है कभी यह करुण रस में भीगा होता है तो अगले ही अंतरे में रहस्यवाद की छांव में खड़ा हो जाता है, या एक पल में ही सम्पूर्ण श्रृंगार और कुछ भी नहीं । चलिये हम भी लताजी, खैयाम साहब और जांनिसार अख्तर साहब के साथ एक मधुर यात्रा पर चलें । सुनतें हैं ये गीत -
इसकी शुरूआत होती है लता जी के मधुर आलाप के साथ जो शत प्रतिशत कोयल की कूक समेटे है और रूह को आम्र मंजरियों के मौसम का एहसास कराता है । मुखड़े के शुरूआत में एक रहस्य है जो मैं केवल इसलिये नहीं सुलझा पा रहा हूं कि मैंने फ़िल्म नहीं देखी है । रहस्य ये है कि ''आप यूं '' कहते समय लता जी ने हल्की सी हंसी का समावेश किया है । खनकती हंसी से शुरू होते हुए मुखड़े की बानगी देखिये -
''( हंसी) आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे...2 दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही आहटों से अंधेरे चमकते रहे रात आती रही रात जाती रही आप यूं ....''
शायद आपको भी इस रहस्यवाद में गुलज़ार साहब की मौज़ूदगी का एहसास हो रहा होगा । जांनिसार अख्तर साहब ने आहटों से अंधेरों को कुछ वैसे ही चमकाया है जैसे गुलज़ार साहब ने आंखों की महकती खुशबू को देखा था । ''आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे. दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही'' में ताने उलाहने का भाव है, या शिकायत है किंतु फिर उस हंसी का क्या ? जो मुखड़े को शुरू करती है और अगले ही क्षण ''आहटों से अंधेरे चमकते रहे रात आती रही रात जाती रही'' में रहस्यवाद का घना कुहासा छा जाता है मानो महादेवी वर्मा का उर्दू रूपांतरण हो गया हो।
लता जी की हल्की सी गुनगुनाहट के बाद पहला अंतरा आता है
''गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाईयां...2 दूर बजती रहीं कितनी शहनाईयां जिंदगी जिंदगी को बुलाती रही आप यूं ( हंसी) फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही आप यूं....
शायद ये दर्द ही है जो अपनी तनहाईयों के गुनगुनाने की आवाज़ को सुन रहा है । क्योंकि दूर से आती शहनाईयों की आवाज़ पीड़ा के एहसास को और गहरा कर देती है । जिंदगी ख़ुद को बुला रही है, या अपने सहभागी को कुछ स्पष्ट नहीं है । आप जब तक पीड़ा के मौज़ूद होने के निर्णय पर पहुंचते हैं, तब तक वापस मुखड़े के फासलों शब्द में फिर वही हंसी मौज़ूद नज़र आती है आपके निर्णय का उपहास करती ।
अगला अंतरा गुलज़ार साहब की उदासी और महादेवी वर्मा के सन्नाटों का अद्भुत संकर है
कतरा कतरा पिघलता रहा आसमां ...2 रूह की वादियों में न जाने कहां इक नदी.... हक नदी दिलरुबा गीत गाती रही आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही आप यूं....( हंसी)
आज तक कोई नहीं समझ पाया के आसमान जब शबनम के रूप में पिघलता है तो इसमें करुणा होती है या कोई ख़ुशी? यहां भी आसमां के कतरा कतरा पिघलने पर अधिक व्यक्ख्या नहीं की गई है क्योंकि अगले ही क्षण लता जी की आवाज़ आपका हाथ थाम कर रूह की वादियों में उतर जाती है । वैसे इस गाने को आंख बंद कर आप सुन रहे हैं तो पूरे समय आप रूह की वादियों में ही घूमते रहेंगें । और वो दिलरुबा नदी ? निश्चित रूप से लता जी की आवाज़ । मुखड़े के दोहराव के बाद आये ''आप यूं '' के बाद फिर एक सबसे स्पष्ट हंसी ....?
तीसरा अंतरा गीत का सबसे ख़ूबसूरत अंतरा है ।
आपकी नर्म बांहों में खो जायेंगे..2 आपके गर्म ज़ानों पे सो जायेंगे--सो जायेंगे मुद्दतों रात नींदे चुराती रही आप यूं फ़ासलों से ग़ुज़रते रहे दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही आप यूं....( हंसी) आप यूं ....
शायद किसी भटकती हुई आत्मा के अपने पुनर्जन्म पाए हुए प्रेमी से पुर्नमिलन के लिये ही ये गीत लिखा गया है । उसका प्रेमी अभी सोलह साल का किशोर ही है जो उसके होने का एहसास भी नहीं कर पा रहा है । चंदन धूप के धुंए की तरह उड़ती वो रूह उस किशोर की नर्म बांहों के आकाश या गर्म ज़ानों ( कंधे) की धरती पर अपनी मुक्ति का मार्ग ढूँढ रही है । थकी सी आवाज़ में लताजी जब इन शब्दों को दोहराती हैं ''सो जायेंगे, सो जायेंगे'' तो जन्मों जन्मों की थकान को स्पष्ट मेहसूस किया जो सकता है । अचानक आवाज़ रुक जाती है संगीत थम जाता है । ऐसा लगता है मानो उस आत्मा को अपने हल्की हल्की मूंछों वाले किशोर प्रेमी के गर्म ज़ानों पर मुक्ति मिल ही गई है, किंतु क्षण भर में ही सन्नाटा टूट जाता है और पीड़ा अपनी जगरातों भरी रातों का हिसाब देने लगती है ''मुद्दतों रात नींदे चुराती रही '' । फिर वही मुखड़ा और ''आप यूं '' में फिर वही हंसी । और सब कुछ ग़ुज़र जाता है । रह जाते हैं आप ठगे से, लता जी, खैयाम साहब और जां निसार अख्तर साहब तीन मिनट में आपको सूफी बना जाते हैं ।
1975 में ये फ़िल्म 'शंकर हुसैन" आई थी, और आज लगभग 33 साल बीत गये हैं किंतु इस गीत के आज भी उतने ही दीवाने हैं जो 33 साल पहले थे. अंत में इस गीत को सुनने के बाद इसके दीवानों की जो अवस्था होती है उसको शंकर हुसैन का लता जी का दूसरा गीत अच्छी तरह से परिभाषित करता है -
सुनिए अहमद फ़राज़ की २३ रिकॉर्डिंग उन्हीं की आवाज़ में
पिछला सप्ताह कविता-शायरी के इतिहास के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता क्योंकि हमने पिछले सोमवार कविता का न मिट सकने वाले अध्याय का सृजक, पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ को खो दिया। एक दिन बाद ही हिन्द-युग्म पर प्रेमचंद की रूला देने वाली श्रद्धाँजलि प्रकाशित हुई। दीप-जगदीप ने उनके आखिरी ३७ दिनों का ज़िक्र किया। मेरा कविता-प्रेमी मन भी उनको इंटरनेट पर तलाशता रहा। मैंने उनकी आवाज़ कभी नहीं सुनी थी। हाँ, उनकी शायरियाँ दूसरे लोगों की जुबानों से सैकड़ों बार सुन चुका था।
पाकिस्तान के नवशेरा में जन्मे फ़राज़ की आवाज़ खोजते-खोजते मैं एक पाकिस्तानी फोरम पर पहुँच गया, जहाँ उनकी आवाज़ सुरक्षित थी। एक नहीं पूरी २३ रिकॉर्डिंग। कुछ तकनीकी कमियों के कारण उन्हें सीधे सुन पाना आसान न था, तो मैंने सोचा इस महान शायर के साथ यह अन्याय होगा, यदि आवाज़ बहुत बड़े श्रोतावर्ग तक नहीं पहुँची तो। वे फाइलें भी सुनने लायक हालत में नहीं थी। अनुराग शर्मा से निवेदन किया कि वे उन्हें परिवर्धित और संपादित कर दें।
उसी का परिणाम है कि आज हम आपके सामने उनकी २३ रिकॉर्डिंग लेकर उपलब्ध हैं। हर शे'र में अलग-अलग रंग हैं। ज़िदंगी के फलसफे हैं। नीचे के प्लेयर को चलाएँ और कम से कम १ घण्टे के लिए अहमद फ़राज़ की यादों में डूब जायें।
Ahmad Faraz ki ghazalen, unhin ki aawaaz mein
बहुत से पाठकों और श्रोताओं को अहमद फ़राज़ के बारे में अधिक पता नहीं है। आइए शॉर्ट में जानते हैं उनका परिचय।
अहमद फ़राज़ (जनवरी १४, १९३१- अगस्त २५, २००८)
