Skip to main content

हिन्दी सिनेमा के पहले दौर के कुछ कलाकारों की स्मृतियों के स्वर



स्मृतियों के स्वर - 05

हिन्दी सिनेमा के पहले दौर के कुछ कलाकारों की स्मृतियों के स्वर




'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, एक ज़माना था जब घर बैठे प्राप्त होने वाले मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ बहुत से कार्यक्रम ऐसे हुआ करते थे जिनमें कलाकारों से साक्षात्कार किये जाते थे और जिनके ज़रिये फ़िल्म और संगीत जगत की इन हस्तियों की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी बातें जानने को मिलती थी। गुज़रे ज़माने के इन अमर फ़नकारों की आवाज़ें आज केवल आकाशवाणी और दूरदर्शन के संग्रहालय में ही सुरक्षित हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि शौकिया तौर पर मैंने पिछले बीस वर्षों में बहुत से ऐसे कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर अपने पास एक ख़ज़ाने के रूप में समेट रखा है। 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर, महीने के हर दूसरे और चौथे शनिवार को इसी ख़ज़ाने में से मैं निकाल लाता हूँ, कुछ अनमोल मोतियाँ हमारे इस स्तम्भ में, जिसका शीर्षक है - स्मृतियों के स्वर, जिसमें हम और आप साथ मिल कर गुज़रते हैं स्मृतियों के इन हसीन गलियारों से। दोस्तों, 1931 में 'आलम आरा' फ़िल्म के साथ शुरुआत हुई थी बोलती फ़िल्मों की और साथ ही फ़िल्म संगीत की भी। उस पहले दशक की यादें आज बहुत ही धुँधली हो चुकी हैं और उस दौर के बारे में आज बहुत कम चर्चा होतो है। परन्तु ये हमारे इतिहास के कुछ सुनहरे पृष्ठ हैं। आइए आज इस कड़ी में उस दौर के कुछ पृष्ठों को पलटते हैं, उसी दौर के कलाकारों की ज़बानी, जिन्हें 'विविध भारती' के अलग-अलग कार्यक्रमों से संकलित किया गया है। 



सूत्र: विविध भारती

अलग-अलग कार्यक्रमों से संकलित




जैसा कि आप जानते हैं भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी 'आलम आरा'। निर्माता-निर्देशक अर्देशिर इरानी की कंपनी 'इम्पीरियल मूवीटोन' द्वारा बनाई गई फ़िल्म 'आलम आरा' 14 मार्च 1931 को मुम्बई की 'मजेस्टिक सिनेमा' में प्रदर्शित हुई थी। और इसी फ़िल्म से शुरू हुआ था फ़िल्म संगीत का सफ़र जो आज तक बदस्तूर जारी है। फ़िल्म 'आलम आरा' में वज़ीर मोहम्मद ख़ान का गाया गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे" उस ज़माने में बेहद मशहूर हुआ था। इसके बाद प्रदर्शित हुई कोलकाता की फ़िल्म कम्पनी 'मदन थिएटर्स' की फ़िल्म 'शिरीं फ़रहाद'। इस दूसरी बोलती फ़िल्म के नायक थे मास्टर निसार, जो सायलेन्ट फ़िल्मों के दौर में ही सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे। आप को यह जानकर ताज्जुब होगा कि मास्टर निसार की आवाज़ भी 'विविध भारती' में मौजूद है। तो आइए पढ़ें 'विविध भारती' के साथ मास्टर निसार के बातचीत का यह अंश।

मास्टर निसार:

"1931, तो हमारे मालिक जो थे, कलकत्ते के, मदन थिएटर्स, मदन थिएटर्स लिमिटेड, तो उन्होंने, मैं नाटक में काम करता था, उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि कल तुम स्टुडियो चले जाना। मैंने पूछा 'क्यों साहब?' बोले, 'चले जाना तुम'। तो जहांगीर जी, उनके लड़के थे, वो डिरेक्शन करते थे, मुझसे कहने लगे कि 'शिरीं फ़रहाद', हम यह टॉकी बनाना चाहते हैं, उसमें एक सीन लेना चाहते हैं। तो आग़ा साहब से कहो कि कुछ डायलोग्स लिख दें। आग़ा हश्र साहब से, मैंने जाकर उनसे कहा तो आग़ा साहब कहने लगे कि 'एक सीन का क्या मतलब होता है? पूरा शिरीं फ़रहाद उनसे कहो क्यों नहीं उतारते?' मैंने जाकर उनसे कह दिया। तो बोले कि 'अच्छा, आग़ा साहब से जाकर कहो कि वो लिखें'। तो आग़ा साहब लिखने लगे, और 1931 की बात है, जब 'शिरीं फ़रहाद' नाम से फ़िल्म शुरू हुआ।"







