Skip to main content

चित्रकथा - 44: फ़िल्म-संगीत में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें

अंक - 44

फ़िल्म-संगीत में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें


"आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक..." 



रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं है। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। हमारी दिलचस्पी का आलम ऐसा है कि हम केवल फ़िल्में देख कर या गाने सुनने तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखते, बल्कि फ़िल्म संबंधित हर तरह की जानकारियाँ बटोरने का प्रयत्न करते रहते हैं। इसी दिशा में आपके हमसफ़र बन कर हम आ रहे हैं हर शनिवार ’चित्रकथा’ लेकर। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ के पहले अंक में आपका हार्दिक स्वागत है। 

मिर्ज़ा ग़ालिब की लोकप्रियता जितनी है शायद और किसी शायर की नहीं। हिन्दी फ़िल्मों और फ़िल्मी गीतों में भी ग़ालिब हर दौर में आते रहे हैं और आगे भी आते रहेंगे। आज ’चित्रकथा' में हम चर्चा करने जा रहे हैं उन हिन्दी फ़िल्मी गीतों की जो या तो मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें हैं या फिर जिनमें ग़ालिब की ग़ज़लों या शेरों का असर है।



27 दिसंबर 1797 को जन्मे मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग़ ख़ान ’ग़ालिब’ मुग़ल साम्राज्य के आख़िर के बरसों के जानेमाने उर्दू और फ़ारसी के शायर थे। ’असद’ और ’ग़ालिब’ के तख़ल्लुस से उन्होंने लिखा तथा ’दाबिर-उल-मुल्क’ और ’नज्म-उद-दौला’ जैसी उपाधि उन्हें बतौर इज़्ज़त दी गई। मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें इतनी मशहूर हुईं कि उस ज़माने से लेकर आज तक न जाने कितने गुलाकारों ने इन्हें गाया है और न जाने कब तक गाते रहेंगे। आज ग़ालिब केवल भारत और पाक़िस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में ज़िन्दा हैं। ग़ालिब शायद एक अकेले ऐसे मुग़ल कालीन अदबी शायर हैं जिनकी ग़ज़लों ने हिन्दी फ़िल्मों में भी अपना असर छोड़ा है। ऐसी ही ग़ज़लों पर एक नज़र अब हम डालने जा रहे हैं। 1931 में 'इम्पीरियल मूवीटोन' ने पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ का निर्माण कर इतिहास रच दिया था। इसी कम्पनी की 1931 की एक और फ़िल्म थी 'अनंग सेना' जिसमें मास्टर विट्ठल, ज़ोहरा, ज़िल्लो, एलिज़र, हाडी, जगदीश और बमन ईरानी ने काम किया। फ़िल्म में अनंग सेना की भूमिका में ज़ोहरा और सुनन्दन की भूमिका में हाडी ने अभिनय व गायन किया। फ़िल्म में दो ग़ालिब की ग़ज़लें शामिल थीं – “दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है” और “दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यूं”। इस तरह से ग़ालिब की ग़ज़लें बोलती फ़िल्मों के पहले साल ही फ़िल्मों में प्रवेश कर गईं थीं। हाडी अभिनेता और गायक होने के साथ साथ एक संगीतकार भी थे और ग़ालिब की इन ग़ज़लों को उन्होंने ही कम्पोज़ किया था। 1943 की 'बसन्त पिक्चर्स' की फ़िल्म ‘हण्टरवाली की बेटी’ में छन्नालाल नाइक का संगीत था, इस फ़िल्म में ख़ान मस्ताना ने ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल “दिले नादां तुझे हुआ क्या है” को गाया जिसे ख़ूब मक़बूलियत मिली थी। हाल ही में 2015 की फ़िल्म ’हवाईज़ादा’ में आयुष्मान खुराना ने इसी ग़ज़ल को एक बड़े ही आधुनिक अंदाज़ में गाया जिसे कम्पोज़ भी उन्होंने ही किया। इसी का एक रिप्राइज़ वर्ज़न भी है जिसे आयुष्मान और श्वेता सुब्रम ने गाया है और इसमें मूल ग़ज़ल पर अतिरिक्त बोल लिखे हैं विभु पुरी ने। दोनों संस्करण सॉफ़्ट रॉक शैली में निबद्ध है। इस तरह से ग़ालिब की ग़ज़ल का रॉक के साथ फ़्युज़न एक बड़ा ही अनोखा और नया प्रयोग रहा।

