tag:blogger.com,1999:blog-26091341727074185202024-03-28T11:13:09.499+05:30रेडियो प्लेबैक इंडियाLiterature, Music and Movies, one stop destination for poetry, Hindi film music, movies, and knowledge treasure for children, unknown facts, unheard stories, and unlimited entertainment Sajeevhttp://www.blogger.com/profile/08906311153913173185noreply@blogger.comBlogger116125tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-84265852645412489572012-01-26T14:15:00.003+05:302012-08-14T22:43:07.919+05:30शत्रुओं की छाती पर लोहा कुट.. बाबा नागार्जुन की हुंकार के साथ आईये करें गणतंत्र दिवस का स्वागत
महफ़िल-ए-ग़ज़ल ०२
बचपन बीत जाता है, बचपना नहीं जाता। बचपन की कुछ यादें, कुछ बातें साथ-साथ आ जाती हैं। उम्र की पगडंडियों पर चलते-चलते उन बातों को गुनगुनाते रहो तो सफ़र सुकून से कटता है। बचपन की ऐसी हीं दो यादें जो मेरे साथ आ गई हैं उनमें पहली है कक्षा सातवीं से बारहवीं तक (हाँ मेरे लिए बारहवीं भी बचपन का हीं हिस्सा है) पढी हुईं हिन्दी कविताएँ और दूसरी है साल में कम-से-कम तीन दिन देशभक्त हो विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-55878646483404431072012-01-05T09:07:00.006+05:302012-08-14T22:44:09.524+05:30हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद... राही मासूम रज़ा, जगजीत-चित्रा एवं आबिदा परवीन के साथ"मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चाँद" - बस इस पंक्ति से हीं राही साहब ने अपने चाँद के दु:ख का पारावार खड़ कर दिया है। चाँद शायरों और कवियों के लिए वैसे हीं हमेशा प्रिय रहा है और इस एक चाँद को हर कलमकार ने अलग-अलग तरीके से पेश किया है। अधिकतर जगहों पर चाँद एक महबूबा है और शायद(?) यहाँ भी वही है।
महफ़िल-ए-ग़ज़ल ०१
तो लीजिए साल की पहली महफ़िल-ए-ग़ज़ल के साथ हाज़िर हूँ मैं। मुझे मालूम है कि विश्व दीपकhttp://www.blogger.com/profile/10276082553907088514noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-43431671163641234442011-05-11T09:15:00.002+05:302011-11-27T13:55:51.892+05:30भला हुआ मेरी मटकी फूटी.. ज़िन्दगी से छूटने की ख़ुशी मना रहे हैं कबीर... साथ हैं गुलज़ार और आबिदामहफ़िल-ए-ग़ज़ल #११३सूफ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बडे खूबसूरत रूप लेता है| कभी नैहर छूट जाता है, कभी चोला बदल लेता है| जो मरता है ऊंचा ही उठता है, तरह तरह से अंत-आनन्द की बात करते हैं| कबीर के यहां, ये खयाल कुछ और करवटें भी लेता है, एक बे-तकल्लुफ़ी है मौत से, जो जिन्दगी से कहीं भी नहीं|माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे ।एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रोदुंगी तोहे ॥माटी का शरीर, माटी का बर्तन,Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-19452892828476256312011-03-30T08:27:00.002+05:302011-11-27T13:55:51.901+05:30साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ीमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२नशे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है।सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये ।जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये !गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानतेAmithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-74733650885659054732011-03-09T10:13:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.385+05:30मन लागो यार फ़क़ीरी में: कबीर की साखियों की सखी बनकर आई हैं आबिदा परवीन, अगुवाई है गुलज़ार कीमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१११सूफ़ियों का कलाम गाते-गाते आबिदा परवीन खुद सूफ़ी हो गईं। इनकी आवाज़ अब इबादत की आवाज़ लगती है। मौला को पुकारती हैं तो लगता है कि हाँ इनकी आवाज़ ज़रूर उस तक पहुँचती होगी। वो सुनता होगा.. सिदक़ सदाक़त की आवाज़।माला कहे है काठ की तू क्यों फेरे मोहे,मन का मणका फेर दे, तुरत मिला दूँ तोहे।आबिदा कबीर की मार्फ़त पुकारती हैं उसे, हम आबिदा की मार्फ़त उसे बुला लेते हैं।मन लागो यार फ़क़ीरीAmithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-39295655406011947412011-02-09T09:22:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.391+05:30"सातों बार बोले बंसी" और "जाने दो मुझे जाने दो" जैसे नगीनों से सजी है आज की "गुलज़ार-आशा-पंचम"-मयी महफ़िलमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #११०बाद मुद्दत के फिर मिली हो तुम,ये जो थोड़ी-सी भर गई हो तुम,ये वज़न तुम पर अच्छा लगता है..