Skip to main content

ध्रुपद शैली : एक परिचय : SWARGOSHTHI – 203 : DHRUPAD AALAP



स्वरगोष्ठी – 203 में आज

भारतीय संगीत शैली परिचय श्रृंखला – 1

राग श्री में ध्रुपद का आलाप




‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर सभी संगीत-प्रेमियों का मैं कृष्णमोहन मिश्र एक नई लघु श्रृंखला मे हार्दिक स्वागत करता हूँ। हमारे अनेक पाठकों और श्रोताओं ने आग्रह किया है कि वर्तमान में भारतीय संगीत की जो शैलियाँ मौजूद हैं, उनका परिचय ‘स्वरगोष्ठी’ पर प्रस्तुत किया जाए। आपके आग्रह को स्वीकार करते हुए आज से हम यह लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं, जिसका शीर्षक है- ‘भारतीय संगीत शैली परिचय श्रृंखला’। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम परम्परागत रूप से विकसित कुछ संगीत शैलियों का परिचय प्रस्तुत करेंगे। भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। इस संगीत परम्परा में जड़ता नहीं है। यह तो गोमुख से निरन्तर निकलने वाली वह पवित्र धारा है जिसके मार्ग में अनेक धाराएँ मिलती है और इस मुख्य धारा में विलीन हो जाती हैं। वैदिक युग से लेकर वर्तमान तक इस संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें से जो भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धांतों के अनुकूल धारा थी उसे स्वीकृति मिली और वह आज भी एक संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। भारतीय संगीत की सबसे प्राचीन और वर्तमान में उपलब्ध संगीत शैली है, ध्रुपद अथवा ध्रुवपद। आज हम धूपद शैली पर एक दृष्टिपात कर रहे हैं। श्रृंखला के पहले अंक में हम आपको राग श्री में ध्रुपद का आलाप भी सुनवाएँगे। 


ज भारतीय उपमहाद्वीप में संगीत की जितनी भी शैलियाँ प्रचलित हैं, इनका क्रमिक विकास प्राचीन वैदिक संगीत से ही हुआ है। भारतीय संगीत की परम्परा सामवेद से जुड़ी हुई है। वैदिक काल से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक के संगीत का स्वरूप पूर्णतः आध्यात्मिक था और यह देवालयों से जुड़ा हुआ था। मुगल शासनकाल में यह संगीत देवालयों से निकाल कर राज दरबारों तक पहुँचा, जहाँ से इस संगीत की श्रृंगार रस की धारा विकसित हुई। वर्तमान में उत्तर भारत की उपलब्ध पारम्परिक शास्त्रीय शैलियों में सबसे प्राचीन संगीत शैली है, ध्रुवपद अथवा ध्रुपद। प्राचीन ग्रन्थों में प्रबन्ध गीत का उल्लेख है। इन ग्रन्थों में लगभग एक सौ प्रकार के प्रबन्ध गीतों का वर्णन है, जिनमें एक प्रकार ‘ध्रुव’ है। ध्रुपद अथवा ध्रुवपद इसी ‘ध्रुव’ नामक प्रबन्ध गीत शैली का विकसित रूप है। प्राचीन प्रबन्ध गीत को दो भाग में बाँटा जा सकता था- अनिबद्ध और निबद्ध। वर्तमान प्रचलित ध्रुवपद शैली में आलाप का भाग अनिबद्ध गीत और अन्य सभी गीत, जिनमें तालों का प्रयोग किया जा सकता है, निबद्ध गीतों के श्रेणी में आते हैं। आधुनिक ध्रुपद परम्परा का सूत्रपात ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (1486 – 1516) के काल से माना जाता है। उन्हें मध्ययुग की गीत शैली का प्रवर्तक माना जाता है। राजा मानसिंह स्वयं कुशल संगीतज्ञ और मर्मज्ञ थे। प्राचीन शास्त्रों का आधार लेकर उन्होने तत्कालीन प्रचलित संगीत शैली के अनुरूप एक नई संगीत शैली विकसित की। प्रबन्ध संगीत के पद काफी लम्बे-लम्बे हुआ करते थे। राजा मानसिंह तोमर ने इसे संक्षिप्त किया। गीत के साहित्य में दैवी आराधना, आश्रयदाता राजाओ व बादशाहों की प्रशस्ति, पौराणिक आख्यान, प्रकृति वर्णन, सामाजिक उत्सवों आदि की प्रधानता थी। गीतों में ब्रजभाषा का अधिकांश प्रयोग मिलता है। 

