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चित्रकथा - 19: 2017 के मार्च और अप्रैल में प्रदर्शित फ़िल्मों का संगीत

अंक - 19

2017 के मार्च और अप्रैल में प्रदर्शित फ़िल्मों का संगीत

"होली खेले बृज की हर बाला..." 



’रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ में आपका हार्दिक स्वागत है। 



फ़िल्म-संगीत की धारा, जो 1931 में शुरु हुई थी, निरन्तर बहती चली जा रही है, और इस वर्ष भी यह सुरीली धारा रसिकों के दिलों से गुज़रती हुई बहे चली जा रही है। आइए आज ’चित्रकथा’ में चर्चा करें मार्च और अप्रैल 2017 में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों के गीत-संगीत की। 





मार्च और अप्रैल के महीने, यानी कि वसन्त और होली के रंगों का संगम। हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री भी इन रंगों से बच नहीं सकी और एकाधिक होली गीत पिछले दो महीनों में जारी हुए। लेकिन फ़िल्मी गीतों की समीक्षा शुरु करने से पहले दो ग़ैर फ़िल्मी गीतों का उल्लेख करना चाहूंगा जिन्हें लिखा है ’रेडियो प्लेबैक इंडिया’ के हमारे प्यारे साथी सजीव सारथी ने। पहला गीत एक होली गीत है "रंग" शीर्षक से जिसे अरविन्द तिवारी ने गाया है और चाणक्य शुक्ला ने संगीत से सँवारा है। "इस होरी डारो ऐसो रंग रे..." एक ऐसा होली गीत है जिसमें पारम्परिक स्वाद भी है और आधुनिक अंदाज़ का ज़ायका भी; गायकी में सूफ़ियाना रंग भी है और भारतीय शास्त्रीय संगीत की छटा भी। जितनी ख़ूबसूरत गायकी अरविन्द की है, वैसा ही है पीयुष अम्भोरे और सुबोध पाण्डे के शास्त्रीय आलाप और ताल गायन। और सजीव सारथी के शब्दों के तो कहने ही क्या। उपर उपर सुनने पर भले ही यह एक होली गीत लगे, पर ग़ौर करने पर पता चलता है कि दरसल यह एक एकतामूलक गीत है जो हमें साम्प्रदायिक एकता का पाठ पढ़ाता है जो आज के समय में सर्वाधिक आवश्यक है। इस गीत में हर एक रंग में प्यार का रंग भरने की बात है; हर एक इंसान अलग है, हर एक की अलग पहचान है, अलग धर्म है, अलग दिनचर्या है, लेकिन ऐसा कुछ करें कि एक इंसान में दूसरे इंसान की छवि मिले, अर्थात् हर इंसान भगवान की रचना है, इसलिए हर कोई सबसे पहले एक ही इंसान सूत्र में बंधा हुआ है, उसके बाद उसका धर्म, उसकी जाति वगेरह आते हैं। जिस तरह से होली में सब रंग एक साथ मिल कर एक रंग बन जाते हैं, उसी तरह हर इंसान को भी सिर्फ़ इंसान बने रहना चाहिए। सजीव सारथी का लिखा दूसरा गीत है "बेख़ुद" जिसे गाया है लन्दन में बसे देसी कलाकार बिस्वजीत नन्दा और सुप्रसिद्ध गायिका हेमा सरदेसाई ने और इसे कृष्ण राज ने स्वरबद्ध किया है। "बेख़ुद वेख़ुद सारा आलम" एक आधुनिक शैली का गीत है जिसमें रॉक फ़्लेवर भी है, बॉलीवूड संगीत की मस्ती भी, और हेमा सरदेसाई की वही "आवारा भँवरे" वाली चुलबुली अंदाज़ भी है। और अंगूठी का नगीना है बिस्वजीत के अरबी शैली में आलाप। इस गीत को सुनते हुए हम इसके साथ कनेक्ट हो जाते हैं और गीत ख़त्म होने पर दोबारा सुनने का मन करता है, यहाँ तक कि लूप में सुनते ही रहने का मन होता है।

अब आते हैं फ़िल्म संगीत पर। मार्च का महीना शुरु हुआ ’कमांडो 2’ के प्रदर्शन से। इस फ़िल्म के कुल सात गीतों में केवल तीन मूल गीत हैं। इसकी प्रीकुएल फ़िल्म ’कमांडो’ में लोक और राग आधारित गीत थे, लेकिन ’कमांडो’ में शहरी रंग साफ़ झलकती है। संगीतकार प्रीतम के 2007 की मशहूर फ़िल्म ’भूल भूलैया’ के हिट गीत "हरे कृष्णा हरे राम" को गौरव-रिशिन ने ’कमांडो 2’ के लिए रीक्रिएट किया है। अरमान मलिक, रितिका और रफ़्तार की आवाज़ें होने के बावजूद इस गीत का स्तर मूल गीत के आसपास भी नहीं है। ऐल्बम के अगले तीन गीतों के संगीतकार हैं मन्नन शाह। कुमार और आतिश कापड़िया ने बोल लिखे जैं। अरमान मलिक की आवाज़ में "तेरे दिल में क्या है" एक नर्म रॉक-पॉप शैली का रोमान्टिक गीत है। लाइव 16-पीस ऑरकेस्ट्रा द्वारा स्ट्रिंग् सेक्शन का प्रयोग इस गीत की ख़ासियत है। इसी गीत का एक निरर्थक ’क्लब मिक्स’ संस्करण भी है। "बुल्लेया" के गायक अमित मिश्रा की आवाज़ में "सीधा साधा दिल मेरा कम है तेरा ज़्यादा" भी एक रॉक आधारित रचना है जिसमें दिलचस्प प्रधान-गौण स्तर परिवर्तन हैं। अमित मिश्रा की रॉक अंदाज़ में प्रबल गायकी ने गीत को न्याय दिलाया है। इसी गीत के अन्य संस्करण में जुबिन नौटियाल की नर्मो-नाज़ुक गायकी उतना असरदार नहीं बन सका। ’कमांडो 2’ फ़िल्म के शीर्षक गीत के दो संस्करण हैं - हिन्दी और अंग्रेज़ी। दोनों संसकरण अदिति सिंह शर्मा ने गाया है। उनकी सशक्त गायकी से गीत का मक़्सद हासिल हो गया है, लेकिन फ़िल्म के बाहर इस गीत की कोई अहमियत नहीं है। कुल मिलाकर ’कमांडो 2’ का संगीत चार्टबस्टर बनने लायक नहीं है। मन्नन शाह को अपनी अगली फ़िल्म में इससे बेहतर प्रदर्शन का प्रयास करना चाहिए।

