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संगीत-साम्राज्ञी विदुषी गिरिजा देवी की स्मृतियों को सादर नमन


स्वरगोष्ठी – विशेष अंक में आज


विदुषी गिरिजा देवी को भावपूर्ण स्वरांजलि

“बाबुल मोरा नैहर छूटल जाए...”

याल, ठुमरी, चैती, कजरी आदि की अप्रतिम गायिका विदुषी गिरिजा देवी का गत 24 अक्टूबर, मंगलवार को कोलकाता के एक निजी चिकित्सालय में निधन हो गया। वे 88 वर्ष की थी। पिछले कुछ दिनो से वे अस्वस्थ थी। उनके निधन से पूरब अंग ठुमरी का एक महत्वपूर्ण स्थान रिक्त हो गया। उप-शास्त्रीय संगीत को वर्तमान में संगीत के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराने में विदुषी गिरिजा देवी के योगदान को सदियों तक स्मरण किया जाता रहेगा। आयु के नौवें दशक में भी सक्रिय गिरिजा देवी का जन्म 8 मई, 1929 को कला और संस्कृति की राजधानी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था। पिता रामदेव राय जमींदार थे और संगीत से उनका विशेष लगाव था। मात्र पाँच वर्ष की गिरिजा के लिए उन्होने संगीत-शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। एक साक्षात्कार में गिरिजा देवी ने स्वीकार किया है कि उनके प्रथम गुरु उनके पिता ही थे। गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत-गुरु पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की। नौ वर्ष की आयु में ही एक हिन्दी फिल्म ‘याद रहे’ में गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया था। गिरिजा देवी का विवाह 1946 में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था। उनके पति मधुसूदन जैन भी संगीत और काव्य-प्रेमी थे। उन्होने गिरिजा देवी की कला को सदा प्रोत्साहित किया। उन दिनों कुलीन विवाहिता स्त्रियों द्वारा मंच प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था। परन्तु सृजनात्मक प्रतिभा का प्रवाह भला कौन रोक सका है? 1949 में गिरिजा देवी ने अपना पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के आकाशवाणी केन्द्र से दिया। यह देश की स्वतंत्रता के तत्काल बाद का उन्मुक्त परिवेश था, जिसमें अनेक रूढ़ियाँ टूट रहीं थीं। संगीत के क्षेत्र में पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संगीत को जनमानस में प्रतिष्ठित करने का जो अभियान छेड़ा था, उसका सार्थक परिणाम आज़ादी के बाद नज़र आने लगा था। गिरिजा देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा। 1949 में रेडियो से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद गिरिजा देवी ने 1951 में बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में अपना गायन प्रस्तुत किया। इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत-यात्रा जो आरम्भ हुई, वह आज तक जारी है। गिरिजा देवी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। 80 के दशक में उन्हें कोलकाता स्थित आई.टी.सी. संगीत रिसर्च अकादमी ने आमंत्रित किया। वहाँ रह कर उन्होने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये, बल्कि शोधकार्य भी कराये। इसी प्रकार 90 के दशक में गिरिजा देवी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से जुड़ीं और अनेक विद्यार्थियों को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी। गिरिजा देवी को 1972 में ‘पद्मश्री’, 1977 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1999 में ‘पद्मभूषण’ और 2010 में संगीत नाटक अकादमी का फेलोशिप जैसे प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किये गए। गिरिजा देवी आधुनिक और स्वतन्त्रता से पूर्व काल के संगीत की विशेषज्ञ और संवाहिका रही हैं। ऐसी विदुषी को सभी संगीत-प्रेमियों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम आपको उन्हीं के स्वरों में पहले एक चैती गीत और फिर नवाब वाजिद अली शाह की एक ठुमरी राग भैरवी में पिरोयी हुई सुनवा रहे हैं। चैती गीत की भाव-भूमि लोक जीवन से प्रेरित है, किन्तु प्रस्तुति ठुमरी अंग से की गई है। आप उनकी स्मृतियों को नमन करते हुए यह चैती गीत ठुमरी सुनिए।

चैती गीत : ‘चैत मासे चुनरी रंगइबे हो रामा...’ : स्वर - विदुषी गिरिजा देवी



ठुमरी भैरवी : "बाबुल मोरा नैहर छूटल जाए..." : स्वर - विदुषी गिरिजा देवी



प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र  



Comments

Vijaya Rajkotia said…
So ad that such a great musician, Padmabhushan Smt. Giriraj Devi left this world leaving a big void in Thumer singing. She was the inspiration to young artists to learn thumeri . She will be alive in the hearts of all music lovers through her voice recorded at various concerts. May God bless her soul and keep her in eternal peace.

Vijaya
Pankaj Mukesh said…
Banaras gharane ki shashtreey sangeet ke vidhaa ke chaar prajwallit deepon ke aakhiree deep Vidushee Girija devi bhi bujhh gaya, magar unka divya prakash sadaiv hamein diptmaan karta rahega.
ठुमरी साम्राज्ञी गिरिजा देवी जी को सादर नमन, हार्दिक श्रद्धांजलि !

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