उदय भवालकर
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि ध्रुपद का आलाप अनिबद्ध गीत की श्रेणी में आता है। ध्रुपद का आलाप आरम्भ में लयविहीन होता है। राग के निर्धारित स्वरों को ठहराव देते हुए क्रमशः विकसित किया जाता है। आलाप करते समय शब्दो पर नहीं बल्कि स्वरों का महत्त्व होता है और लम्बी मीड़ों का प्रयोग होता है। आरम्भ में लयविहीन आलाप क्रमशः गति पकड़ता जाता है और स्वर लयबद्ध रूप लेते जाते हैं। इसे जोड़ कहा जाता है। आलाप में स्वरोच्चार के लिए कुछ निरर्थक से लगने वाले शब्द प्राचीन प्रबन्ध गीतों से लिए गए है। इसे ‘नोम-तोम’ का आलाप कहा जाता है। दरअसल प्रबन्ध गीतों में आलाप के लिए सार्थक शब्दों का प्रयोग होता था, जैसे- ॐ अनन्त श्री हरि नारायण’ आदि। आज भी कई संगीतसाधक आलाप में इन्हीं सार्थक शब्दों के प्रयोग करते हैं। ध्रुपद के आलाप पक्ष का उदाहरण देने के लिए हमने आज के अंक में युवा ध्रुपद गायक पण्डित उदय भवालकर की आवाज़ का चयन किया है। उदय जी का जन्म उज्जैन में एक संगीत-प्रेमी परिवार में 1966 में हुआ था। बचपन में उनकी बड़ी बहन ने उन्हें संगीत की शिक्षा दी। बाद में उन्नीस पीढ़ियों से ध्रुपद के संरक्षक और सुप्रसिद्ध ‘डागरवाणी’ परम्परा के संवाहक उस्ताद जिया फरीदुद्दीन डागर और उन्हीं के बड़े भाई उस्ताद जिया मोहिउद्दीन डागर से गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत विधिवत शिक्षा ग्रहण की। आज के इस अंक में हम आपको उदय भवालकर के स्वरों में राग श्री का आलाप सुनवा रहे हैं। आप इस कलात्मक आलाप और जोड़ के सौन्दर्य का अनुभव कीजिए और मुझे आज यही विराम लेने की अनुमति दीजिए।


राग श्री : ध्रुपद आलाप और जोड़ : पण्डित उदय भवालकर





संगीत पहेली


‘स्वरगोष्ठी’ के 203वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक ध्रुपद गीत का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली क्रमांक 210 के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की पहली श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।


1 – इस गीतांश को सुन कर आपको किस राग का अनुभव हो रहा है?

2 – यह गीत किस ताल में निबद्ध है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार, 24 जनवरी, 2015 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। COMMENTS में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 205वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत किये गए गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस मंच पर स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ की 201वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई पर राग भैरवी की रचना सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- आभासित धुन भजन ‘मत जा मत जा मत जा जोगी...’ की है और पहेली के दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- भक्त कवयित्री मीराबाई। इस बार की पहेली में पूछे गए दोनों प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी, हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी, चंडीगढ़ से हरकीरत सिंह और पेंसिलवानिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


अपनी बात


मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक से हमने एक नई लघु श्रृंखला, ‘भारतीय संगीत शैली परिचय’ शुरू की है। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की विभिन्न शैलियों का सोदाहरण परिचय प्रस्तुत करेंगे। इस श्रृंखला में आप भी योगदान कर सकते हैं। भारतीय संगीत की किसी शैली पर अपना परिचयात्मक आलेख अपने नाम और परिचय के साथ हमारे ई-मेल पते पर भेज दें। आप अपनी फरमाइश या अपनी पसन्द का आडियो क्लिप भी हमें भेज सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के नये अंक के साथ हम उपस्थित होंगे। अगले अंक भी हमें आपकी प्रतीक्षा रहेगी।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की