जद्दनबाई ने 1935 में ‘संगीत फ़िल्म्स’ की स्थापना कर अपनी बेटी नरगिस (बेबी रानी) को 'तलाश-ए-हक़’ में लॉन्च किया था। 1936 में इस बैनर तले दो फ़िल्में आईं - ‘हृदय मंथन’ और ‘मैडम फ़ैशन’। जद्दनबाई निर्मित, निर्देशित, अभिनीत और स्वरबद्ध ‘हृदय मंथन’ में उन्हीं के गाये तमाम गीतों में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल “दिल ही तो है न संगो ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों” को भी शामिल किया गया था। इसी ग़ज़ल को 1940 में फिर एक बार फ़िल्म-संगीत में जगह मिली जब कलकत्ता के ‘फ़िल्म कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया’ की फ़िल्म ‘क़ैदी’ में संगीतकार भीष्मदेव चटर्जी ने इसे फिर एक बार कम्पोज़ किया। बल्कि इस फ़िल्म में ग़ालिब की दो ग़ज़लों शामिल हुईं; दूसरी ग़ज़ल थी “रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो, हमसुखन कोई न हो और हमज़बां कोई न हो”। संगीतकार रामचन्द्र पाल के भतीजे सूर्यकान्त पाल ने भी अपने चाचा की तरह फ़िल्म-संगीत के क्षेत्र में क़दम रखते हुए एस. के. पाल नाम से संगीतकार बने और पहली बार 1942 में ‘शालीमार पिक्चर्स’ की फ़िल्म ‘एक रात’ में संगीत दिया। इस फ़िल्म की अभिनेत्री नीना गाने में कमज़ोर थीं, और उनका पार्श्वगायन ताराबाई उर्फ़ सितारा (कानपुर) ने किया। पर रेकॉर्ड पर नीना का ही नाम छपा था। ‘हमराज़’ के ‘गीत कोश’ में भी नीना का ही नाम दिया गया है। कुछ गीत राजकुमारी ने भी गाए। ग़ालिब की ग़ज़ल “दिल ही तो है न संगो ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यूं” को इस फ़िल्म के लिए नीना (सितारा) ने गाया था। 