अहमद फ़राज़ बीती सदी के आधुनिक कवियों में से एक माने जाते हैं। 'फ़राज़' उनका तख़ल्लुस है। इनका मूल नाम सैयद अहमद शाह था। अपनी साधारण मगर प्रभावी शैली के कारण फ़राज़ की तुलना मोहम्मद इकबाल और फै़ज़ अहमद फ़ैज़ से की जाती है, तथा तात्कालिक कवियों (शायरों) में इन्हें विशेष स्थान प्राप्त था। मज़हबी रूप से पश्तूनी होते हुए भी फ़राज़ ने पेशावर विश्वविद्यालय से पर्शियन और ऊर्दू भाषा में दक्षता हासिल की और बाद में वहीं अध्यापन करने लगे। हालाँकि उनका जन्मस्थान नौशेरा बताया जाता है लेकिन 'डेली जंग' के साथ एक साक्षात्कार में फ़राज़ ने अपना जन्मस्थान कोहाट बताया था। रेडिफ डॉट कॉम से साथ एक इंटरव्यू में फ़राज़ ने अपने पिता सैयद मुहम्मद शाह के द्वारा अपने भाइयों के लिए आधुनिक वस्त्र और इनके लिए एक साधारण काश्मीरा लाने पर उसको लौटाये जाने और एक पर्ची पर अपनी पहली द्विपंक्ति लिखे जाने का ज़िक्र भी किया था। लाइने थीं-
लाये हैं कपड़े सबके लिए सेल से लाये हैं हमारे लिए कम्बल जेल से।
अपने कॉलेज़ के दिनों में अहमद फ़राज़ और अली सरदार जाफ़री सर्वश्रेष्ठ प्रगतिशील कवि माने जाते थे। खुद फ़राज़ भी जाफरी से प्रभावित थे और उन्हें अपना रॉल मॉडेल मानते थे।
अनेक राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़े गये फ़राज़ को तब जेल भेज दिया गया था जब वे एक मुशायरे में ज़िया-उल-हक़ काल के मिलिटरी राज़ की आलोचना करते पाये गये थे। फिर उन्होंने खुद को ही ६ वर्षों के लिए देश निकाला दे दिया। बाद में जब वे स्वदेश लौटे तो पाकिस्तानी एकादमी ऑफ लेटर्स के चेयरमैन बनें, पाकिस्तान नेशनल बुक फाउँडेशन के भी कई वर्षों तक चेयरमैन रहे।
फ़राज़ जुल्फ़िक़ार-अली-भुट्टो और पाकिस्तानी पिपुल्स पार्टी से प्रभावित थे। साहित्य-सेवा के लिए इन्हें वर्ष २००४ में हिलाल-ए-इम्तियाज़ का पुरस्कार मिला, जिसे इन्होंने सन् २००६ में पाकिस्तानी सरकार की कार्यप्रणाली और नीतियों से नाखुश होकर लौटा दिया।
"मेरी आत्मा मुझे कभी क्षमा नहीं करेगी यदि मैं मूक-चश्मदीद की तरह अपने आस-पास को देखता रहा। कम से कम मैं इतना कर सकता हूँ कि तानाशाह सरकार यह जाने कि अपने मानवाधिकारों के लिए गंभीर जनता की नज़रों क्या स्थान रखती है। मैं यह गरिमामयी सम्मान लौटाकर यह दिखाना चाहता हूँ कि मैं इस सरकार के साथ किसी भी तौर पर नहीं हूँ।" फ़राज़ का वक्तव्य।
शायर अहमद फ़राज़ ने अपना सर्वोत्तम देश-निकाला के समय लिखा। जुलाई २००८ में एक अफ़वाह फैली कि फ़राज़ का शिकागो के एक हस्पताल में देहांत हो गया। फ़राज़ के चिकित्सक ताहिर रोहैल ने इस समाचार का खंडन किया, लेकिन यह सुनिश्चित किया कि वो बहुत बीमार हैं। धीरे-धीरे फ़राज़ का स्वास्थ्य बिगड़ता रहा और २५ अगस्त २००८ की शाम इस्लामाबाद के एक अस्पताल में इनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। इनके मृत-शरीर को २६ अगस्त २००८ की शाम को एच-८, कब्रगाह, इस्लामाबाद में दफना दिया गया। प्रस्तुति- शैलेश भारतवासी सहयोग- अनुराग शर्मा
आज सुबह आपने पढ़ा हृदयनाथ मंगेशकर का संस्मरण 'वो जाने वाले हो सके तो॰॰॰॰' आज हम पूरे दिन मुकेश को याद कर रहे हैं, उनके गाये गीत सुनवाकर, उनसी जुड़ी यादें बाँटकर॰॰॰॰आगे पढ़िए तपन शर्मा 'चिंतक' की प्रस्तुति 'मैं तो दीवाना, दीवाना, दीवाना'
वे परिश्रम से कभी गुरेज़ नहीं करते थे. कितनी ही बार री-टेक करो,उन्हें नाराज़ी नहीं होती.कितनी ही बार रिहर्सल के लिये कॉल करो वे तैयार..बस अभी आया.उन्हें अपने परफ़ॉरमेंस से जल्द सेटिसफ़ेक्शन नहीं होता था. बता रहे थे ख्यात संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के स्व.कल्याणजी भाई. नब्बे के दशक में जब वे लता पुरस्कार लेने इन्दौर आए तो दो दिन का डेरा था मेरे शहर. आयोजन का एंकर होने की वजह से हमेशा से कलाकारों का संगसाथ आसानी से मिलता रहा है सो कल्याणजी भाई से लम्बी बात करने का मौक़ा भी मिल ही गया. एक दिन उनके संगीत सफ़र की चर्चा होती रही, दूसरे दिन गायक-गायिकाओं पर. जब मुकेशजी पर बात आई तो कल्याणजी भाई भावुक हो उठे. मुकेशजी के घर में गुजराती परिवेश भी रहा क्योंकि पत्नी सरल गुजराती थीं (अभी इसी साल सरलबेन का देहांत हुआ है) कल्याणजी भाई बोले हम गुजराती में ही बतियाते और ख़ूब ठहाके लगाते . बहुत हँसमुख थे मुकेश भाई लेकिन जब दर्द भरे गीत की पंक्तियाँ गाने लगते तो सारे आलम का दर्द अपने गायन में उड़ेल देते.
फ़िल्म हिमालय की गोद में का गीत था "मैं तो एक ख़्वाब हूँ..." की रिहर्सल लगभग पूर्णता की ओर आ गई थी. कल्याणजी भाई ने बताया हम लगभग संतुष्ट थे, लेकिन ये लगभग मुकेशजी मेरे और आनंदजी के चेहरे पर पढ़ लिया था. बोले कुछ कमी लग रही है क्या . हमने कहा हाँ गीत का स्टार्ट और बेहतर हो सकता था. मुकेशजी ने कहा तो भाई बताओ न क्या चाहते हो. कल्याणजी ने कहा आप ऐसा स्टार्ट लीजिये जैसे आप मोहम्मद रफ़ी हैं.मुकेशजी ने कहा ऐसा बोलो न .. रिकॉर्डिंग शुरू हुई और क्या लाजवाब गीत बना है याद कीजिये आप. बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. गाना पूरा होने के बाद मुकेशजी ने रफ़ी साहब को फ़ोन किया रफ़ी भाई मैंने आपका कुछ चुरा लिया. रफ़ी साहब हैरान कहने लगे मैंने एक गीत में आपके स्टाइल में आमद ली है. रफ़ी साहब और मुकेशजी देर तब फ़ोन पर बतियाते रहे. बात बड़ी सादी है, लेकिन सादा तबियत और नेक इंसान मुकेशजी की महानता देखिये कि अपने समकालीन गायक का थोड़ा सा अंदाज़ भी फ़ॉलो किया तो उसे जताया,यहाँ आजकल पूरी की पूरी धुन चुराई जा रही है और फ़िर भी शर्म नहीं है किसी को.
शास्त्रीय संगीत के पेचोख़म से दूर रहने वाले गायक थे मुकेश. एक सुर पर लम्बा टिकना उनके लिये मुमकिन नहीं होता था क्योंकि हर वॉइस कल्चर की अपनी लिमिटेशन तो होती ही है लेकिन मुकेश अपनी इस मर्यादा से ख़ूब वाकिफ़ थे. उन्होनें बंधे हुए मीटर में रहते हुए भावप्रणवता और इमोशन्स पर अपना ध्यान रखा . जब नौशाद साहब के साथ मेला और अंदाज़ के गीत गाए तो आप महसूस करेंगे कि मुकेश जी ने अपने ऊपर चढ़ी सहगल अंदाज़ की केंचुली निकाल फ़ेंकी और पूरे फ़ार्म में आ गए.
मेरा मानना है कि मुकेश सर्वहारा के गायक थे.शर्तिया कह सकता हूँ कि आप-हमसब कम से कम मुकेशजी के गीत तो गुनगुनाते ही हैं. आप नोटिस लीजियेगा कि पारिवारिक अंताक्षरी में जब भी पुराने गीत गुनगुनाए जाते हैं, उसमें मुकेश का रंग गाढ़ा ही नज़र आता है. उनके गीतों की संख्या कम है लेकिन लोकप्रियता के लिहाज़ से मुकेश आज भी सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते हैं.
एक ख़ास बात मुकेश स्मृति-दिवस पर यह बात विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि भारतीय रजत-पट के शो-मेन राजकपूर को जन-जन में पहुँचाने में मुकेश का गायन एक महत्वपूर्ण कड़ी है और इसके महत्व को कभी ख़ारिज न किया जा सकेगा.