कोलकाता की 'न्यू थिएटर्स कंपनी' द्वारा निर्मित अधिकांश फ़िल्मों का आधार मुख्य रूप से बांगला उपन्यास और कहानियाँ होते थे। बी. एन. सरकार द्वारा स्थापित इस कम्पनी ने उस ज़माने में रायचन्द बोराल, पंकज मल्लिक, तिमिर बरन, के. एल. सहगल, के. सी. डे, केदार शर्मा और कानन देवी जैसे दिग्गज काम करते थे। मधुर संगीत 'न्यू थिएटर्स' के फ़िल्मों की खासियत थी। कालान्तर में यही बातें कही रायचन्द बोराल, यानी आर. सी. बोराल ने इन शब्दों में कही। 


रायचन्द बोराल:

"मैं लगभग 40 बरसों से फ़िल्म इंडस्ट्री में हूँ। मतलब न्यू थिएटर्स के जनम से ही फ़िल्म  संगीत की सेवा करता हूँ। आज मैं उन बीते हुए समय की झलक दिखाऊँ? हो सकता है ये फ़िल्में आप ने न देखी हों, उन फ़िल्मों के कलाकारों को भी आप ने न देखा हो, मगर नाम ज़रूर सुना होगा। यह बात है 40 साल पहले की, फ़िल्म 'धूप छाँव' का संगीत निर्देशन मैंने किया और गायक कलाकार थे के. सी. डे।"


उस ज़माने में पार्श्वगायन, यानी प्लेबैक शुरू नहीं हुआ था, और अभिनेताओं को कैमरे के सामने ख़ुद गाना पड़ता था। प्लेबैक का ख़याल सबसे पहले 'न्यू थिएटर्स' में सन 1935 में बनी फ़िल्म 'धूप छाँव' के दौरान संगीतकार पंकज मल्लिक के मन में कौंधा था। पंकज मल्लिक के ही शब्दों में-

पंकज मल्लिक:

"बोलती फ़िल्मों के भारत में चालू होने के दो साल पहले ही मैं फ़िल्मी दुनिया में आ चुका था। यानी सन 1928 में। उस समय मूक फ़िल्में दिखाई जाती थी। उसके साथ जिस संगीत की रचना के बजने का रिवाज़ था, उस संगीत की रचना मैं किया करता था। उसके बाद जब बोलती फ़िल्में आयीं, कलकत्ते में, तो मुझे ही संगीत निर्देशक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब तो आकाशवाणी नहीं था, इसका नाम था 'इण्डियन ब्रॉडकास्टिंग्‍ कॉर्पोरेशन'। मेरे आने के करीब 6 महीने पहले शायद यह कम्पनी चालू हुई थी। मैंने रेडियो पर जो पहला गाना गाया था, वह गीत कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक रचना थी।


'न्यू थिएटर्स' से सम्बन्धित एक और नाम था तिमिर बरन का, जिन्होंने 1935 की फ़िल्म 'देवदास' में संगीत दिया था।

तिमिर बरन:

"आज इस कार्यक्रम के ज़रिये आप लोगों से बातचीत करने का मुझे जो मौका मिला है, उसके लिए मैं अपने आप को धन्य समझता हूँ। जब कि मैंने भी कई फ़िल्मों की धुनें बनाई थी और संगीत निर्देशक रह चुका हूँ, अब भी फ़िल्मों से जुड़ा हुआ हूँ और संगीत निर्देशन का कार्य जारी है। मुझे गीतों के बोलों से साज़-ओ-संगीत से ज़्यादा प्रेम है क्योंकि मैं ख़ुद एक सरोद-वादक हूँ।"