3 मार्च के दिन एक और फ़िल्म प्रदर्शित हुई - ’जीना इसी का नाम है’। पाँच संगीतकार वाले इस फ़िल्म में कुल सात गीत हैं। फ़िल्म का शीर्षक गीत केके की आवाज़ में है। दीपक अगरवाल के लिखे व स्वरबद्ध किए इस गीत को सुन कर शैलेन्द्र के लिखे इसी मुखड़े के गीत की याद आ गई। निस्संदेह यह गीत लिखते समय दीपक अगरवाल के उपर भी शैलेन्द्र के लिखे गीत की वजह से एक तनाव बनी होगी। "दर्द में कोई मुस्कुरा कर रहे, और कहे हवा हवा है ज़िन्दगी का खेल, वक़्त का है क्या आज है या है कल, दिन गुज़र भी जाएगा तू रखना ताल में, इतनी भी फ़िकर तू कर ना इस क़दर, दम है बहुत अभी जो तेरे पास है, जो हुआ हुआ तू रुक ना हार कर, बस यही तेरा इम्तिहान है, जीना इसी का नाम है, जीना इसी का नाम है..." - केके की उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में यह ठहराव से भरे गीत को सुनते हुए हम इससे जैसे जुड़ जाते हैं। ऐल्बम का दूसरा गीत है ऐश किंग् और शिल्पा राव का गाया "क़ुबूल है" जिसे लिखा है आशिष पंडित ने और स्वरबद्ध किया है विशु मुखर्जी ने। तेज़ जैज़ शैली पर आधारित इस पेप्पी गीत में वो सब ख़ूबियाँ हैं जो आपको झूमने पर मजबूर कर देती है। माउथ ऑरगन का सुंदर प्रयोग अन्तरालों में सुनाई देती है। अंग्रेज़ी शब्दों के हास्यास्पद प्रयोग ने गीत को और भी मज़ेदार बना दिया है। तीसरा गीत है "मुझको तेरे इश्क़ में भिगा दे" (गीतकार कुँवर जुनेजा, संगीतकार हैरी आनन्द) जिसे अंकित तिवारी ने फिर से अपने उसी दिलकश अंदाज़ में गा कर सिद्ध कर दिया है कि इस दौर के वो अग्रणी गायकों में से एक है। और निस्संदेह यह गीत इस साल के श्रेष्ठ रोमान्टिक गीतों में चुना जाएगा। अन्तरालों में रॉक संगीत गीत में विविधता लाती है। सिद्धांत माधव के संगीत में कुंवर जुनेजा का ही लिखा स्वाति शर्मा का गाया गीत "सोचती हूँ आसमाँ का रंग मैं बदल दूँ" मूड को आगे बढ़ाता है। ओंकार मिन्हास के संगीत में इस फ़िल्म में दो गीत हैं; पहला गीत है आकृति का गाया "लट्टू" एक बच्चों वाला गीत जो "अक्कड़ बक्कड़ बॉम्बे बो" से शुरु होता है और पूरे गीत में तरह तरह के बच्चों वाले जुमले शामिल है। पर अफ़सोस की बात है कि गीत केन्द्रित है "लट्टू भी पी के टल्ली हुआ है" भाव पर। बच्चों वाले गीत में "टल्ली" होने जैसे शब्द समाज को क्या संदेश दे रहा है, सोचने वाली बात है। महेश शर्मा की यह गीत रचना है। ऐल्बम का अन्तिम गीत है "कागज़ सी है ज़िन्दगी" जो ऐल्बम के शीर्षक गीत का ही विस्तार है। ओंकार मिनहास के संगीत में फ़तेह शेर्गिल का लिखा ओंकार मिनहास, रानी हज़ारिका और यूवी का गाया यह गीत दार्शनिक है और यूवी की आवाज़ में जो दर्द है वह इस कम्पोज़िशन को बेहतर बनाती है। लेकिन "गूगल पे ढूंढ़ेगा तुझको ज़माना" जैसे बोल गीत को दर्शन से हास्य की तरफ़ ले जाता है और गीत के मूड और उद्येश्य को ख़तम कर देता है। इस गीत का एक धीमा संस्करण है जिसे नज़ीम के अली ने गाया है जो ज़्यादा अर्थपूर्ण और संजीदा है। कुल मिला कर इस ऐल्बम के गाने बहुत ज़्यादा काबिल-ए-तारीफ़ न होते हुए भी अपने नएपन की वजह से सुनने लायक हैं।