इस बात का ज़िक्र बहुत कम होता है लेकिन यहाँ ज़रूर करूंगा. फ़िल्म संगीत के लिये जो कुछ मुकेशजी ने किया वह तो अदभुत है ही लेकिन फ़िल्मों से अलहदा श्री रामचरितमानस की पाँच घंटे की ध्वनि-मुद्रिका संचयन मुकेशजी का एक अनोखा कारनामा है भारतीय संस्कृति के लिये.
मुकेश जी की आवाज़ में कसक,दर्द,करूणा,हास्य,आशा-निराशा और श्रंगार रस की अभिव्यक्ति सहजता से उभरती थी लेकिन दर्द में तो वे बेमिसाल थे.वे इंसानियत के तक़ाज़ों की दृष्टि से भी विलक्षण थे.अभी पिछले दिनों उनके पुत्र नितिन से आत्मीय मुलाक़ात हुई तब उन्होने विनम्रता से बताया कि पापा अच्छाइयों का सूर्य थे .उनकी गायकी से मिली छाया से जितना कर पाया कम है लेकिन मैं संतुष्ट हूँ.क्या अगले जन्म में मुकेश बनना चाहेंगे आप, मैने नितिन भाई से पूछा था.तो भावुक होकर बोले मुकेशजी जैसे इंसान दुनिया में दोबारा नहीं आते.मैं अगले जन्म में भी उनका बेटा ही बनना चाहूँगा.
इसमें कोई शक नहीं कि नौशाद,शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनंदजी,सलिल चौधरी,सचिनदेव बर्मन,रोशन,ह्सरत जयपुरी,शैलेंद्र,साहिर और इंदीवर के गीतों और संगीत को निर्वेवाद रूप से अनमोल कहा जा सकता है लेकिन इन रचनाओं को अमरत्व प्रदान करने काम तो मुकेश ने ही किया यह भी अकाट्य सत्य है.
जीवन का आना-जाना चलता रहेगा. संसार की गति थमने का नाम नहीं लेगी.फूल-पत्तियाँ खिलते रहेंगे,आवाज़े आतीं रहेंगी और संगीत बजता रहेगा लेकिन मुकेश जैसे कोमल स्वर की कमी कभी पूरी न हो सकेगी. संगीतप्रेमी मन हमेशा कहता रहेगा...
ये घाट,तू ये बाट कभी भूल न जाना ओ जाने वाले, हो सके तो लौट के आना
सुनिए लोक-संगीत से रचा-बसा बम्बई का बाबू फिल्म का एक गीत 'चल री सजनी, अब क्या सोचे?'
हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के आखिरी शब्द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’
खुशमिज़ाज मुकेश
तीस हजार फुट की ऊँचाई पर हमारा जहाज उड़ा जा रहा है। रूई के गुच्छों जैसे अनगिनत सफेद बादल चारों ओर छाए हुए हुए हैं। ऊपर फीके नीले रंग का आसमान है। इन बादलों और नीले आकाश से बनी गुलाबी क्षितिज रेखा दूर तक चली गई है। कभी-कभी कोई बड़ा सा बादल का टुकड़ा यों सामने आ जाता है, माने कोई मजबूत किला हो। हवाई जहाज की कर्कश आवाज को अपने कानों में झेलते हुए मैं उदास मन से भगवान की इस लीला को देख रहा हूँ।
अभी कल-परसों ही जिस व्यक्ति के साथ ताश खेलते हुए और अपने अगले कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हुए हमने विमान में सफर किया था, उसी अपने अतिप्रिय, आदरणीय मुकश दा का निर्जीव, चेतनाहीन, जड़ शरीर विमान के निचले भाग में रखकर हम लौट रहे हैं। उनकी याद में भर-भर आनेवाली ऑंखों को छिपाकर हम उनके पुत्र नितिन मुकेश को धीरज देते हुए भारत की ओर बढ़ रहे हैं।
आज 29 अगस्त है। आज से ठीक एक महीना एक दिन पहले मुकेश दा यात्री बनकर विमान में बैठे थे। आज उसी देश को, जिसमें पिछले 25 वर्षों का एक दिन, एक घण्टा, एक क्षण भी ऐसा नहीं गुजरा था कि जब हवा में मुकश दा का स्वर न गूंज रहा हो; जिसमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने मुकेश दा का स्वर सुनकर गर्दन न हिला दी हो; जिसमें एक भी ऐसा दुखी जीव नहीं था, जिसने मुकेश दा की दर्द-भरी आवाज में अपने दुखों की छाया न देखी हो। सर्वसाधारण के लिए दुख शाप हो सकता, पर कलाकार के लिए वह वरदान होता है।
अनुभूति के यज्ञ में अपने जीवन की समिधा देकर अग्नि को अधिकाधिक प्रज्वलित करके उसमें जलती हुई अपनी जीवनानुभूतियों और संवेदनाओं को सुरों की माला में पिरोते-पिरोते मुकेश दा दुखों की देन का रहस्य जान गये थे। यह दान उन्हें बहुत पहले मिल चुका था।
उस दिन 1 अगस्त था वेंकुवर के एलिजाबेथ सभागृह में कार्यक्रम की पूरी तैयारियॉं हो चुकी थीं। मुकश दा मटमैले रंग की पैंट, सफेद कमीज, गुलाबी टाई और नीला कोट पहनकर आए थे। समयानुकूल रंगढंग की पोशाकों में सजे-धजे लोगों के बीच मुकेश दा के कपड़े अजीब-से लग रहे थे। पर ईश्वर द्वारा दिए गए सुन्दर रूप और मन के प्रतिबिम्ब में वे कपड़े भी उनपर फब रहे थे। ढाई-तीन हजार श्रोताओं से सभागृह भर गया। ध्वनि-परीक्षण करने के बाद मैं ऊपर के ‘साउंड बूथ’ में ‘मिक्सर चैनल’ हाथ में संभाले हुए कार्यक्रम के प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। मुकेश दा के ‘माइक’ का ‘स्विच’ मेरे पास था। इतने में मुकेश दा मंच पर आए। तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हाल गुंज उठा। मुकश दा ने बोलना प्रारम्भ किया तो ‘भाइयो और बहनो’ कहते ही इतनी सारी तालियाँ पिटीं की मुझे हाल के सारे माइक बंद कर देने पड़े।
मुकश दा अपना नाम पुकारे जाने पर सदैव पिछले विंग से निकलकर धीरे-धीर मंच पर आते थे। वे जरा झुककर चलते थे। माइक के सामने आकर उसे अपनी ऊँचाई के अनुसार ठीक कर तालियों की गड़गड़ाहट रूकने का इंतजार करते थे। फिर एक बार ‘राम-राम, भाई-बहनों’ का उच्चारण करते थे। कोई भी कार्यक्रम क्यों न हो, उनका यह क्रम कभी नहीं बदला।
उस दिन मुकश दा मंच पर आए और बोले, “राम-राम, भाई-बाहनों आज मुझे जो काम सौंपा गया है, वह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुझे लता की पहचान आपसे करानी है। लता मुझसे उम्र में छोटी है और कद में भी; पर उसकी कला हिमालय से भी ऊँची है। उसकी पहचान मैं आपसे क्या कराऊँ! आइए, हम सब खूब जोर से तालियॉं बजाकर उसका स्वागत करें! लता मंगेशकर ....’’
तालियों की तेज आवाज के बीच दीदी मंच पर पहुँचीं। मुकेश दा ने उसे पास खींच लिया। सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दिया और घूमकर वापस अन्दर चले गए। मंच से कोई भय नहीं, कोई संकोच नहीं, बनावट तो बिल्कुल भी नहीं। सबकुछ बिल्कुल स्वाभाविक और शांत।
दीदी के पाँच गाने पूरे होने पर मुकेश दा फिर मंच पर आए। एक बार फिर माइक ऊपर-नीचे किया और हारमोनियम संभाला। जरा-सा खंखार कर, कुछ फुसफुसाकर (शायद ‘राम-राम कहा होगा) कहना शुरू किया, “मैं भी कितना ढीठ आदमी हूँ। इतना बड़ा कलाकार अभी-अभी यहाँ आकर गया है और उसके बाद मैं यहाँ गाने के लिए आ खड़ा हुआ हूँ। भाइयो और बहनो, कुछ गलती हो जाए तो माफ करना।’’
मुकेश दा के शब्दों को सुनकर मेरा जी भर आया। एक कलाकार दूसरे का कितना सम्मान करता है, इसका यह एक उदाहरण है। मुकेश दा के निश्छल और बढ़िया स्वभाव से हम सब मंत्रमुग्ध-से हो गये थे कि माइक पर सुर उठा – “जाने कहॉँ गये वो दिन ....”