ग़ालिब की मशूर ग़ज़ल “नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाए न बने, क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने” कई बार फ़िल्मों में सुनाई दी है। संगीतकार बी. आर. देवधर ने पहली बार 1933 की फ़िल्म 'ज़हर-ए-इश्क़' के लिए इसे कम्पोज़ किया था। मज़ेदार बात यह है कि इसी साल, यानी 1933 में फ़िल्म ‘यहूदी की लड़की’ में 'न्यु थिएटर्स' में संगीतकार पंकज मल्लिक ने इसी ग़ज़ल को कुन्दनलाल सहगल की आवाज़ में रेकॉर्ड किया। राग भीमपलासी में स्वरबद्ध यह ग़ज़ल सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर दिया था। इम्पीरियल के अनुबंधित संगीतकारों में एक नाम अन्नासाहब माइनकर का भी था जिन्होंने 1935 के वर्ष में ‘अनारकली’ और ‘चलता पुतला’ जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया था। ‘अनारकली’ में ग़ालिब की इसी ग़ज़ल “नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल” को एक अन्य अंदाज़ में प्रस्तुत किया था। 1934 की फ़िल्म ‘ख़ाक का पुतला’ में मास्टर मोहम्मद ने ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल “कोई उम्मीदबर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती, मौत का एक दिन मुइयाँ है, नींद क्यों रात भर नहीं आती” को कम्पोज़ किया था जिसे अच्छी सराहना मिली थी। 1935 में महबूब ख़ान निर्देशित फ़िल्म ‘जजमेण्ट ऑफ़ अल्लाह’ में संगीतकार प्राणसुख नायक का संगीत था। अन्य गीतों के साथ ग़ालिब की इसी मशहूर ग़ज़ल “कोई उम्मीदबर नहीं आती” को उन्होंने भी स्वरबद्ध किया था। 1949 की फ़िल्म 'अपना देश' में भी यही ग़ज़ल सुनने को मिली जिसके संगीतकार थे पुरुषोत्तम और गायिका थीं पुष्पा हंस। 1942 की ‘फ़ज़ली ब्रदर्स’ की फ़िल्म ‘चौरंगी’ (अंग्रेज़ी में Chauringhee) में काजी नज़रूल इस्लाम और हनुमान प्रसाद शर्मा संगीतकार थे। हनुमान प्रसाद की यह पहली फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के लिए प्रसाद ने इस ग़ज़ल को कम्पोज़ किया था। दशकों बाद 2013 की फ़िल्म ’राजधानी एक्स्प्रेस’ में इसी ग़ज़ल को एक आधुनिक अंदाज़ में पेश किया गया शाहिद माल्या की आवाज़ में। संगीतकार थे लालू माधव। ग़ज़ल के शुरु में ग़ालिब का एक दूसरा शेर कहा है - "काबाँ किस मुंह से जाओगे ग़ालिब, शर्म तुमको मगर नहीं आती"। शाहिद की ताज़ी आवाज़ में "कोई उम्मीद बर नहीं आती" को आज के नौजवानों ने भी ख़ूब पसन्द किया और यह साबित हुआ कि आज की पीढ़ी में भी ग़ालिब ज़िन्दा है।

1941 में ‘फ़ज़ली ब्रदर्स कलकत्ता’ ने मुन्शी मुबारक हुसैन को संगीतकार लेकर फ़िल्म बनाई ‘मासूम’। अन्य गीतों के अलावा ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल “आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक” को इस फ़िल्म के लिए कम्पोज़ किया गया था। 1954 में मिर्ज़ा ग़ालिब पर इसी शीर्षक से फ़िल्म बनी, जिसमें भारत भूषण ने ग़ालिब का रोल अदा किया। साथ में थीं सुरैया। फ़िल्म में संगीत था मास्टर ग़ुलाम मुहम्मद का, और कहने की ज़रूरत नहीं, सभी ग़ज़लें ग़ालिब की लिखी हुई थीं। फ़िल्म में ग़ालिब की इन ग़ज़लों को शामिल किया गया था -

1. आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक (सुरैया)
2. दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है (तलत-सुरैया)
3. है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत (रफ़ी)
4. इश्क़ मुझको न सही वहशत ही सही (तलत)
5. नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल (सुरैया)
6. फिर मुझे दीद-ए-तर याद आया (तलत)
7. रहिए अब ऐसी जगह चलकर (सुरैया)
8. ये न थी हमारी क़िस्मत (सुरैया)

"ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता", इस ग़ज़ल को उषा मंगेशकर ने शंकर जयकिशन की धुन पर फ़िल्म 'मैं नशे में हूँ' में गाया था। उधर गुलज़ार ने ग़ालिब का एक शेर लिया "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन, बैठे रहें तसव्वुरे जाना किए हुए", और इसी को आधार बना कर फ़िल्म 'मौसम' का वह ख़ूबसूरत गीत लिख डाला। नए दौर में ग़ालिब की जिस ग़ज़ल को फ़िल्म में जगह मिली, वह थी "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले"। फ़िल्म का नाम भी था 'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी' जो आई थी साल 2003 में। संगीतकार शान्तनु मोइत्रा ने शुभा मुदगल से इस ग़ज़ल को गवाया था इस फ़िल्म के लिए। ग़ालिब की एक बेहद मशहूर शेर है "इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है यह वह आतिश ग़ालिब, कि लगाये ना लगे और बुझाये ना बने"। इस शेर का सहारा समय-समय पर फ़िल्मी गीतकारों ने लिया है अपने गीतों को सजाने-सँवारने के लिए। मसलन, 1981 की फ़िल्म ’एक दूजे के लिए’ के मज़ेदार गीत "हम बने तुम बने एक दूजे के लिए" में एक पंक्ति है "इश्क़ पर ज़ोर नहीं ग़ालिब ने कहा है इसीलिए, उसको क़सम लगे जो बिछड़ के एक पल भी जिये..."। इसके गीतकार थे आनन्द बक्शी। वैसे बक्शी साहब ने इस गीत से 10 साल पहले, 1970 में, फ़िल्म ’इश्क़ पर ज़ोर नहीं’ के शीर्षक गीत में भी इस जुमले का इस्तमाल किया और ख़ूबसूरत गीत बना "सच कहती है दुनिया इसक पे जोर नहीं, यह पक्का धागा है यह कच्ची डोर नहीं, कह दे कोई और है तू मेरा चितचोर नहीं, जो थम जाए वो ये घटा घनघोर नहीं, इस रोग की दुनिया में दवा कुछ और नहीं..."। 1995 की फ़िल्म ’तीन मोती’ में नवाब आरज़ू के कलम से निकले "इश्क़ पे कोई ज़ोर चले ना ना कोई मनमानी, फँस गई मैं तो प्रेम भँवर में अब क्या होगा जानी"। 

ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल है "असूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है, काग़ज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है"। इस ग़ज़ल की अन्तिम शेर है "ये इश्क़ नहीं आसाँ बस इतना समझ लीजिए, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है"। इस आख़िरी शेर पर 1983 में एक फ़िल्म बनी थी ’ये इश्क़ नहीं आसान’ जिसमें ॠषी कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरे थे। आनन्द बक्शी ने फ़िल्म का शीर्षक गीत लिखा जो एक क़व्वाली की शक्ल में थी - "ये इश्क़ नहीं आसाँ, ये काम है बस दीवानों का"। इसे महेन्द्र कपूर, सुरेश वाडकर, शब्बीर कुमार और साथियों ने गाया है और संगीतकार हैं लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल। उधर 1993 की फ़िल्म ’साहिबाँ’ में बक्शी साहब ने ग़ालिब के उसी शेर की दूसरी लाइन के जुमले को लेकर गीत लिखा "तू क्या प्यार करेगा प्यार मैंने किया, आग के इस दरिया को पार मैंने किया"। 2013 की फ़िल्म ’इस्सक’ में इसी शेर को आधार बना कर गीतकार नीलेश मिश्र ने गीत लिखा था "ये आग का दरिया है, डूब के जाना है"। सचिन-जिगर के संगीत में हार्ड रॉक शैली में कम्पोज़ किया हुआ यह गीत अंकित तिवारी ने गाया था। इसी का एक ’अनप्लग्ड वर्ज़न’ भी है जिसे सचिन-जिगर के सचिन गुप्ता के गाया है। इस तरह से ग़ालिब की ग़ज़लें हर दौर में फ़िल्मों में आती रही हैं। कुछ तो है इन ग़ज़लों में कि इतने पुराने होते हुए भी आज की पीढ़ी को पसन्द आ रही हैं। दरसल ये कालजयी रचनाएँ हैं जिन पर उम्र का कोई असर नहीं। ग़ालिब ने जैसे लिखा था कि "आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक", ठीक वैसे ही इन ग़ज़लों का असर सदियों तक यूंही बनी रहेगी। 


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!




शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की