मार्च की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही ’बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ जो 10 तारीख़ को प्रदर्शित हुई। वरुण धवन - आलिआ भट्ट की हिट जोड़ी की इस फ़िल्म में इन दोनों की केमिस्ट्री और भी ज़्यादा निखर कर सामने आई। इससे पहले वरुण-आलिआ की ’हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया’ हिट रही और उसके गाने भी सुपरहिट रहे जैसे कि "सैटरडे सैटरडे", "लकी तू लकी मी", "मैं तैनु समझावाँ कि", "इमोशनल फ़ूल" आदि। अब ’बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ का गीत-संगीत भी मज़ेदार है। ऐल्बम का पहला गीत है "जो भिड़ा तेरे नैनों से टांका तो आशिक़ सरेन्डर हुआ"। संगीतकार-गायक अमाल मलिक और गायिका श्रेया घोषाल की मस्ती भरी आवाज़ों ने इस कैची थिरकते गीत को युवाओं के होठों तक पहुँचा ही दिया। वरिष्ठ गीतकार शब्बीर अहमद के मस्ती भरे बोलों का भी उतना ही योगदान है। इस गीत में 90 के दशक के गोविन्दा शैली के गीतों की झलक मिलती है। बरसों बाद इस तरह का यह गीत एक ताज़े हवा के झोंके की तरह आया। दूसरा गीत है "रोके ना रुके नैना"। अमाल के संगीत और कुमार के बोलों से सजा अरिजीत सिंह की आवाज़ में यह गीत बेहद ख़ूबसूरत है और भारतीय पारम्परिक साज़ों जैसे कि सारंगी के प्रयोग से संगीत-संयोजन बहुत सुन्दर बन पड़ा है। स्तर की बात करें तो निस्संदेह यह इस फ़िल्म का श्रेष्ठ गीत है। तीसरे गीत के रूप में गीतकार-संगीतकार-गायक अखिल सचदेवा का "हमसफ़र" एक प्रेम कथागीत है। संगीत से ज़्यादा बोलों पर ज़ोर होने की वजह से गीत अर्थपूर्ण बन पड़ा है। अखिल के साथ मनशील गुजराल ने भी आलापों में अपनी आवाज़ मिलाई है। फ़िल्म का शीर्षक गीत "बद्री की दुल्हनिया" लोक शैली में कम्पोज़ किया हुआ एक होली गीत है। तनिश्क बागची द्वारा स्वरबद्ध और शब्बीर अहमद के बोलों से सजा यह गीत यू.पी. के मशहूर लोकगीत "काहे को जिया ललचाये गई रे मदमाती चिड़ैया" की धुन पर आधारित है। इसी नौटंकी धुन पर ’तीसरी क़सम’ का गीत "चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे" भी आधारित था। "तुझको बना कर के ले जाएँगे बद्री की दुल्हनिया" में आवाज़ें हैं देव नेगी, नेहा कक्कर, मोनाली ठाकुर, इक्का सिंह, रजनीगंधा शेखावत और साथियों की। ऐल्बम का समापन धमाके के साथ होता है "तम्मा तम्मा अगेन" से जो बप्पी लाहिड़ी और अनुराधा पौडवाल के गाए मशहूर गीत "तम्मा तम्मा लोगे" का रीमिक्स वर्ज़न है। इंदीवर के बोलों को ही रखा गया है और बप्पी-अनुराधा की आवाज़ें भी बरकरार हैं। बस बीच बीच में बादशाह का रैप और सोने पे सुहागा अमीन सायानी के ’बिनाका गीतमाला’ से कुछ कुछ लाइनें ली गई हैं। कुल मिला कर ’बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ एक दिलचस्प ऐल्बम है।

17 मार्च को तीन फ़िल्में रिलीज़ हुईं। पहली फ़िल्म ’आ गया हीरो’। गोविन्दा द्वारा निर्मित व अभिनीत यह फ़िल्म बुरी तरह पिटी और इसका गीत-संगीत भी बेकार है। मीत ब्रदर्स, शमिर, विक्की-हार्दिक और अर्घ्य बनर्जी जैसे संगीतकारों के होते हुए भी एक भी गीत क़ायदे का नहीं बना है। फ़िल्म के सातों गीत ("आ गया हीरो", "पुलिस वाला डॉन", "यूपी की डॉन", "लोहे दा लिवर", "डर्टी फ़्लर्टी", "लो होइगवा", "माहिया") में से कोई भी गीत चर्चायोग्य नहीं है। दूसरी फ़िल्म है ’ट्रैप्ड’ जो एक थ्रिलर है। थ्रिलर फ़िल्म में गीतों की गुंजाइश कम होती है। इस फ़िल्म में दो गीत हैं। संगीतकार अलोकानन्द दासगुप्ता और गीतकार राजेश्वरी दासगुप्ता ने दो गीत और दो थीम्स की रचना की है। तेजस मेनन की आवाज़ में "धीमी" एक प्रेम गीत है जिसमें एक अच्छी लगने वाली बात है। फ़िल्मांकन में अपने दफ़्तर में अपने क्रश के उपर जासूसी करने, मरीन ड्राइव में टैक्सी में सैर करने, देर रात के पावभाजी, ये सब हैं इस गीत में। दूसरा गीत है "है तू" जिसमें अलग हट कर आवाज़ है गौरी जयकुमार की। फ़िल्म का विषय अलग हट के होने की वजह से बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाब नहीं रही और इस वजह से ये गीत भी अनसुने ही रह गए। 17 मार्च की तीसरी फ़िल्म रही ’मशीन’। अब्बास-मस्तान निर्मित व निर्देशित इस फ़िल्म में अब्बास साहब के पुत्र मुस्तफ़ा बर्मावाला को लौंच किया गया है। फ़िल्म के संगीतकार हैं तनिश्क बागची और डॉ. ज़ेउस जिन्होंने चार गीतों की धुनें बनाई है। पहला गीत आराफ़ात महमूद का लिखा हुआ यासिर देसाई और साशा तिरुपति का गाया हुआ है "इतना तुम्हें चाहा है ना सोच सकोगी" जिसकी पहली लाइन हू-ब-हू "आख़िर तुम्हें आना है ज़रा देर लगेगी" (यलगार) गीत जैसी है। इस पहली लाइन के अलावा दोनों गीतों में कोई समानता नहीं है। नर्मोनाज़ुक रोमान्टिक गीतों की श्रेणी में यह गीत है। यासिर की दिलकश आवाज़ में हिन्दी के बोल हैं जबकि साशा अंग्रेज़ी पंक्तियाँ गाती हैं। कुल मिलाकर एक कर्णप्रिय रचना। दूसरा गीत है "एक चतुर नार" जो फ़िल्म ’पड़ोसन’ के गीत से प्रेरित है। नकश अज़ीज़ और साशा तिरुपति की आवाज़ों में इसके बोलों को निकेत पांडे ने लिखे हैं। इक्का के रैप से सजा यह गीत बस एक मस्ती भरे गीत से ज़्यादा और कुछ नहीं है। जसमीन सैन्डलस और राजवीर सिंह की आवाज़ों में "ब्रेक ऐन फ़ेल" डॉ. ज़ेउस की संगीत रचना है जो जसमीन के फ़िल्म ’किक’ के हिट गीत "यार ना मिले तो मरजावाँ" से मिलती-जुलती है और इस हिन्दी-पंजाबी गीत में कोई नई या उल्लेखनीय बात नज़र नहीं आई। तनिश्क-आराफ़ात-यासिर की तिकड़ी का "तू ही तो मेरा" जैसे "इतना तुम्हें चाहा है" का ही विस्तार है। इस गीत का संगीत संयोजन आकर्षक है। फ़िल्म का अन्तिम गीत है "तेरा जुनून है सर पे चढ़ा" जो जुबिन नौटियाल की आवाज़ में है। जुबिन नौटियाल पिछले कुछ समय से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे हैं। कर्णप्रिय आवाज़ के धनी जुबिन ने इस गीत को भी अच्छा अंजाम दिया है। आराफ़ात के लिखे इस गीत के बोलों में मोहम्मद इरफ़ान का भी योगदान है। इस फ़िल्म में "तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त" गीत को रिक्रीएट किया गया है। विजु शाह के मूल संगीत को तनिश्क बागची ने मिक्स किया है जबकि आनन्द बक्शी के मूल बोलों पर शब्बीर अहमद ने नए बोल लिखे हैं। मूल गीत में उदित नारायण और कविता कृष्णमूर्ति की आवाज़ें थीं, इस संस्करण में उदित नारायण और नेहा कक्कर की आवाज़ें हैं। इस तरह से ’मशीन’ में तीन प्रेम गीत और कुछ डान्स नंबर्स के होने के बावजूद इस ऐल्बम में जैसे पंच की कमी है। कुल मिला कर ऐल्बम बुरा नहीं है पर बहुत ज़्यादा दूर तक जाने की संभावना कम है।