गीत की इस पहली पंक्ति पर ही बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। और फिर सुरों में से शब्द और शब्दों में से सुरों की धारा बह निकली। लग रहा था कि मुकश दा गा नहीं रहे हैं, वे श्रोताओं से बातें कर रहे हैं। सारा हॉल शांत था गाना पूरा हुआ। पर तालियाँ नहीं बजीं। मुकेश दा ने सीधा हाथ उठाया (यह उनकी आदत थी) और अचानक तालियों की गड़गड़ाहट बज उठी। तालियों के उसी शोर में मुकेश दा ने अगला गाना शुरू कर दिया – ‘डम-डम डिगा-डिगा’ और इस बार तालियों के साथ श्रोताओं के पैरों ने ताल देना शुरू कर दिया था।
यह गाना पूरा हुआ तो मुकेश दा अपनी डायरी के पन्ने उलटने लगे। एक मिनट, दो मिनट, पर मुकेश दा को कोई गाना भाया ही नहीं। लोगों में फुसफुसाहट होने लगी। अन्त में मुकेश दा ने डायरी का पीछा छोड़ दिया और मन से ही गाना शुरू कर दिया-‘दिल जलता है तो जलने दे’ यह मुकेश दा का तीस वर्ष पुराना सबसे पहला गना था। मैं सोचने लगा कि क्या इतना पुराना गाना लोगों को पसन्द आएगा! मन-ही-मन मैं मुकेश दा पर नाराज होने लगा। ऐसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिए उन्होंने पहले से गानों का चुनाव क्यों नहीं कर लिया था।
मैंने ‘बूथ’ से ही बैकस्टेज के लिए फोन मिलाया और मुकेश दा के पुत्र नितिन को बुलाकर कहा, “अगले कार्यक्रम के लिए गाना चुनकर तैयार रखो।’’
नितिन ने जवाब दिया, “यह नहीं हो सकता। यह पापा की आदत है।’’
गाना खत्म होते ही हॉल में ‘वंस मोर’ की आवाजें आने लगीं। मेरा अंदाज बिल्कुल गलत साबित हुआ था। मैंने झट से नितिन को दुबारा फोन मिलाया और कहा, “मैंने जो कुछ कहा था, मुकेश दा को पता न चले।’’ तभी दीदी मंच पर पहुँच गई और दो गीतों की शुरूआत हो गई। ‘सावन का महीना’, ‘कभी-कभी मेरे दिल में’, ‘दिल तड़प-तड़प के’ आदि एक के बाद एक गानों का तांता लगा रहा। फिर आखिरी दो गानों का प्रारम्भ हुआ – ‘आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा’।
इस गाने का पहला स्वर उठते ही मैं 1950 में जा पहुंचा। दिल्ली के लालकिले के मैदान में एक लाख लोग मौजूद थे ठण्ड का मौसम था। तरूण, सुन्दर मुकेश दा बाल संवारे हुए स्वेटर पर सूट डाले, मफलर बाँधे बाएँ हाथ से हारमोनियम बजा रहे थे और मैं दीदी के साथ गा रहा था, ‘आजा रे ...’ मेरे जीवन का वह दूसरा या तीसरा गाना था। मुकेश दा ने जबरदस्ती मुझे गाने को बिठा दिया था और खुद हारमोनियम बजाने लगे थे। मैं घबराना गया और कुछ भी गलत-सलत गाने लगता था। मुकेश दा मुझे सांत्वना देते जाते और मेरा साथ देने लग जाते। मुझे उनका यह तरूण सुन्दर रूप याद आने लगा, जिसे 26 वर्षों के कटु अनुभवों के बाद भी उनहोंने कायम रखा था। पर उनकी आवाज में एक नया जादू चढ़ गया था।
मिलवाकी से हम वाशिंगटन की ओर चले। हम सबों के हाथ सामानों से भरे थे। हवाई अड्डा दूर, और दूर होता जा रहा था। मैं थक गया था और रूक-रूककर चल रहा था। तभी किसी ने पीछे से मेरे हाथ से बैग ले लिया। मैंने दचककर पीछे देखा तो मुकेश दा। मैंने उन्हें बहुत समझाया, पर उन्होंने एक न सुनी। विमान में हम पास-पास बैठे। वे बोले, ‘अब खाना निकालो’। (हम दोनों ही शाकाहारी थे)। मैंने उन्हें चिवड़ा और लड्डू दिए और वे खाने लगे। तभी मैंने कहा, ‘मुकेश दा, कल के कार्यक्रम में आपकी आवाज अच्छी नहीं थी। लगता है, आपको जुकाम हो गया है!’
उन्होंने सिर हिलाया। बोले, ‘मैं दवा ले रहा हूँ। पर सर्दी कम होती ही नहीं है, इसलिए आवाज में जरा-सी खराश आ गई है’। फिर विषय बदलकर उन्होंने मुझसे ताश निकालने को कहा। करीब-करीब एक घंटे तक हम दोनों ताश खेलते रहे। खेल के बीच में उन्होंने मुझसे कहा ‘गाते समय जब मेरी आवाज ऊँची उठती है तब तू ‘फेडर’ को नीचे कर दिया कर, क्योंकि सर्दी के कारण ऊपर के स्वरों को संभालना जरा कठिन पड़ता है। फिर रमी के ‘प्वाइन्ट’ लिखने के लिए उन्होंने जेब से पेन निकाला। उसे मेरे सामने रखते हुए बोले, ‘बाल, यह क्रास पेन है। जब से मैंने क्रास पेन से लिखना शुरू किया है, दूसरा कोई पेना भाता ही नहीं है। तुम भी क्रास पेन खरीद लो’। और वाशिंगटन में उन्होंने आग्रह करके मुझे एक क्रास पेन खरीदवा ही दिया।
अनहोनी, जो होनी बन गई!
उसी शाम भारतीय राजदूत के यहाँ हमारी पार्टी थी। देश-विदेश के लोग आए हुए थे। मुकेश दा अपनी रोज की पोशाक में इधर-उधर घूम रहे थे। तभी किसी ने सुझाया कि गाना होना चाहिए। उस जगह तबला, हारमोनियम कुछ भी नहीं था, पर सबों के आग्रह पर मुकेश दा खड़े हो गए और जरा-सा स्वर संभालकर गाने लगे – ‘आँसू भरी है ये जीवन की राहें...’ वाद्यों की संगत न होने के कारण उनकी आवाज के बारीक-बारीक रेशे भी स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। सहगल से काफी मिलती हुई उनकी वह सरल आवाज भावनाओं से ऐसी भरी हुई थी कि मैं उसे कभी भुला न पाऊँगा।
रात को मैंने टोका, ‘आपको पार्टी के लिए बुलाया था, गाने के लिए नहीं। किसी ने कहा और आप गाने लगे!’ वे हंसकर बाले, ‘यहाँ कौन बार-बार आता है! अब पता नहीं यहाँ फिर कभी आ पाऊँगा या नहीं!’
मुकेश दा ! आपका कहना सच ही था। वाशिंगटन से ये लोग आपके अंतिम दर्शनों के लिए न्यूयार्क आए थे और उस पार्टी की याद कर करके आँसू बहा रहे थे।
बोस्टन में मुकेश दा की आवाज बहुत खराब हो गई थी। एक गाना पूरा होते ही मैंने ऊपर से फोन किया और दीदी से कहा, ‘मुकेश दा को मत गाने देना। उनकी आवाज बहुत खराब हो रही है’। दीदी बोलीं, ‘फिर इतना बड़ा कार्यक्रम पूरा कैसे होगा?’ मैंने सुझाया, ‘नितिन को गाने के लिए कहो’।
दीदी मान गईं। मंच पर आईं और श्राताओं से बोलीं, ‘आज मैं आपके सामने एक नया मुकेश पेश कर रही हूँ। यह नया मुकेश मेरे साथ आपका मनपसंन्द गाना ‘कभी-कभी मेरे दिल में...’ गाएगा।‘
लोग अनमने से हो फुसफुस करने लगे थे। तभी नितिन मंच पर पहुँचा। देखने में बिल्कुल मुकेश दा जैसा। उसने दीदी के पाँव छुए और गाना शुरू किया – कभी-कभी मेरे दिल में... ‘ नितिन की आवाज में कच्चापन था। पर सुरों की फेंक, शब्दोच्चार बिल्कुल पिता जैसे थे। गाना खतम होते ही ‘वंस मोर’ की आवाजें उठने लगीं। लोग नितिन को छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। ‘विंग’ में बैठे मुकेश दा का चेहरा आनन्द से चमक उठा।
‘ऐंबुलेंस’ में उन्होंने केवल एक वाक्य बोला –यह पट्टा खोल दो’ (वह ह्वील चेयर का पट्टा था) फिर वे कुछ नहीं बोले। हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के वे आखिरी शब्द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’।
कौन-सा पट्टा? कौन-सा बंधन? ह्वील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्य को बाँधे हुए जड़त्व का पट्टा? कहीं उनके कहने का आशय यही तो नहीं था!
फिर वे मंच पर आए और हारमोनियम पर हाथ रख दिया। बाप-बेटे ने मिलकर ‘जाने कहाँ गए वे दिन’ गाया। उसके बाद के सारे गाने नितिन ने ही गाए। मुकेश दा ने हारमोनियम पर साथ दिया।
अगले दिन वे मुझेसे बोले,'अब मेरे सर पर से एक और बोझ उतर गया। नितिन की चिन्ता मुझे नहीं रही। अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ’।
मैने कहा, ‘अपना गाना गाए बिना आपको मरने कैसे दूँगा। पन्द्रह वर्ष पूर्व आपने मेरे गाने की रिहर्सल तो की थी, पर गाया नहीं था। गाना मुझे ही पड़ा था’। (वह गाना था – ‘त्या फुलांच्या गंध कोषी’)
वे हंसकर बोले, ‘मेरे कोई नया गाना तैयार कराओ। मैं जरूर गाऊँगा। अगले दिन हम टोरन्टो से डेट्रायट जाने के लिए रेलगाड़ी पर सवार हुए। हमारा एनाउंसर हमें छोड़ने आया था। मुकेश दा ने उससे पूछा, ‘क्यों मियॉँ साहेब, आप नहीं आ रहे हमारे साथ!”