अभी कुछ दिनों पहले हीं भरी-पूरी फिल्मफेयर की ट्रॉफ़ी स्वीकार करते समय गुलज़ार साहब ने जब ये पंक्तियाँ कहीं तो उनकी आँखों में गज़ब का एक आत्म-विश्वास था, लहजे में पिछले ४८ सालों की मेहनत की मणियाँ पिरोई हुई-सी मालूम होती थीं और बालपन वैसा हीं जैसे किसी पाँचवे दर्ज़े के बच्चे को सबसे सुंदर Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-83792786297354323952011-01-26T09:21:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.394+05:30अपने पडो़सी दिल से भीनी-भीनी भोर की माँग कर बैठे गोटेदार गुलज़ार साहब, आशा जी एवं राग तोड़ी वाले पंचम दामहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०९गुलज़ार और पंचम - ये दो नाम दो होते हुए भी एक से लगते हैं और जब भी इन दोनों का नाम साथ में आता है तो सुनने वालों को मालूम हो जाता है कि कुछ नया कुछ अलबेला पक के आने वाला है बाहर.. अभी-अभी पतीला खुलेगा और कोई मीठी-सी नज़्म छलकते हुए हमारे कानों तक पहुँच जाएगी। ये दोनों फ़नकार एक-दूसरे के पूरक-से हो चले थे। कैसी भी घुमावदार सोच हो, किसी भी मोड़ पर बिन कहे मुड़ने वाले मिसरे हों याAmithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-39210112067855574092011-01-12T10:19:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.396+05:30इसी को प्यार कहते हैं.. प्यार की परिभाषा जानने के लिए चलिए हम शरण लेते हैं हसरत जयपुरी और हुसैन बंधुओं कीमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०८ग़ज़लों की दुनिया में ग़ालिब का सानी कौन होगा! कोई नहीं! है ना? फिर आप उसे क्या कहेंगे जिसके एक शेर पर ग़ालिब ने अपना सारा का सारा दीवान लुटाने की बात कह दी थी.. "तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता।" इस शेर की कीमत आँकी नहीं जा सकती, क्योंकि इसे खरीदने वाला खुद बिकने को तैयार था। आपको पता न हो तो बता दूँ कि यह शेर उस्ताद मोमिन खाँ ’मोमिन’ का है। अब बात करते हैं Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-18927496762499567872011-01-05T10:16:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.398+05:30नव दधीचि हड्डियां गलाएँ, आओ फिर से दिया जलाएँ... अटल जी के शब्दों को मिला लता जी की आवाज़ का पुर-असर जादूमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०७राजनीति और साहित्य साथ-साथ नहीं चलते। इसका कारण यह नहीं कि राजनीतिज्ञ अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता या फिर एक साहित्यकार अच्छी राजनीति नहीं कर सकता.. बल्कि यह है कि उस साहित्यकार को लोग "राजनीति" के चश्मे से देखने लगते हैं। उसकी रचनाओं को पसंद या नापसंद करने की कसौटी बस उसकी प्रतिभा नहीं रह जाती, बल्कि यह भी होती है कि वह जिस राजनीतिक दल से संबंध रखता है, उस दल की क्या सोच है Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-43255927151396789362010-12-15T10:26:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.402+05:30उस्ताद शफ़कत अली खान की आवाज़ में राधा की "नदिया किनारे मोरा गाँव" की पुकार कुछ अलग हीं असर करती हैमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०६पिछले कुछ हफ़्तों से अगर आपने महफिल को ध्यान से देखा होगा तो महफ़िल पेश करने के तरीके में हुए बदलाव पर आपकी नज़र ज़रूर गई होगी। पहले महफ़िल देर-सबेर १० बजे तक पूरी की पूरी तैयार हो जाती थी और फिर उसके बाद उसमें न कुछ जोड़ा जाता था और न हीं उससे कुछ हटाया जाता था। लेकिन अब १०:३० तक महफ़िल का एक खांका हीं तैयार हो पाता है, जिसमें उस दिन पेश होने वाली नज़्म/ग़ज़ल होती है, उसके बोलAmithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-19359083615336590152010-12-08T10:25:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.403+05:30है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी हैमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५इससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-15360876695244302882010-12-01T10:25:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.405+05:30छल्ला कालियां मर्चां, छल्ला होया बैरी.. छल्ला से अपने दिल का दर्द बताती विरहणी को आवाज़ दी शौकत अली नेमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०४यूँतो हमारी महफ़िल का नाम है "महफ़िल-ए-ग़ज़ल", लेकिन कभी-कभार हम ग़ज़लों के अलावा गैर-फिल्मी नगमों और लोक-गीतों की भी बात कर लिया करते हैं। लीक से हटने की अपनी इसी आदत को ज़ारी रखते हुए आज हम लेकर आए हैं एक पंजाबी गीत.. या यूँ कहिए पंजाबी लोकगीतों का एक खास रूप, एक खास ज़ौनर जिसे "छल्ला" के नाम से जाना जाता है। इस "छल्ला" को कई गुलुकारों ने गाया है और अपने-अपने तरीके से गाया हैAmithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-77880967908962217342010-11-24T10:21:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.406+05:30मोहब्बत की कहानी आँसूओं में