24 मार्च को तीन फ़िल्में प्रदर्शित हुईं - ’फिल्लौरी’, ’भँवरे’, और ’अनारकली ऑफ़ आरा’। अंशई लाल की पहली निर्देशित फ़िल्म ’फिल्लौरी’ में लोगों की अनुष्का शर्मा के एक भूत के रूप में देखने की उत्सुक्ता के साथ-साथ फ़िल्म के ताज़े गीत-संगीत से भी आशाएँ रही। नवोदित संगीतकार शास्वत सचदेव और गायक रोमी ने इस फ़िल्म में "दम दम" और "साहिबा" जैसे गीतों में जादू रचए। इन दोनों गीतों में लोकशैली का प्रभाव है। रोमी ने दोनों गीतों में अपनी दिलकश आवाज़ से रूह डाल दी है और गीतों के ख़त्म हो जाने के बाद भी उनकी आवाज़ और सुर जैसे कानों में गूंजते रहते हैं। ये दोनों गीत अन्विता दत्त गुप्तन ने लिखा है और इनमें उनकी परिपक्वता साफ़ दिखाई देती है, ख़ास कर जब वो लिखती हैं "तेरे बिन साँस काँच सी काटे रे"। "दम दम" में रोमी के साथ आवाज़ विवेक हरिहरन की है और "साहिबा" में उनका साथ दिया है पावनी पांडे ने। "दम दम" का एक पंजाबी संस्करण भी है जिसके पंजाबी बोल शेली ने लिखे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि दिलजीत दोसंझ, जिन पर ये गीत फ़िल्माये गए हैं, वो एक गायक होने के बावजूद इन गीतों में उनकी आवाज़ नहीं ली गई है। हालाँकि रोमी भी एक अच्छे गायक हैं, लेकिन फिर भी एक खटका सा लगता है। वैसे "दम दम" के एक और संस्करण में दिलजीत दोसंझ की आवाज़ है, लेकिन यह गीत फ़िल्म की कहानी में नहीं है। जसलीन कौर रॉयल ने इस फ़िल्म में दो गीत कम्पोज़ किए हैं। उन्हीं की आवाज़ में नीरज राजावत के लिखे "दिल शगना दा" एक मीठी लोरी से कम नहीं है। हाँ, यह गीत एक नवविवाहित दुल्हन के दिल की पुकार है जिसमें बेचैनी भी है और उत्तेजना भी। जसलीन द्वारा स्वरबद्ध "व्हाट्स अप" फ़िल्म के तीन डान्स नंबरों में से एक है। मिका की आवाज़ में यह पंजाबी थिरकता गीत बारात का गीत है, इसलिए कोई शक़ नहीं कि इसे सुनते हुए आप भी थिरक उठेंगे। लोक शैली में डान्स नंबर "बजाके तुम्बा" भी एक भंगड़ा/गिद्दा शैली का गीत है जिसमें शास्वत सचदेव के रेंज का पता चलता है जिन्होंने इस ऐल्बम में विविधता ले आए हैं - संजीदे गीत, लोक शैली का डान्स नंबर, आइटम गीत। दिलजीत दोसंझ, नकश अज़ीज़, शिल्पि पॉल और अनुष्का शर्मा की आवाज़ों में "नॉटी बिल्लो" भी पंजाबी रीदम का गीत है जिसमें कोई अलग हट के बत नहीं है। शोर-शराबे के अलावा इस गीत में कुछ नहीं है। ’फिल्लौरी’ के ऐल्बम में विविधता होते हुए भी हर गीत पंजाबी शैली का होने की वजह से ग़ैर-पंजाबी ऑडिएन्स इसे कैसे ग्रहण करेगी कह नहीं सकते। ’भँवरे’ फ़िल्म के गाने भी पंजाबी शैली के हैं। सौरभ चटर्जी और गौरव रत्नाकर के संगीत में इस फ़िल्म के गीत "पेन चोड़" में दोहरे अर्थ के बोलों की वजह से इसे कचरे के डब्बे में डाल दिया जा सकता है। 