उसने जवाब दिया, मैं तो आपको छोड़ने आया हूँ।’
मुकेश दा हँसे, अरे, आप क्या हमें छोड़ेंगे! हम आपको ऐसा छोड़ेंगे कि फिर कभी नहीं मिलेंगे’। मियाँ का दिल भर आया। बोला, ‘नहीं-नहीं। ऐसी अशुभ बात मुंह से मत निकालिए’।
मुकेश दा हंसे। ‘राम-राम’ कहते हुए गाड़ी में चढ़कर मेरे पास आ बैठे। ताश निकालकर हम ‘रमी’ खेलने लगे। वे तीन डॉलर हार गए। मुझे पैसे देते हुए बोले, आज रात को फिर खेलेंगे। मैं तुमसे ये तीनों डॉलर वापस जीत लूँगा’।
और सचमुच ही डेट्रायट (अमरीका) में उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुला लिया और मैं, अरूण, रवि उनके साथ रात साढ़े ग्यारह बजे तक ‘रमी’ खेलते रहे। इस बार मुकेश दा छह डॉलर हार गए। हमने उनकी खूब मजाक उड़ाई। मुझसे बोले, ‘आज कुल मिलाकर मैं नौ डॉलर हार गया हूँ। मगर कल रात को तुमसे सब वसूल कर लूँगा।
पर ‘कल की रात’ उनकी आयु में नहीं लिखी थी। मुझे कल्पना भी नहीं थी कि ‘कल की रात’ मुझे मुकेश दा के निर्जीव शरीर के पास बैठकर काटनी पड़ेगी।
झूठे बंधन तोड़ के सारे .....
अपने पुत्र नितिन मुकेश के साथ
वह दिन ही अशुभ था। एक मित्र को जल्दी भारत लौटना था, इसलिए उसके टिकट की भागदौड़ में ही दोपहर के तीन बज गए। टिकट नहीं मिला सो अलग। साढ़े चार बजे हम होटल लौटे। मैं, दीदी और अनिल मोहिले शाम के कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने लगे। हम सब भूखे थे, इसलिए चाय और सैण्डविच मंगा ली गई थी। तभी मुकेश दा का फोन आया कि हारमोनियम ऊपर भिजवा दो। (उनका कमरा बीसवीं मंजिल पर था और हमारा सोलहवीं पर)। मैंने हारमोनियम भेज दिया। कार्यक्रम की चर्चा पूरी करने के बाद मैंने अनिल मोहिले से कहा, ‘चाय पीने के बाद म्यूजीसियंश को तैयार करके ठीक छह बजे मंच पर पहुंच जाना’। तभी चाय आ गई। मैं चाय तैयार कर ही रहा था कि ऊपर आओ। उसकी आवाज सुनते ही मैं भागा। अपने कमरे में मुकेश दा लुंगी और बनियान पहने हुए पलंग के पीछे हाथ टिकाए बैठे थे। मैंने नितिन से पूछा, “क्या हुआ?”
उसने बताया, ‘पापा ने कुछ देर गाया। फिर उन्होंने चाय मंगाई। पीकर वे बाथरूम गए। बाथरूम से आने के बाद उन्हें गर्मी लगने लगी और पसीना आने लगा। इसलिए मैंने आपको बुला लिया। मुझे कुछ डर लग रहा है’।
मैं सोचने लगा-पसीना आ जाने भर से ही यह लड़का डर गया है। कमाल है। फिर मैंने मुकेश दा से कहा, ‘आप लेट जाइए’।
वे एकदम बोल पड़े, ‘अरे तुम अभी तक एक नहीं? मैं लेटूँगा नहीं। लेटने से मुझे तकलीफ होती है। तुम स्टेज पर जाओ। मैं इंजेक्शन लेकर पीछे-पीछे आता हूँ। लता को कुछ मत बताना। वह घबरा जाएगी।
‘अच्छा,’ कहकर मैंने उनकी पीठ पर हाथ रख और झटके से हटा लिया। मेरा हाथ पसीने से भीग गया था। इतना पसीना, माने नहाकर उठे हों। तभी डॉक्टर आ गया। ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। मैंने मुकेश से पूछा, ‘आपको दर्द हो रहा है’?
उन्होंने सिर हिलाकर ‘न’ कहा। फिर उन्हें ‘ह्वील चेयर’ पर बिठाकर नीचे लाया गया। ऑक्सीजन लगा हुआ था, फिर भी लिफ्ट में उन्हें तकलीफ ज्यादा होने लगी, ‘ह्वील चेयर’ को ही ‘ऐंबुलेंस’ पर चढ़ा दिया गया। यह सब बीस मिनट में हो गया।
‘ऐंबुलेंस’ में उन्होंने केवल एक वाक्य बोला –यह पट्टा खोल दो’ (वह ह्वील चेयर का पट्टा था) फिर वे कुछ नहीं बोले। हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के वे आखिरी शब्द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’।
कौन-सा पट्टा? कौन-सा बंधन? ह्वील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्य को बाँधे हुए जड़त्व का पट्टा? कहीं उनके कहने का आशय यही तो नहीं था!
‘एमरजेन्सी वार्ड’ में पहुंचने से पूर्व उन्होंने केवल एक बार आँखे खोलीं, हंसे और बेटे की तरफ हाथ उठाया। डॉक्टर ने वार्ड का दरवाजा बंद कर लिया। आधे घंटे बाद दरवाजा खुला। डॉक्टर बाहर आया ओर उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। उसके स्पर्श ने मुझसे सबकुछ कह दिया था।
विशाल सभागृह खचाखच भरा हुआ है। मंच सजा हुआ है। सभी वादक कलाकार साज मिलाकर तैयार बैठे हुए हैं। इंतजार है कि कब मैं आऊँ, माइक ‘टेस्ट’ करूँ और कार्यक्रम शुरू हो। मैं मंच पर गया। सदैव की भाँति रंगभूमि को नमस्कार किया। माइक हाथ में लिया और बोला "भाइयो और बहनो, कार्यक्रम प्रारंभ होने में देर हो रही है, पर उसके लिए आज मैं आपसे क्षमा नहीं माँगूँगा। आज मैं किसी से कुछ नहीं माँगूँगा। केवल उससे बारम्बार एक ही माँग है – ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना ...’
धर्मयुग से साभार रूपांतर- भारती मंगेशकर प्रस्तुति-शैलेश भारतवासी प्रस्तुति सहयोग- सतेन्द्र झा चित्र साभार-हमाराफोटोजडॉटकॉम(यह संस्मरण विश्व हिन्दी न्यास की त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी-जगत' में भी प्रकाशित किया गया है) इस अवसर पर हमने इस संस्मरण में उल्लेखित सभी गीतों को सुनवाने का प्रबंध किया है।
ओ जाने वाले हो सके तो॰॰ Oh Jaane Waale Ho Sake To
आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा॰॰ Aa Ja Re, Ab Mera Dil Pukara
आँसू भरी है ये जीवन की राहें॰॰ Aanso Bhari Hai, Ye Jeevan Ki Rahen
दिल जलता है तो जलने दे॰॰ Dil Jalta Hai To Jalane De
दिल तड़प-तड़प के दे रहा है ये सदा॰॰ Dil Tadap-Tadap Ke De Raha Hai Ye Sada
आवाज़ पर आज का दिन समर्पित रहा, अजीम फनकार मोहमद रफी साहब के नाम, संजय भाई ने सुबह वसंत देसाई की बात याद दिलाई थी, वे कहते थे " रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नही थे...वह तो एक शापित गंधर्व था जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया." बात रूपक में कही गई है लेकिन रफ़ी साहब की शख़्सियत पर एकदम फ़बती है.( पूरा पढ़ें ...)
मोहम्मद रफी, ऐतिहासिक हिन्दी सिनेमा जगत का एक ऐसा स्तम्भ जो आज भी संगीत प्रेमियों के दिल पर अमिट छाप बनाये है, जिनकी सुरीली अद्वितीय आवाज हर रोज हमें दीवाना करती है और जिन्होंने करीब पैंतीस सालों में अपनी अतुलनीय आवाज में मधुर गीतों का एक बड़ा अम्बार हमारे लिये छोड़ा । रफी जी की आवाज एक ऐसी आवाज, जिसने दुःख भरे नगमों से लेकर धूम-धड़ाके वाले मस्ती भरे गीतों सभी को एक बहतरीन गायकी के साथ निभाया, यूँ तो बहुत से नये गायक कलाकारों द्वारा रफी जी की आवाज को नकल करने की कोशिश की गयी और उनको सराहा भी गया परंतु कोई भी मोहम्मद रफी के उस जादू को नही ला सका; शायद कोई कर भी न सके । पुरजोर कोशिशों के बावजूद कोई भी ऐसा गायक रफी साहब की केवल एक-आध आवाज को नकल करने में सफल हो सकता है परंतु कोई भी रफी साहब की उस आवाज की विविधता को नही ला सकता जैसा वे करते थे.