पल रही है.. सज्जाद अली ने शहद-घुली आवाज़ में थोड़ा-सा दर्द भी घोल दिया हैमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०३माफ़ी, माफ़ी और माफ़ी... भला कितनी माफ़ियाँ माँगूंगा मैं आप लोगों से। हर बार यही कोशिश करता हूँ कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल की गाड़ी रूके नहीं, लेकिन कोई न कोई मजबूरी आ हीं जाती है। इस बार घर जाने से पहले यह मन बना लिया था कि आगे की दो-तीन महफ़िलें लिख कर जाऊँगा, लेकिन वक़्त ने हीं साथ नहीं दिया। घर पर अंतर्जाल की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए वहाँ से महफ़िलों की मेजबानी करने का कोई प्रश्नAmithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-37025647436396093472010-10-27T06:53:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.412+05:30मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता हैमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०२अभी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-75747145113318878132010-10-20T10:15:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.414+05:30लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में.. मादर-ए-वतन से दूर होने के ज़फ़र के दर्द को हबीब की आवाज़ ने कुछ यूँ उभारामहफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०१पूरे एक महीने की छुट्टी के बाद मैं वापस आ गया हूँ महफ़िल-ए-ग़ज़ल की अगली कड़ी लेकर। यह छुट्टी वैसे तो एक हफ़्ते की हीं होनी थी, लेकिन कुछ ज्यादा हीं लंबी खींच गई। दर-असल मेरे साथ वही हुआ जो इन महाशय के साथ हुआ था जिन्होंने "कल करे सो आज कर" का नवीनीकरण किया है कुछ इस तरह से:आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो,इतनी जल्दी क्या है भाई, जीना है अभी बरसों।तो आप समझ गए ना? हर बुधवार को Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-43995396726946073872010-09-15T10:19:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.421+05:30महफ़िल-ए-ग़ज़ल की १००वीं कड़ी में जगजीत सिंह लेकर आए हैं राजेन्द्रनाथ रहबर की "तेरे खुशबू में बसे खत"महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१००हंस ले 'रहबर` वो आये हैं, रोने को तो उम्र पड़ी हैराजेन्द्रनाथ ’रहबर’ साहब के इस शेर की हीं तरह हम भी आपको खुश होने और खुशियाँ मनाने का न्यौता दे रहे हैं। जी हाँ, आज बात हीं कुछ ऐसी है। दर-असल आज महफ़िल-ए-ग़ज़ल उस मुकाम पर पहुँच गई है, जिसके बारे में हमने कभी भी सोचा नहीं था। जब हमने अपनी इस महफ़िल की नींव डाली थी, तब हमारा लक्ष्य बस यही था कि "आवाज़" पर "गीतों" के साथ-साथ "Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-14152471986264962092010-09-08T10:16:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.423+05:30परीशाँ हो के मेरी ख़ाक आख़िर दिल न बन जाए.. पेश-ए-नज़र है अल्लामा इक़बाल का दर्द मेहदी हसन की जुबानीमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९९सितारों के आगे जहाँ और भी हैं,अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं|अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़ममक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं|गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन मेंयहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं|हमारे यहाँ कुछ शायर ऐसे हुए हैं, जिन्हें हमने उनकी कुछ ग़ज़लों (कभी-कभी तो महज़ एक ग़ज़ल या एक नज़्म) तक हीं बाँधकर रखा है। ऐसे हीं एक शायर हैं, "मोहम्मद इक़बाल"। अभी हमने ऊपर जो शेर पढे, उन Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-46836041141049178482010-09-01T10:07:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.424+05:30ज़ाहिद न कह बुरी कि ये मस्ताने आदमी हैं.. ताहिरा सैय्यद ने कुछ यूँ आवाज़ दी दाग़ की दीवानगी और मस्तानगी कोमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९८कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना,तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं।"