स्वरा भास्कर अभिनीत ’अनारकली ऑफ़ आरा’ एक कामोत्तेजक गीतों की गायिका की कहानी है। इसलिए ज़ाहिर सी बात है कि फ़िल्म के संगीत में लोक शैली का रंग है और साथ ही गीतों के बोल ऐसे हैं जो परिवार के साथ मिल बैठ कर नहीं सुने जा सकते। रोहित शर्मा स्वरबद्ध इस फ़िल्म के गीतों में दोहरे अर्थ की पंक्तियाँ  भर भर कर डाली गई हैं। स्वाति शर्मा, पावनी पांडे और इन्दु सोनाली के गाए इस तरह के गीतों के अलावा एक स्तरीय गीत भी है रेखा भारद्वाज की आवाज़ में जिसमें शास्त्रीय संगीत की छटा बिखरती है। यह गीत है "बदनाम जिया दे गारी" जिसमें उस नर्तकी के दर्द की वर्णना की गई है। कम्पोज़िशन मेलडी प्रधान होते हुए दर्दीला है। उस पर वायलिन, सितार, सारंगी और तबले के संगीत ने इसे एक आकर्षक गीत बना दिया है। सोनू निगम की दिलकश आवाज़ में "मिट्टी जिस्म की गीली हो चली, ख़ुशबू इसकी रूह तक घुली, इक लम्हा बनके आया है, सब ज़ख़मों का वैध, मन बेक़ैद हुआ" भी एक सुन्दर रचना है। कुल मिला कर इस फ़िल्म के गाने ऐसे हैं कि फ़िल्म की कहानी के हिसाब से अनुकूल हैं पर फ़िल्म के बाहर इन्हें सुनना शायद कर्णप्रिय न लगे। 31 मार्च को तापसी पन्नु, अक्षय कुमार, मनोज बाजपयी अभिनीत फ़िल्म ’नाम शबाना’ प्रदर्शित हुई। निर्मल पाण्डे ’बेबी’ के बाद लेकर आए ’नाम शबाना’। ’बेबी’ में ग़लत जगह पर फ़्लैशबैक सॉंग् के बाद ’नाम शबाना’ में चार गीत लेकर आए जिनका फ़िल्म की कहानी से कोई वास्ता नहीं। ये सारी बातें माफ़ की जा सकती थीं अगर ये चार गीत कमाल के होते। पर अफ़सोस कि बेहद साधारण क़िस्म के ये गीत ऐल्बम और फ़िल्म की शान नहीं बढ़ा सके। चार गीतों में तीन गीत संगीतकार रोचक कोहली और गीतकार मनोज मुन्तशिर के हैं जबकि चौथा गीत है मीत ब्रदर्स और कुमार का। पहला गीत "रोज़ाना" में श्रेया घोषाल की आवाज़ मधुर है पर रोचक ने वही घिसे पिटे धुन में इसे पिरो चर सारी रोचकता ख़त्म कर दी है। गीत समाप्त होने पर यह दिमाग़ से निकल जाता है, आपके साथ नहीं रह पाता। सुनिधि चौहान की आवाज़ में ऐल्बम का दूसरा गीत "ज़िन्दा" में भी वही "रोज़ाना" वाली बात। इससे तो ’इक़बाल’ फ़िल्म का "आशाएँ खिले दिल की" एक बार और सुन लेना बेहतर है। पुराने गीतों की रीमिक्स की नवोदित परम्परा को आगे बढ़ाते हुए इस ऐल्बम का तीसरा गीत है "ज़ुबि ज़ुबि ज़ुब्बी"। संगीतकार बप्पी लाहिड़ी - गायिका अलिशा चिनॉय के मूल गीत का रीमेक किया रोचक कोहली और सुकृति कक्कर ने। कहना ज़रूरी है कि सुकृति की आवाज़ में अलिशा वाली मादकता के न होने से इस गीत से वह चमक ग़ायब है। ऐल्बम का समापन मीत ब्रदर्स और जसमीन सैन्डलस के गाए "बेबी बेशरम" से होता है। हाल ही में जसमीन ने बिल्कुल ऐसा ही एक गीत फ़िल्म ’मशीन’ में गाया था जिसके बोल थे "ब्रेक एन फ़ेल", जो ’किक’ फ़िल्म के "मुझे यार ना मिले तो मर जावाँ" से मिलता जुलता है। यानी कि नए पैकेट में वही पुरानी दाल। इन चारों में से कोई भी गीत ऐसा नहीं जो फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाए। कुल मिलाकर भुला देने वाला ऐल्बम!

31 मार्च को ही सलीम-सुलेमान के संगीत में फ़िल्म प्रदर्शित हुई ’पूर्णा’ जो एक बायोपिक है सबसे कम उम्र में माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली मलवत पूर्णा की। इस फ़िल्म के गीतों की सबसे अच्छी बात यह है कि कोई भी रीमिक्स संस्करण नहीं है और ऐल्बम में कुल तीन गीत हैं। प्रेरणादायक फ़िल्म होने की वजह से एक गीत "आशाएँ खिले दिल की" जैसा होना लाज़मी है। अरिजीत सिंह की आवाज़ में "कुछ पर्बत हिलाएँ तो बात है" ऐसा ही एक गीत है जिसे अमिताभ भट्टाचार्य के बोलों ने सजाया है। पता नहीं क्यों गीत सुनते हुए के.के की याद आ गई। इसी गीत का एक और संस्करण है सलीम मर्चैन्ट की आवाज़ में। सलीम ने इसमें उम्दा गायकी का परिचय दिया है। पार्श्व में नर्म गीटार की ध्वनियों से गीत और सुन्दर बन पड़ा है। राज पंडित और विशाल ददलानी की आवाज़ों में "है पूरी क़ायनात तुझमें कहीं" में शास्त्रीय संगीत की छाया मिलती है। सॉफ़्ट रॉक के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्यों के फ़्युज़न से और राज पंडित के शास्त्रीय अंदाज़ में गायकी ने इसे एक ख़ूबसूरत जामा पहनाया है। विशाल ददलानी के सशक्त सहयोग ने भी गीत में चार चाँद लगाया है। ऐल्बम का अन्तिम गीत है "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए"। इस कालजयी रचना को फिर से गाना साहस का काम है और अरिजीत सिंह ने इस दर्द भरे गीत को बेहद सुन्दरता से गाया है। सलीम-सुलेमान ने इस गीत का भार अरिजीत पर डाल कर ग़लती नहीं की और अरिजीत ने भी अपना ज़िम्मा निभाया। अपने सीधे सच्चे शास्त्रीय हरकतों से अरिजीत ने इस दर्दीले गीत में जान फूँक दी है।