रफी साहब, गीत-संगीत के आकाश में इस सितारे का उदय अमृतसर के निकट एक गांव कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसम्बर 1924 को हुआ । जब रफी जी अपने बचपन की सीढियां चढ रहे थे तब इनका परिवार लाहौर चला गया । रफी जी का गीत-संगीत के प्रति इतना लगाव था कि ये बचपन के दिनों में उस फकीर का पीछा करते थे जो प्रतिदिन उस जगह आता था और गीत गाता था जहाँ ये रहते थे । इनके बड़े भाई हामिद इनके संगीत के प्रति अटूट लगाव से परिचित थे और हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे । लाहौर में ही उस्ताद वाहिद खान जी से रफी जी ने सगीत की शिक्षा प्राप्त करनी शुरू कर दी । रफी साहेब के शुरुवाती दिनों की कहानी आप को युनुस भाई बता ही चुके हैं ( यहाँ पढ़ें...)
रफ़ी साहब के संगीत सफर की बड़ी शुरूआत फिल्म "दुलारी(१९४९)" के सदाबहार गीत "सुहानी रात ढल चुकी" से हुई थी। इस गाने के बाद रफ़ी साहब ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और सत्तर के दशक तक वे पार्श्व-गायन के बेताज बादशाह रहे। इस सफलता के बावजूद, रफी साहब में किसी तरह का गुरूर न था और वे हमेशा हीं एक शांत और सुलझे हुए व्यक्तित्व के रूप में जाने गए। उनके कई सारे प्रशंसक तो आज तक यह समझ नहीं पाए कि इतना शांत और अंतर्मुखी व्यक्ति अपने गानों में निरा जोशीला कैसे नज़र आता है।
उनके पुत्र शाहिद के शब्दों में -
"जब एक बार हमने उनसे पूछा कि क्या वास्तव में आपने हीं 'याहू' गाया है, तो अब्बाजान ने मुस्कुराकर हामीं भर दी। हम उनसे पूछते रहे कि 'आपने यह गाना गाया कैसे?', पर उन्होंने इस बारे में कुछ न कहा। हमारे लिए यह सोचना भी नामुमकिन था कि उनके जैसा सरल इंसान "याहू" जैसी हुड़दंग को अपनी आवाज दे सकता है।"
शायद यह रफ़ी साहब की नेकदिली और संगीत जानने व सीखने की चाहत हीं थी, जिसने उन्हें इतना महान पार्श्व-गायक बनाया था। उन्होंने किसी भी फनकार की अनदेखी नहीं की। उनकी नज़रों में हर संगीतकार चाहे वह अनुभवी हो या फिर कोई नया, एक समान था। रफ़ी साहब का मानना था कि जो उन्हे नया गीत गाने को दे रहा है, वह उन्हें कुछ नया सीखा रहा है, इसलिए वह उनका "उस्ताद" है। अगर गीत और संगीत बढिया हो तो वे मेहनताने की परवाह भी नहीं करते थे। अगर किसी के पास पैसा न हो, तब भी वे समान भाव से हीं उसके लिए गाते थे।
गौरतलब है कि रफ़ी साहब ने अपने समय के लगभग सभी संगीतकारों के साथ काम किया था, परंतु जिन संगीतकारों ने उनकी प्रतिभा को बखूबी पहचाना और उनकी कला का भरपूर उपयोग किया , उनमें नौशाद साहब का नाम सबसे ऊपर आता है। नौशाद साहब के लिए उन्होंने सबसे पहला गाना फिल्म "पहले आप" के लिए "हिन्दुस्तान के हम हैं , है हिन्दुस्तान हमारा" गाया था। दोनों ने एक साथ बहुत सारे हिट गाने दिए जिन में से "बैजू बावरा" , "मेरे महबूब" प्रमुख हैं। एस०डी० बर्मन साहब के साथ भी रफ़ी साहब की जोड़ी बेहद हिट हुई थी। "कागज़ के फूल", "गाईड", "तेरे घर के सामने", "प्यासा" जैसी फिल्में इस कामयाब जोड़ी के कुछ उदाहरण हैं।
सत्तर के दशक के प्रारंभ में रफ़ी साहब की गायकी कुछ कम हो गई और संगीत के फ़लक पर किशोर दा नाम का एक नया सितारा उभरने लगा। परंतु रफ़ी साहन ने नासिर हुसैन की संगीतमय फिल्म "हम किसी से कम नहीं(१९७७)" से जबर्दस्त वापसी की। उसी साल उन्हें "क्या हुआ तेरा वादा" के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया।
रफ़ी साहब के संगीत सफर का अंत "आस-पास" फिल्म के "तू कहीं आस-पास" गाने से हुआ। ३१ जुलाई, १९८० को उनका देहावसान हो गया। उनके शरीर की मृत्यु हो गई, परंतु उनकी आवाज आज हीं सारी फ़िज़ा में गूँजी हुई है। उनकी अमरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि , उनकी मृत्यु के लगभग तीन दशक बाद भी , उनकी लोकप्रियता आज भी चरम पर है। कितना सच कहा है रफी साहब ने अपने इस गीत में...."तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे...."
( ऊपर चित्र में रफी साहब, साथी लता और मुकेश के साथ )
हमें यकीं है कि आज पूरे दिन आपने रफी साहब के अमर गीतों को सुनकर उन्हें याद किया होगा, हम छोड़ जाते हैं आपको एक अनोखे गीत के साथ, जहाँ रफी साहब ने आवाज़ दी, किशोर कुमार की अदाकारी को, ये है दो महान कलाकारों के हुनर का संगम...देखिये और आनंद लीजिये.
रफी साहब के केवल दो ही साक्षात्कार उपलब्ध हैं, जिनमे से एक आप देख सकते हैं यहाँ.
अमर आवाज़ मोहम्मद रफ़ी को उनकी 28वीं बरसी पर याद कर रहे हैं संजय पटेल
मेरा तो जो भी कदम है वो तेरी राह में है॰॰॰
जी हाँ, स्तम्भकार संजय पटेल ने अपने ज़िंदगी के बहुत से कदम रफ़ी की याद में बढ़ाये हैं। संयोग है कि हमारे लिये ये विशेष आलेख रचने वाले संजय भाई ने मोहम्मद रफ़ी की मृत्यु पर ही पहला लेख इन्दौर के एक प्रतिष्ठित दैनिक में लिखा था. संजय भाई रफ़ी साहब के अनन्य मुरीद हैं और इस महान गायक की पहली बरसी से आज तक 31 जुलाई के दिन रफ़ी साहब की याद में उपवास रखते हैं। प्रस्तुत संजय की श्रद्धाँजलि-
रफ़ी एक ऐसी मेलोडी रचते थे कि मिश्री की मिठास शरमा जाए,सुनने वाले के कानों में मोगरे के फ़ूल झरने लगे,सुर जीत जाए और शब्द और कविता पीछे चली जाए. मेरी यह बात अतिरंजित लग सकती है आपको लेकिन रफ़ी साहब का भावलोक है ही ऐसा. आप जितना उसके पास जाएंगे आपको वह एक पाक़ साफ़ संसारी बना कर ही छोड़ेगा.
मोहम्मद रफ़ी साहब को महज़ एक प्लै-बैक सिंगर कह कर हम वाक़ई एक बड़ी भूल करते हैं.दर असल वह महज़ एक आवाज़ नहीं;गायकी की पूरी रिवायत थे.सोचिये थे तो सही साठ साल से सुनी जा रही ये आवाज़ न जाने किस किस मेयार से गुज़री है. पंजाब के एक छोटे से क़स्बे से निकल कर मोहम्मद रफ़ी नाम का किशोर मुंबई आता है,कोई गॉड फ़ादर नहीं,कोई ख़ास पहचान नहीं ,सिर्फ़ संगीतकार नौशाद साहब के नाम का एक सिफ़ारिशी पत्र और अपनी क़ाबिलियत के बूते पर मोहम्मद रफ़ी देखते देखते पूरी दुनिया का एक जाना-पहचाना नाम बन जाता है . इसमें क़िस्मत के करिश्मे का हाथ कम और मो.रफ़ी की अनथक मेहनत का कमाल ज़्यादा है. जिस तरह के अभाव और बिना आसरे की बसर मो.रफ़ी साहब ने की वह रोंगट खड़ी कर देने वाली दास्तान है. उस पर फ़िर कभी लेकिन ये तो बताना भी चाहूँगा कि मो.रफ़ी साहब की ज़िन्दगी में एक दिन ऐसा भी हुआ कि रेकॉर्डिंग के बाद सब चले गए हैं और रफ़ी साहब स्टुडियो के बाहर देर तक खड़े हैं . तक़रीबन दो घंटे बाद तमाम साज़िंदों का हिसाब-किताब करने के बाद नौशाद साहब स्टुडियो के बाहर आकर रफ़ी साहब को देख कर चौंक गए हैं.पूछा तो बताते हैं कि घर जाने के लिये लोकल ट्रेन के किराये के पैसे नहीं है. नौशाद साहब हक़्के – बक़्के ! अरे भाई भीतर आकर माँग लेते ...रफ़ी साहब का जवाब : अभी काम पूरा हुआ नहीं और अंदर आकर पैसे माँगूं ? हिम्मत नहीं हुई नौशाद साहब. नौशाद साहब की आँखें छलछला आईं हैं. सोचिये किस बलन के इंसान थे रफ़ी साहब. और आज किसी रियलिटी शो में थोड़ा नाम कमा लेने वाले छोकर कैसे इतरा रहे हैं. लगता है भद्रता और शराफ़त का वह दौर रफ़ी साहब के साथ ही विदा हो गया.