सन् 1934 में 'बॉम्बे टॉकीज़' अस्तित्व में आया जिसकी नीव इंगलैण्ड से आये हिमांशु राय और देविका रानी ने एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी के तौर पर रखी थी। शंकर मुखर्जी, कवि प्रदीप और अशोक कुमार ने अपने करियर की शुरुआत 'बॉम्बे टॉकीज़' की फ़िल्मों से ही की थी। विविध भारती के ‘जयमाला’ कार्यक्रम में दादामुनि अशोक कुमार ने फ़िल्मों के उस शुरुआती दौर को याद करते हुए कुछ इस तरह से कहा था-

अशोक कुमार:

 “दरसल जब मैं फ़िल्मों में आया था, सन् 1934-35 के आसपास, उस समय गायक-अभिनेता सहगल ज़िंदा थे। उन्होंने फ़िल्मी गानों को एक शकल दी और मेरा ख़याल है उन्ही की वजह से फ़िल्मों में गानों को एक महत्वपूर्ण जगह मिली। आज उन्हीं  की बुनियाद पर यहाँ की फ़िल्में बनाई जाती हैं, यानि ‘बॉक्स ऑफ़िस सक्सेस’ के लिए गानों को सब से ऊँची जगह दी जाती है। मेरे वक़्त में प्लेबैक तकनीक की तैयारियाँ हो ही रही थीं। तलत, रफ़ी, मुकेश फ़िल्मी दुनिया में आए नहीं थे, लता तो पैदा भी नहीं हुई होगी। अभिनेताओं को गाना पड़ता था चाहे उनके गले में सुर हो या नहीं। इसलिए ज़्यादातर गाने सीधे सीधे और सरल बंदिश में बनाये जाते थे ताकि हम जैसे गाने वाले आसानी से गा सके।”



सन् 1936 में अस्तित्व में आई सोहराब मोदी की कम्पनी 'मिनर्वा मूवीटोन'। इस बैनर के तले बनी 1939 की फ़िल्म 'पुकार' की आशातीत सफलता ने देखते ही देखते सोहराब मोदी को उस ज़माने के अग्रणी निर्माता निदेशकों की कतार में ला खड़ा किया।


सोहराब मोदी:

"ऐ निगेहबान-ए-वतन, ऐ मर्द मैदान-ए-वतन, तेरे दम से है बहारों पर गुलिस्तान-ए-वतन। तुझ पे जान-ओ-दिल फ़िदा, हस्ती फ़िदा, मस्ती फ़िदा, तुझपे बेक़स ग़ुलामों की यह कुल बस्ती फ़िदा। आज तेरी अर्ज़मंदी को पहुँच सकता है कौन, तेरी रूहानी बुलन्दी को पहुँच सकता है कौन, वीरों के लिए तो वाक़ई जब से होश संभाला, तब से ही अपने दिल-ओ-दिमाग़ में सबसे ऊँचा मक़ाम पाया, लेकिन तवारिख जैसे सबजेक्ट में बचपन में मुझे कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। मैं सिसिल बी. डे मिले की अंग्रेज़ी फ़िल्में बहुत देखा करता था, और उनसे मुतासिर होकर अपने देश की तवारिख पर गौर करने लगा। उस वक़्त मुझे ख़्याल आया कि हमारे देश को ऐसी फ़िल्मों की बहुत ज़रूरत है, अपने देश की जनता को जगाने के लिए, देश के बच्चों को देश की महानता का ज्ञान कराने के लिए यही एक ज़रूरी काम था ताकि वो अपनी तवारिख से अनजान न बने रहे। दूसरी बात यह कि तवारिख फ़िल्म का कैनवस जितना बड़ा सोशल फ़िल्मों का नहीं। मैं हमेशा बड़े कैनवस की तस्वीरों को खींचने का कायल रहा हूँ। यह वजह भी मुझे इस ओर ज़्यादा खींचती रही। तीसरी वजह यह कि हर कलाकार अपनी कला को पनपने के लिए अधिक से अधिक स्कोप चाहता है जो मेरे ख़याल से ऐसी फ़िल्मों में ही मिल सकता था। इसकी पहली वजह तो यह है कि हर कलाकार की अपनी एक रुचि होती है। मेरी रुचि इसी तरह के पात्रों में थी।"

************************************************************

ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'विविध भारती' के कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार 'विविध भारती' के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तेमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।



तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।


प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 

Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की