अप्रैल का महीना शुरु हुआ ’लाली की शादी में लड्डू में दीवाना’ फ़िल्म से। बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना मुहावरे से प्रेरित इस शीर्षक वाले फ़िल्म की कहानी का पार्श्व शादी का है। इसलिए इस फ़िल्म के गीतों के साथ कई तरह के प्रयोग करने का मौक़ा था। फ़िल्म के तीन संगीतकार विपिन पतवा, रेवन्त सिद्धार्थ और अर्को ने इसी की कोशिश की है। सात गीतों वाले ऐल्बम का पहला गीत फ़िल्म का शीर्षक गीत है सुखविन्दर सिंह और साथियों की आवाज़ों में। फ़िल्म की मूड के मुताबिक इस गीत को लिखा है फ़िल्म के निर्देशक मनीष हरिशंकर ने। पंजाबी प्रभाव वाले इस गीत को सुखविन्दर सिंह के श्रेष्ठ गीतों में नहीं गिना जा सकता। के.के की सशक्त आवाज़ में "बेज़ुबाँ" बेहतर नग़मा है। गीटार के जोशिले पीसेस और के.के की दमदार आवाज़ ने गीत में जोश भर दिया है। अंकित तिवारी और अर्को की आवाज़ों में "रिश्ता" एक गंभीर रोमान्टिक गीत है और अंकित तिवारी तो अब पैशन वाले गीतों के राजा बन ही चुके हैं। इस गीत में भी उनका पैशन छलक पड़ा है। "रोग जाने" के दो संस्करण हैं। पहले में पलक मुछाल - राहत फ़तेह अली ख़ान, तो दूसरे में पलक मुछाल - मोहित लालवानी। सुन्दर मुखड़ा और ढेर सारी भारतीय वाद्यों से गीत कर्णप्रिय बना है लेकिन अन्तरों तक पहुँचते पहुँचते हम इसके आकर्षण से बाहर निकल जाते हैं। पता नहीं पलक क्यों श्रीया की तरह गाने की कोशिशें कर रही हैं! मालिनी अवस्थी की आवाज़ में "मानो या ना मानो" तो जैसे ’चाँदनी’ फ़िल्म की "मैं ससुराल नहीं जाऊँगी" जैसी रचना है, लेकिन ऐसी कुछ ख़ास बात नहीं है जिसके बारे में लिखा जाए। ऐल्बम का आख़िरी नग़मा है मोहम्मद इरफ़ान और विपिन पतवा की आवाज़ों में। "नैनो के पोखर" एक दर्द भरा गीत है। जैसा कि कहा जाता है कि दर्द भरे गीत ज़्यादा मीठे लगते हैं, इस गीत के साथ भी यही बात है। बाँसुरी की तानों से सजा यह गीत एक कर्णप्रिय रचना है। कुल मिला कर यह ऐल्बम बुरा नहीं है, पर ज़्यादा रीकॉल वैल्यु भी नहीं है। 7 अप्रैल को एक और फ़िल्म प्रदर्शित हुई ’ए डेथ इन दि गंज’, जो कोनकोना सेन शर्मा निर्देशित एक फ़ेस्टिवल फ़िल्म है। इस फ़िल्म में कोई गीत नहीं है। 14 अप्रैल को प्रदर्शित होने वाली फ़िल्म ’रिश्तों की साँझ’ हिन्दी और हिमाचली, दो भाषाओं में निर्मित फ़िल्म है। पवित्र चारी और मोहित चौहान की आवाज़ों में गौरव गुलेरिआ के संगीत में "पूछे अम्मा मेरी..." एक दिल को छू लेने वाली रचना है जिसमें है इन्तज़ार का दर्द। मोहित की पहाड़ी आवाज़ में यह हिमाचली लोक शैली का गीत दिल को छू लेता है। संगीतकार गौरव गुलेरिआ भी हिमाचल के धरमशाला के रहने वाले हैं, इसलिए इस गीत के संगीत से उसी मिट्टी की ख़ुशबू आ रही है। इस फ़िल्म के बाक़ी गाने इन्टरनेट पर उपलब्ध ना होने की वजह से हम उन पर चर्चा कर पाने में असमर्थ हैं।