आइये अब रफ़ी साहब की गायकी के बारे में बात हो जाए.सहगल साहब के बाद मोहम्मद रफ़ी एकमात्र नैसर्गिक गायक थे. उन्होने अच्छे ख़ासे रियाज़ के बाद अपनी आवाज़ को माँजा था. जिस उम्र में वे शुरू हुए उसके बारे में जान कर हैरत होती है कि कब तो उन्होंने सीखा , कब रियाज़ किया और कब की इतनी सारी और बेमिसाल रेकॉर्डिंग्स. संगीतकार वसंत देसाई की बात याद आ गई ...वे कहते थे रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नही थे...वह तो एक शापित गंधर्व था जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया.बात रूपक में कही गई है लेकिन रफ़ी साहब की शख़्सियत पर एकदम फ़बती है. आज तो रफ़ी , किशोर और मुकेश गायकी परम्परा के ढेरों नक़ली वर्जन पैदा हो गए है लेकिन जिस दौर में रफ़ी साहब शुरू हुए तब के.एल.सहगल,पंकज मलिक,के.सी.डे,जी.एम.दुर्रानी जैसे चंद नामों को छोड़ कर पार्श्वगायन में कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं थी. हाँ जो अच्छा था वह यह कि बहुत क़ाबिल म्युज़िक डायरेक्टर्स थे जो गायकों को एक लाजवाब घड़ावन देते रहे. रफ़ी साहब को भी श्यामसुंदर,नौशाद, ग़ुलाम मोहम्मद, मास्टर ग़ुलाम हैदर,खेमचंद प्रकाश,हुस्नलाल भगतराम जैसे गुणी मौसीकारों का सान्निध्य मिला जो रफ़ी साहब के कैरियर में एक महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुए.
रफ़ी साहब ने क्लासिकल म्युज़िक का दामन कभी न छोड़ा यही वजह है कि लगभग रफ़ी साहब को पहली बड़ी क़ामयाबी देने वाली तस्वीर बैजूबावरा में उन्होंने राग मालकौंस(मन तरपत)और दरबारी (ओ दुनिया के रखवाले) को जिस अधिकार और ताक़त के साथ गाया वन इस महान गुलूकार के हुनर की पुष्टि करने के लिये काफ़ी है. रफ़ी साहब ने जो सबसे बड़ा काम पार्श्वगायन के क्षेत्र में क्या वह यह कि उन्होनें अपने आप को कभी भी टाइप्ट नहीं होने दिया. ख़ुशी,ग़म,मस्ती,गीत,ग़ज़ल,लोक-संगीत,वैस्टर्न सभी स्टाइल में गाया और बख़ूबी गाया. सन अड़तालीस में वे शुरू हुए इस लिहाज़ से 2008 उनके गायकी का हीरक जयंती वर्ष है. साठ साल बाद भी उनके गीत पुराने नहीं पड़े और यक़ीनन कह सकता हूँ सौ साल बाद भी नहीं पड़ेंगे. शब्दों की साफ़-शफ़्फ़ाक़ अदायगी,कविता के मर्म को समझने वाला दिल,संगीत को गहराई से जानने की समझ और एक ऐसा विलक्षण दिमाग़ जो संगीतकार और कम्पोज़िशन की रूह तक उतर जाता हो और जैसा चाहा गया उससे ज़्यादा डिलिवर करता है.
इस दुनिया से चले जाने के बाद भी (सनद रहे रफ़ी साहब को गुज़रे 28 बरस हो गए हैं;एक पीढ़ी ऐसी तैयार हो गई है जो साल भर में अपने माँ-बाप को भूल जाती है) रफ़ी साहब की गायकी का जलवा क़ायम है क्योंकि रफ़ी शब्द को गाते हुए भी शब्द और समय के पार की गायकी के कलाकार थे इसीलिये उनके गीतों की ताब और चमक बरक़रार है. रफ़ी साहब को सुनने का सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि हम उन्हें सुनें और चुप हो जाएँ.ऐसा चुप हो जाना ही सबसे अच्छा बोलना है. सादगी से रहने और गाने वाले रफ़ी साहब ने ऐसा गाया है जैसे कोई ख़ुशबू का ताजमहल खड़ा कर दे.स्वर में ओस की बूँद की पाक़ीज़गी पैदा करने वाले मोहम्मद रफ़ी कभी भी रेकॉर्डिंग ख़त्म होने के बाद कभी नहीं कहते थे कि मैं जाता हूँ.31 जुलाई 1980 को संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की एक गीत रेकॉर्ड करने के बाद रफ़ी साहब बोले “ओके नाऊ आइ विल लीव “ क्या कोई सोच सकता है उसी दिन आवाज़ का ये जादूगर इसी शाम इस दुनिया को अलविदा कह गया.....क्या सूफ़ी और दरवेश के अलावा किसी को मृत्यु जैसी सचाई का पूर्वाभास हो सकता है ?
आज हम पूरे दिन रफी की याद फीचर आलेख प्रकाशित करेंगे। युनूस खान की कलम से दोपहर दो बजे, रफी के बारे में विशेष जानकारी शाम ७ बजे। तो बने रहिए 'आवाज' के साथ और गुनगुनाते रहिए रफ़ी के मीठे-मीठे तराने।
Most of the time people Criticized today's music saying that it has nothing worth listening comparing to the music that created by the old masters in their time, while the composer of this generation claimed that they make music for the youth and deliver what they like, but seriously do we need any comparsion like that ? music can ever lost its sweetness or its melody ? Well, who better than our music expert Manish Kumar can answer this question, so guys over to manish and read what he wants to comment on this issue
समय समय पर जब भी आज के संगीत परिदृश्य की बात उठती है, इस तरह के प्रश्न उठते हैं और उठते रहेंगे। पर मेरा इस बात पर अटूट विश्वास है कि भारत जैसे देश में संगीत की लय ना कभी मरी थी ना कभी मरेगी। समय के साथ साथ हमारे फिल्म संगीत में बदलाव जरूर आया है। ५० के दशक के बाद से इसमें कई अच्छे-बुरे उतार-चढ़ाव आये हैं । अक्सर लोग ये कहते हैं कि आज के संगीत में कुछ भी सुनने लायक नहीं है। आज का संगीतकारों में मेलोडी की समझ ही नहीं है। पर मुझे इस तरह के वक्तव्य न्यायोचित नहीं लगते। इससे पहले कि मैं आज के संगीतकारों के बारे में कुछ कहूँ, भारतीय फिल्म संगीत के अतीत पर एक नज़र डालना लाज़िमी होगा ।
इसमें कोई शक नहीं पुरानी फिल्मों के गीत इतने सालों के बाद भी दिल पर वही तासीर छोड़ते हैं । एस. डी. बर्मन, सलिल चौधरी, मदनमोहन, हेमंत, नौशाद, शंकर जयकिशन, जैसे कमाल के संगीतकारों, तलत महमूद,सहगल, सुरैया, गीता दत्त, लता, रफी, मन्ना डे, मुकेश, आशा, किशोर जैसे सुरीले गायकों और राज कपूर, विमल राय, महबूब खान और गुरूदत जैसे संगीत पारखी निर्माता निर्देशकों ने ५० से ७० के दशक में जो फिल्म संगीत दिया वो अपने आप में अतुलनीय है। इसीलिये इस काल को हिन्दी फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जाता है । ये वो जमाना था जब गीत पहले लिखे जाते थे और उन पर धुनें बाद में बनाई जाती थीं ।
वक्त बदला और ७० के दशक में पंचम दा ने भारतीय संगीत के साथ रॉक संगीत का सफल समावेश पहली बार 'हरे राम हरे कृष्ण' में किया । वहीं ८० के दशक में बप्पी लाहिड़ी ने डिस्को के संगीत को अपनी धुनों का केन्द्र बिन्दु रखा । मेरी समझ से ८० का उत्तरार्ध फिल्म संगीत का पराभव काल था । बिनाका गीत माला में मवाली, हिम्मतवाला सरीखी फिल्मों के गीत भी शुरू की पायदानों पर अपनी जगह बना रहे थे । और शायद यही वजह या एक कारण रहा कि उस समय के हालातों से संगीत प्रेमी विक्षुब्ध जनता का एक बड़ा वर्ग गजल और भजन गायकी की ओर उन्मुख हुआ। जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, तलत अजीज, पीनाज मसानी जैसे कलाकार इसी काल में उभरे।
९० का उत्तरार्ध हिन्दी फिल्म संगीत के पुनर्जागरण का समय था । पंचम दा तो नहीं रहे पर जाते-जाते १९४२ ए लव स्टोरी (१९९३) का अमूल्य तोहफा अवश्य दे गए । कविता कृष्णामूर्ति के इस काव्यात्मक गीत का रस आपने ना लिया हो तो जरूर लीजिएगा
क्यूँ नये लग रहे हैं ये धरती गगन मैंने पूछा तो बोली ये पगली पवन प्यार हुआ चुपके से.. ये क्या हुआ चुपके से
मैंने बादल से कभी, ये कहानी थी सुनी पर्वतों से इक नदी, मिलने सागर से चली झूमती, घूमती, नाचती, दौड़ती खो गयी अपने सागर में जा के नदी देखने प्यार की ऐसी जादूगरी चाँद खिला चुपके से..प्यार हुआ चुपके से..