कौन ऐसी तवाएफ़ थी जो ‘दाग़’ की ग़ज़ल बग़ैर महफिल में रंग जमा सके? क्या मुशाअरे, क्या अदबी मजलिसें, क्या आपसी सुहबतें, क्या महफ़िले-रक्स, क्या गली-कूचें, सर्वत्र ‘दाग़’ का हीं रंग ग़ालिब था।" अपनी पुस्तक "शेर-ओ-सुखन: भाग ४" में अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने उपरोक्त कथन के द्वारा दाग़ की Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-1418397401182427732010-08-18T09:45:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.428+05:30लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले.. ज़िंदगी और मौत के बीच उलझे ज़ौक़ को साथ मिला बेग़म और सहगल कामहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९७नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’,इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वालेइस तपिश का है मज़ा दिल ही को हासिल होताकाश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम दिल होतायूँ तो इश्क़ और शायर/शायरी में चोली-दामन का साथ होता है, लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो इश्क़ को बखूबी समझते हैं और हर शेर लिखने से पहले स्याही को इश्क़ में डुबोते चलते हैं। ऐसे शायरों का लिखा पढने में दिल को जो सुकूं Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-56305893810629617002010-08-11T10:14:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.430+05:30जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है.. "मीर" के एकतरफ़ा प्यार की कसक औ’ हरिहरण की आवाज़महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग,मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-78227323071993633132010-08-04T10:14:00.002+05:302011-11-27T13:54:34.431+05:30आवारा हैं गलियों में मैं और मेरी तन्हाई .. अली सरदार जाफ़री के दिल का गुबार फूटा जगजीत सिंह के सामनेमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९५"शायर न तो कुल्हाड़ी की तरह पेड़ काट सकता है और न इन्सानी हाथों की तरह मिट्टी से प्याले बना सकता है। वह पत्थर से बुत नहीं तराशता, बल्कि जज़्बात और अहसासात की नई-नई तस्वीरें बनाता है। वह पहले इन्सान के जज़्बात पर असर-अंदाज़ होता है और इस तरह उसमें दाख़ली (अंतरंग) तबदीली पैदा करता है और फिर उस इन्सान के ज़रिये से माहौल (वातावरण) और समाज को तबदील करता है।" शायर की परिभाषा देती हुई Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-41187168497273801522010-07-28T10:16:00.002+05:302011-11-27T13:52:42.442+05:30सरकती जाये है रुख से नक़ाब .. अमीर मीनाई की दिलफ़रेब सोच को आवाज़ से निखारा जगजीत सिंह नेमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९४वो बेदर्दी से सर काटे 'अमीर' और मैं कहूँ उन से, हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता।आज की महफ़िल इसी शायर के नाम है, जो मौत की माँग भी अपने अलहदा अंदाज़ में कर रहा है। इस शायर के क्या कहने जो औरों के दर्द को खुद का दर्द समझता है और परेशान हो जाता है। तभी तो उसे कहना पड़ा है कि:खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर' सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में हैइन दो शेरों के बाद आप Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-53253710679463974302010-07-21T09:20:00.002+05:302011-11-27T13:52:42.444+05:30ये कौन आता है तन्हाईयों में जाम लिए.. मख़्दूम मोहिउद्दीन के लफ़्ज़ औ' आबिदा की पुकार..वाह जी वाह!महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९३दिन से महीने और फिर बरस बीत गयेफिर क्यूं हर शब तन्हाई आंख से आंसू बनकर ढल जाती हैफिर क्यूं हर शब तेरे शे’र तेरी आवाज गूंजा करती हैफजाओं में आसमानों मेंमुझे यूं महसूस होता हैजैसे तू हयात बन गया हैऔर मैं मर गया हूं। अपने पिता "मख़्दूम मोहिउद्दीन" को याद करते हुए उनके जन्म-शताब्दी के मौके पर उनके पुत्र "नुसरत मोहिउद्दीन" की ये पंक्तियाँ मख़्दूम की शायरी के दीवानों को अश्कों और Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com29tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-21670424205480981002010-07-14T10:03:00.002+05:302011-11-27T13:52:42.445+05:30बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की.. नारी-मन में मचलते दर्द को दिल से उभारा है परवीन और मेहदी हसन नेमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९२"नारी-मन की व्यथा को अपनी मर्मस्पर्शी शैली के माध्यम से अभिव्यक्त करने वाली पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर उर्दू-काव्य की अमूल्य निधि हैं।" - यह कहना है सुरेश कुमार का, जिन्होंने "परवीन शाकिर" पर "खुली आँखों में सपना" नाम की पुस्तक लिखी है। सुरेश कुमार आगे लिखते हैं:बीसवीं सदी के आठवें दशक में प्रकाशित परवीन शाकिर के मजमुआ-ए-कलाम ‘खुशबू’ की खुशबू पाकिस्तान की सरहदों को पार करती Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-2609134172707418520.post-83569246549771186442010-07-07T09:59:00.002+05:302011-11-27T13:52:42.447+05:30तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो.. बशीर और हुसैन बंधुओं ने माँगी बड़ी हीं अनोखी दुआमहफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१"जगजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है।Amithttp://www.blogger.com/profile/14958714003791136765noreply@blogger.com13