अप्रैल की एक चर्चित फ़िल्म रही ’बेगम जान’। अनु मलिक के संगीत का जलवा एक अन्तराल के बाद सुनने को मिला। कौसर मुनीर के बोलों से सजे इस फ़िल्म के गीत कुछ अलग मिज़ाज के ज़रूर हैं। पहला गीत है आशा भोसले की आवाज़ में "प्रेम में तोहरे ऐसी पड़ी मैं पुराना ज़माना नया हो गया" एक ग़ज़लनुमा नग़मा है। माफ़ी चाहता हूँ पर इसे अगर आशा जी की जगह किसी और से गवाया जाता तो और सुन्दर बन पड़ता। आशा जी को पूरा सम्मान देते हुए कहूँगा कि अब उन्हें फ़िल्मी गीतों से संयास ले लेना चाहिए। कम्पोज़िशन की बात करें तो अनु मलिक ने उम्दा काम किया है "मोह मोह के धागे" की तरह। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि यह गीत 1967 की फ़िल्म ’अनीता’ के लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत में मुकेश के गाए गीत "गोरे गोरे चाँद से मुख पर काली काली आँखें हैं" से प्रेरित है? ख़ैर, "प्रेम में तोहरे" का एक और संस्करण है कविता सेठ की आवाज़ में और उनकी अलग और ख़ास अंदाज़ में। राहत फ़तेह अली ख़ान और सोनू निगम की "आज़ादियाँ" में देश विभाजन का दर्द साफ़ झलक पड़ा है। कौसर मुनीर के असरदार बोल रोंगटे खड़े कर देते हैं। शुरुआत में ढोल और शहनाई की ध्वनियाँ गीत के मूड को स्थापित करती हैं और फिर राहत और सोनू की गायकी तो बस लाजवाब है। कल्पना पटवारी और अल्तमश फ़रीदी का गाया "ओ रे कहारो" एक दर्द भरा गीत है जो कोठों पर काम करने वाली लड़कियों की दुर्दशा सुनाता है। इस गीत में 90 के दशक के फ़िल्मी गीतों की जानी पहचानी शैली और स्वरूप सुनाई देती है। ऐल्बम का अन्तिम गीत एक होली गीत है "होली खेले बृज की हर बाला" श्रीया घोषाल और अनमोल मलिक की आवाज़ों में। शास्त्रीय संगीत आधारित यह नृत्य प्रधान गीत निस्संदेह एक अरसे के बाद आने वाले स्तरीय होली गीतों में से एक है। श्रेया की मधुर आवाज़ और अनमोल के रैप शैली के अन्तरे गीत को मज़ेदार बनाते हैं। कुल मिला कर ’बेगम जान’ के गीत हमें निराश नहीं करते, लेकिन अनु मलिक से हमें उम्मीदें इससे अधिक हैं। 

21 अप्रैल को तीन फ़िल्में प्रदर्शित हुईं। पहली फ़िल्म थी ’नूर’ जिसमें सोनाक्षी सिंहा एक चुलबुली सी लड़की है, जो एक पत्रकार भी है। इस वजह से अमाल मलिक ने पूरी कोशिशें की हैं कि कुछ दिलचस्प गाने इस फ़िल्म के लिए कम्पोज़ करें। बताना ज़रूरी है कि बतौर एकल संगीतकार यह उनकी दूसरी फ़िल्म है। ऐल्बम की शुरुआत अरमान मलिक की ताज़ी आवाज़ में "उफ़ ये नूर" से होती है, जिसमें एक जीवन्त पार्श्व संगीत और बीच बीच में तालियों ने इसे और भी ज़्यादा पेप्पी बना दिया है। दूसरा गीत है "गुलाबी 2.0", जो रफ़ी साहब के गाए "गुलाबी आँखें जो तेरी देखी" गीत का रीमेक है जिसमें कुमार ने अतिरिक्त बोल डाले हैं। अमाल मलिक, तुल्सी कुमार और यश नार्वेकर की मस्ती भरे अंदाज़ ने इस गीत को एक पार्टी गीत की शक्ल दी है। बादशाह का लिखा व स्वरबद्ध किया "मूव योर लक" एक और क्लब नंबर है जिसमें बादशाह के साथ-साथ सोनाक्षी सिंहा और दिलजीत दोसंझ भी स्वर मिलाते हैं। "जिसे कहते प्यार है" भी एक ताज़गी भरा प्रेम गीत है जिसमें नूर को अहसास होता है कि उसे प्यार हो गया है। सुकृति कक्कर की आवाज़ में यह गीत सुकून देता है। अमाल के सादगी भरे इस कम्पोज़िशन में साज़ों से ज़्यादा गायकी पर ज़ोर दिया गया है जिस वजह से इसे सुनना ज़्यादा अच्छा लग रहा है। प्रकृति कक्कर की गायी "कभी कभी यह भी है ज़रूरी" एक उदासी भरा गीत है पर मनोज मुन्तशिर के असरदार बोलों से यह गीत हमें अपनी तरफ़ खींचता है। उचित मात्रा में ऑरकेस्ट्रेशन और परक्युशन और झंकारों के सही उतार-चढ़ाव से गीत और भी ज़्यादा आकर्षक बन पड़ा है। इसमें कोई भी शक़ नहीं कि अमाल मलिक इस दौर के श्रेष्ठ संगीतकार बनने की राह पर चल पड़े हैं। 21 अप्रैल को जारी होने वाली दूसरी फ़िल्म है ’मातृ’ जिसमें संगीतकार हैं पाक़िस्तानी सूफ़ी रॉक बैण्ड - फ़्युज़ोन। फ़िल्म का एकमात्र गीत "ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी" राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में है। फ़िल्म की कहानी के मुताबिक एस. के. ख़लिश का लिखा यह गीत एक माँ के संघर्ष की कहानी बयाँ करती है। कुल 7 मिनट 45 सेकन्ड्स अवधि का यह गीत कुछ समय के बाद उक्ता देने वाला जैसा लगता है। 21 अप्रैल को प्रदर्शित होने वाली तीसरी फ़िल्म थी ’अजब सिंह की गजब कहानी’ जो एक अपाहिज IRS अफ़सर के संघर्ष की कहानी पर बनी फ़िल्म है। फ़िल्म के मुख्य संगीतकार हैं वेद शर्मा, और कुछ और संगीतकारों ने भी एक एक गीत का योगदान दिया है जैसे कि तन्मय पाहवा, यू. वी. निरंजन और पृथ्वी राज सिंहदेव। ऐल्बम में कुल छह गीत हैं जो फ़िल्म की कहानी में फ़िट होते हैं। पहले वेद शर्मा के गीतों की बात करते हैं। उन्हीं का लिखा कृष्णा बेउरा का गाया "रहमनिया मन ही मन रे थम जा तू, विपदा भले ही लाखों आए रे" ऐल्बम का पहला गीत है। हल्की रॉक शैली की छाया तले यह सूफ़ीयाना गीत सुनने में अच्छा लगता है। आशावादी ख़यालों से भरा यह गीत जीवन में हार न मानने की सीख देता है। वेद शर्मा का लिखा व स्वरबद्ध किया दूसरा गीत है शबाब साबरी का गाया "है प्रचण्ड आग आज यह ज़रा तू जान ले" तेज़ रफ़्तार वाला एक और आशावादी जोशिला गीत है। गीत के मूड को देखते हुए इसका ऑरकेस्ट्रेशन भी इसके अनुसार किया गया है। वेद शर्मा का लिखा, स्वरबद्ध किया और उन्हीं का गाया गीत है "ख़ुदा तू ये सुन ले, कहते हालात जो..."। पिछले दो गीतों के बाद यह गीत ऑरकेस्ट्रेशन की दृष्टि से नर्मोनाज़ुक है, लेकिन भाव कम-ज़्यादा वही है। वेद शर्मा के संगीत में अनिन्द्य चक्रवर्ती और वेद शर्मा का लिखा तथा इन दोनों की आवाज़ों में "मतलबी दुनिया बड़ी... शुनले शोन नोय्तो फ़ोट" एक हिन्दी-बांग्ला गीत है जिसका संगीत हार्ड रॉक शैली में निबद्ध है। अनिन्द्य ने बांग्ला बोलों को लिखा व गाया है जबकि वेद ने हिन्दी वाली पंक्तियाँ संभाली है। दो भाषाओं के समावेश से गीत में एक अनोखापन आया है। इस ऐल्बम का अगला गीत है तन्मय पाहवा के संगीत में, संजीव चतुर्वेदी का लिखा व तरन्नुम मलिक का गाया "मेरे ब्लाउज़ का बटन खुला रह गया"। मस्ती भरे अंदाज़ की वजह से गीत लोकप्रिय हुआ है लेकिन इसके बोलों पर ग़ौर करने पर इसे सुनने का भी मन नहीं होता। हमारे फ़िल्मी गीत और कितना नीचे गिर सकते हैं यह भविष्य ही बताएगी। यू. वी. निरंजन के संगीत में राजेश वर्मा का लिखा रोहित अखौरी का गाया "आँख बन्द करके लोगों की ना सुन के, आसमाँ पे आज उड़ा है एक परिन्दा" रोहित की कमाल ख़ान जैसी आवाज़ की वजह से आकर्षक बन पड़ा है, पर गीत का भाव फिर एक बार आशावादी हौसला अफ़ज़ाई करने वाला है। ऐल्बम का अन्तिम गीत सन्त कबीर की एक भक्ति रचना है जिसे स्वरबद्ध किया व गाया है पृथ्वी राज सिंहदेव ने। बस हारमोनिअम और तबले ्के सुरों और तालों में निबद्ध यह भजन "ना लेना ना देना मगन रहना, भजन करना रे भजन करना" निस्संदेह इस ऐलब्म की श्रेष्ठ रचना है।