पुरानी फिल्मों से आज के संगीत में फर्क ये है कि रिदम यानि तर्ज पर जोर ज्यादा है। तरह-तरह के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होने लगा है। धुनें पहले बनती हैं, गीत बाद में लिखे जाते हैं। नतीजन बोल पीछे हो जाते हैं और सिर्फ बीट्स पर ही गीत चल निकलते हैं। ऐसे गीत ज्यादा दिन जेहन में नहीं रह पाते। पर ये ढर्रा सब पर लागू नहीं होता ।
१९९५-२००६ तक के हिन्दी फिल्म संगीत के सफर पर चलें तो ऐसे कितने ही संगीतकार हैं जिन पर आपका कथन आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना .................बिलकुल सही नहीं बैठता । कुछ बानगी पेश कर रहा हूँ ताकि ये स्पष्ट हो सके कि मैं ऐसा क्यूँ कह रहा हूँ।
साल था १९९६ और संगीतकार थे यही ओंकारा वाले विशाल भारद्वाज और फिल्म थी माचिस ! आतंकवाद की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म का संगीत कमाल का था ! भला
छोड़ आये हम वो गलियाँ..... चप्पा चप्पा चरखा चले.. और तुम गये सब गया, मैं अपनी ही मिट्टी तले दब गया
जैसे गीतों और उनकी धुनों को कौन भूल सकता है ?
इसी साल यानी १९९६ में प्रदर्शित फिल्म इस रात की सुबह नहीं में उभरे एक और उत्कृष्ट संगीतकार एम. एम. करीम साहब ! एस. पी. बालासुब्रमण्यम के गाये इस गीत और वस्तुतः पूरी फिल्म में दिया गया उनका संगीत काबिले तारीफ है
मेरे तेरे नाम नये है ये दर्द पुराना है, जीवन क्या है तेज हवा में दीप जलाना है
दुख की नगरी, कौन सी नगरी आँसू की क्या जात सारे तारे दूर के तारे, सबके छोटे हाथ अपने-अपने गम का सबको साथ निभाना है.. मेरे तेरे नाम नये है.....
१९९९ में आई हम दिल दे चुके सनम और साथ ही हिन्दी फिल्म जगत के क्षितिज पर उभरे इस्माइल दरबार साहब ! शायद ही कोई संगीत प्रेमी हो जो उनकी धुन पर बने इस गीत का प्रशंसक ना हो
तड़प- तड़प के इस दिल से आह निकलती रही.... ऍसा क्या गुनाह किया कि लुट गये, हां लुट गये हम तेरी मोहब्बत में...
पर हिन्दी फिल्म संगीत को विश्व संगीत से जोड़ने में अगर किसी एक संगीतकार का नाम लिया जाए तो वो ए. आर रहमान का होगा । रहमान एक ऐसे गुणी संगीतकार हैं जिन्हें पश्चिमी संगीत की सारी विधाओं की उतनी ही पकड़ है जितनी हिन्दुस्तानी संगीत की । जहाँ अपनी शुरूआत की फिल्मों में वो फ्यूजन म्यूजिक (रोजा, रंगीला,दौड़ ) पेश करते दिखे तो , जुबैदा और लगान में विशुद्ध भारतीय संगीत से सारे देश को अपने साथ झुमाया। खैर शांत कलेवर लिये हुये मीनाक्षी - ए टेल आफ थ्री सिटीज (२००४) का ये गीत सुनें
कोई सच्चे ख्वाब दिखाकर, आँखों में समा जाता है ये रिश्ता क्या कहलाता है जब सूरज थकने लगता है और धूप सिमटने लगती है कोई अनजानी सी चीज मेरी सांसों से लिपटने लगती है में दिल के करीब आ जाती हूँ , दिल मेरे करीब आ जाता है ये रिश्ता क्या कहलाता है
२००४ में एक एड्स पर एक फिल्म बनी थी "फिर मिलेंगे" प्रसून जोशी के लिखे गीत और शंकर-एहसान-लॉय का संगीत किसी भी मायने में फिल्म संगीत के स्वर्णिम काल में रचित गीतों से कम नहीं हैं। इन पंक्तियों पर गौर करें
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे बूंदों को धरती पर साज एक बजाने दे हवायें कह रहीं हैं, आ जा झूमें जरा गगन के गाल को चल जा के छू लें जरा
झील एक आदत है, तुझमें ही तो रहती है और नदी शरारत है तेरे संग बहती है उतार गम के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे
और फिर २००५ की सुपरिचित फिल्म परिणिता में आयी एक और जुगल जोड़ी संगीतकार शान्तनु मोइत्रा और गीतकार स्वान्द किरकिरे की ! अंधेरी रात में परिणिता का दर्द क्या इन लफ्जो में उभर कर आता है
रतिया अंधियारी रतिया रात हमारी तो, चाँद की सहेली है कितने दिनों के बाद, आई वो अकेली है चुप्पी की बिरहा है, झींगुर का बाजे साथ
गीतों की ये फेरहिस्त तो चलती जाएगी। मैंने तो अपनी पसंद के कुछ गीतों को चुना ये दिखाने के लिये कि ना मेलोडी मरी है ना कुछ हट कर संगीत देने वाले संगीतकार।
हमारे इतने प्रतिभावान संगीतकारों और गीतकारों के रहते हुये आज के संगीत से ये नाउम्मीदी उनके साथ न्याय नहीं है । मैं मानता हूँ कि हिमेश रेशमिया जैसे जीव अपनी गायकी से आपका सिर दर्द करा देते होंगे पर वहीं सोनू निगम और श्रेया घोषाल की सुरीली आवाज भी आपके पास हैं। अगर एक ओर अलताफ रजा हैं तो दूसरी ओर जगजीत सिंह भी हैं । अगर रीमिक्स संगीत पुराने गीतों को रसातल में ले जाता दिखता है तो वहीं कैलाश खेर ने सूफी संगीत के माध्यम से संगीत की नई ऊँचाईयों को छुआ है। आपको MTV का पॉप कल्चर ही आज के युवाओं का कल्चर लगता है तो एक नजर Zee के शो सा-रे-गा-मा पर नजर दौड़ाइये जहाँ युवा प्रतिभाएँ हिन्दी फिल्म संगीत को ऊपर ले जाने को कटिबद्ध दिखती हैं ।
हाँ, ये जरूर है कि आज के इस बाजार शासित संगीत उद्योग में ऍसे गीतों की बहुतायत है जो लफ़्जों से ज्यादा अपनी रिदम की वज़ह से चर्चित होते हैं। आखिर ऐसा क्यूँ है कि एक अच्छे गीत को सुनने के लिए हमें दस बेकार गीतों का शोर सुनना पड़ता है ?
इस समस्या की तह तक जाएँ तो ये पाएँगे कि आज की इस शिक्षा प्रणाली में साहित्य चाहे वो हिंदी हो या उर्दू, पर कोई जोर नहीं है। अच्छे नंबर लाने के लिए दसवीं में लोग हिंदी छोड़ संस्कृत ले लेते हैं। जब ये युवा अपने कैरियर की दिशा चुनने के लिए चिकित्सा, अभियांत्रिकी और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में जाते हैं तो ये कटाव और गहरा हो जाता है। जब तक हम आरंभ से ही नई पीढ़ी में हिन्दी और उर्दू साहित्य रुझान नहीं पैदा करेंगे तब तक काव्यात्मक गीत संगीत को प्रश्रय देने वाला एक वर्ग तैयार नहीं होगा और ना ही गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और स्वानंद किरकिरे जैसे गीतकार संगीत जगत पर समय समय पर उभरते रहेंगे ।
पर यह बात भी गौर करने की है कि जैसी विविधता संगीत के क्षेत्र में आज उपलब्ध है वैसी पहले कभी नहीं थी। मैं मानता हूँ कि ८० के दशक की गिरावट के बाद पिछले १५ सालों में एक नया संगीत युवा प्रतिभावान संगीतकारों की मदद से उभरा है । आज संगीत की सीमा देश तक सीमित नहीं, और जो नये प्रयोग हमारे संगीतकार कर रहे हैं उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें खुले दिल से सुनना चाहिए। ये नहीं कि ये उस स्वर्णिम काल की पुनरावृति कर देंगे पर इनमें कुछ नया करने और देने की ललक और प्रतिभा दोनों है जिसे निरंतर बढ़ावा देने की जरूरत है। जब तक संगीत को चाहने वाले रहेंगे, सुर और ताल कभी नहीं मरेंगे । जरूरत है तो अच्छे गीतकारों की एक पौध तैयार करने की और एक अच्छे श्रोता के नाते संगीत के सही चुनाव की।
(मूल रूप में ये आलेख मेरे चिट्ठे एक शाम मेरे नाम पर अगस्त २००६ में छपा था । हिन्द-युग्म,आवाज़ के लिए थोड़ी फेर बदल के बाद यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ।)