अप्रैल माह की अन्तिम फ़िल्म आई ’बाहूबली 2’। 28 अप्रैल को प्रदर्शित इस महत्वाकांक्षी फ़िल्म का संगीत तैयार किया एम. एम. क्रीम ने। अक्सर यह देखा गया है कि दक्षिण के गीतों के हिन्दी संस्करण हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाते। लेकिन इस फ़िल्म के संगीत के साथ एम. एम. क्रीम ने जो प्रयोग किए हैं, उससे भारत के हर क्षेत्र के श्रोताओं को अपनी तरफ़ खींचने का प्रबन्ध हुआ है। मनोज मुन्तशिर के हिन्दी बोलों ने भी दक्षिणी संगीत को उचित हिन्दी जामा पहनाया है। पाँच गीतों वाले इस ऐल्बम का पहला गीत है फ़िल्म का शीर्षक गीत "जियो रे बाहूबली"। दलेर मेहन्दी, संजीव चिम्मल्गी और राम्या बेहरा का गाया यह गीत ऐल्बम का मूड सेट कर देता है। एम. एम. क्रीम वायलिन के लिए जाने जाते हैं और इस गीत में भी वायलिन का अद्भुत प्रयोग सुनाई देता है। "वीरों के वीर आ" एक रोमान्टिक गीत है जिसमें अदिति पॉल और दीपू की आवाज़ों के बीच बीच में परक्युशन का सुन्दर समन्वय है। एक अरसे के बाद मधुश्री की मधुर आवाज़ में "कान्हा सो जा ज़रा" को सुनना एक सुखद अनुभूति है। शास्त्रीय शैली में स्वरबद्ध यह गतिमय लोरी लोरी से ज़्यादा होली गीत प्रतीत होता है, लेकिन बाँसुरी, वीणा और मृदंग की धुनों से सुसज्जित यह गीत इतना कर्णप्रिय है कि गीत के शुरु से ही मन मोह लेता है। कोरस का भी सुन्दर योगदान रहा इस गीत में। कैलाश खेर की खुली हुई आवाज़ में "जय जयकारा" को सुनना आनन्ददायक है। इस गीत की ध्वनियाँ वाकई मनमोहक है। शीर्षक गीत ही की तरह यह गीत भी अचानक ख़त्म हो जाता है। ऐल्बम का अन्तिम गीत है "शिवम" को गाया है एम. एम. क्रीम के साहबज़ादे काल भैरव ने। धीमी लय वाली यह रचना गीत कम और मंत्रोच्चारण ज़्यादा प्रतीत होता है। कुल मिला कर ’बाहूबली’ का गीत-संगीत आकर्षक है। मनोज मुन्तशिर और एम. एम. क्रीम को थ्री चियर्स!


तो मित्रों, यह थी मार्च और अप्रैल के महीनों में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों के गीत-संगीत की समीक्षा। आशा है आपको पसन्द आई होगी।


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!





शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

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