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मैंने देखी पहली फिल्म प्रतियोगिता का परिणाम


भारतीय सिनेमा के सौ साल – 30

मैंने देखी पहली फ़िल्म : कृष्णमोहन मिश्र

बैंड वाले मेरे पसन्द के गीत की धुन नहीं बजाते थे


भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘स्मृतियों के झरोखे से’ में आप सभी सिनेमा प्रेमियों का मैं सजीव सारथी नए वर्ष 2013 में हार्दिक स्वागत करता हूँ। गत जून मास के दूसरे गुरुवार से हमने आपके संस्मरणों पर आधारित प्रतियोगिता ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ का आयोजन किया था। इस स्तम्भ में हमने आपके प्रतियोगी संस्मरण और रेडियो प्लेबैक इण्डिया के संचालक मण्डल के सदस्यों के गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत किये हैं। आज के इस समापन अंक में हम ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ संचालक मण्डल के सदस्य कृष्णमोहन मिश्र का गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। कृष्णमोहन जी ने 1955 में मोतीलाल और निगार सुल्ताना अभिनीत फिल्म ‘मस्ताना’ देखी थी। इस फिल्म के गीतकार राजेन्द्र कृष्ण और संगीतकार मदनमोहन थे। इस संस्मरण के साथ-साथ हम आपके प्रतियोगी संस्मरणों के परिणामों की घोषणा भी करेंगे।


म्र के पहले दशक की किसी घटना या प्रसंग को आधी शताब्दी से भी अधिक समय बाद तक स्मृतियों में सुरक्षित रख पाना उतना कठिन नहीं, जितना पाँच-छः दशक बाद उन स्मृतियों को शब्दों में बाँधना। इस कार्य में हमारी कठिनाई इसलिए बढ़ जाती है कि हम बचपन की घटना को वयस्क मानसिकता से देखने लगते हैं। इस आलेख को तैयार करते समय मैं इसी कठिनाई से गुज़रा हूँ। दरअसल सात वर्ष की आयु में अपनी देखी हुई पहली फिल्म के कई प्रसंग और तत्कालीन परिवेश आज 64 वर्ष की आयु में भी मेरी स्मृतियों में काफी हद तक सुरक्षित है। वह फिल्म है- 1954 में प्रदर्शित ‘मस्ताना’, जिसमें मोतीलाल और निगार सुल्ताना की मुख्य भूमिकाएँ थी। यह फिल्म मैंने अपनी माँ, अपने छोटे भाई, मामा (अब तीनों स्वर्गीय) और मामी के साथ बनारस (अब वाराणसी) के कन्हैया चित्र मन्दिर नामक सिनेमाघर में देखी थी। अब तो नगर का सबसे खूबसूरत सिनेमाघर ही नहीं रहा। उसके स्थान पर व्यावसायिक केन्द्र बन चुका है। वह 1954 का दिसम्बर या 1955 का जनवरी मास के कड़ाके की ठण्डक वाला कोई दिन रहा होगा, क्योकि माँ ने गरम कपड़ों से मुझे पूरी तरह से ढक रखा था। वास्तव में यह मेरी देखी पहली फिल्म नहीं थी। माँ के अनुसार इससे पहले मैं हर हर महादेव, आनन्दमठ, आन, परिणीता आदि फिल्में माँ और मामा-मामी के साथ देख चुका था, किन्तु इनमें से किसी भी फिल्म का कोई प्रसंग मुझे याद नहीं रहा। हाँ, फिल्म ‘परिणीता’ के एक गीत- ‘चली राधे रानी अँखियों में पानी...’ की धुन (शब्द नहीं) लम्बे समय तक स्मृतियों में सुरक्षित रही। दरअसल मेरी माँ के अनुसार बचपन से ही मुझमें सबसे बड़ा गुण और पिताजी के अनुसार सबसे बड़ा दुर्गुण यह था की कोई गीत एक बार सुन लेने पर धुन तो लम्बे समय तक याद रहती थी किन्तु शब्द भूल जाता था। अपने इस गुण या दुर्गुण के कारण प्रायः मेरी स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती थी, जब भूले हुए शब्दों के स्थान पर जोड़-तोड़ कर, अटपटे शब्दों को ठूँस कर गीत को पूर्ण कर देता था और गलियों में, घाट (गंगा के तट) पर और खेल के दौरान ज़ोर-ज़ोर से गाया करता था।

मैं जिस दौर की बात कर रहा हूँ, वह देश के स्वतंत्र होने के बाद का पहला दशक था। मेरे पिताजी स्वयं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे और प्रभात-फेरियों में हमेशा मुझे अपने साथ ले जाते थे। परन्तु फिल्म देखना या फिल्मी गीत गुनगुनाना उन्हें बिलकुल पसन्द नहीं था। हाँ, फिल्मों के शौकीन मेरे मामा के आगे उनकी एक न चलती। उन दिनों असम में मेरे नाना का व्यवसाय हुआ करता था। साल में एक या दो बार छुट्टियाँ बिताने मामा-मामी बनारस आया करते थे और उनके आते ही मेरी माँ को फिल्में देखने की आज्ञा सहज ही मिल जाती थी। बचपन से लेकर किशोरावस्था तक मैंने जितनी भी फिल्में देखी वह सब मामा-मामी के सौजन्य से ही। सात वर्ष की आयु में जब मैंने फिल्म ‘मस्ताना’ देखी थी तब फिल्म संगीत सुनने के साधन बड़े सीमित थे। उन दिनों फिल्म संगीत का आनन्द लेने के लिए सर्वसुलभ साधन सिनेमाघर ही हुआ करता था। उच्च वर्ग के संगीत-प्रेमी परिवारों में ग्रामोफोन हुआ करता था, जिस पर 78RPM के रेकार्ड सुने जाते थे। मध्यम वर्ग के परिवार में रेडियो बड़ी मुश्किल से नज़र आता था। उन दिनों रेडियो के किसी भी भारतीय केन्द्र से फिल्मी गीतों का प्रसारण नहीं होता था। फिल्मी गीतों का प्रसारण केवल रेडियो सीलोन से ही होता था, जिसका सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक कार्यक्रम हुआ करता था, ‘बिनाका गीतमाला’। मेरी स्मृतियों में मेरी देखी पहली फिल्म ‘मस्ताना’ का एक गीत भी 1955 के ‘बिनाका गीतमाला’ वार्षिक हिट गीतों में शामिल हुआ था। फिल्म ‘मस्ताना’ का यह गीत उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। तब फिल्मी गीतों की लोकप्रियता मापने का एक साधन यह भी था कि बारातों में बजने वाले बैंड पर उस गीत की धुन बजती है या नहीं। फिल्म देखने के बाद मेरे घर के सामने से जितनी भी बारातें गुजरती मेरे उत्सुकता यही होती थी कि मेरी देखी फिल्म ‘मस्ताना’ के गीत की धुन बजाई जा रही है या नहीं। इस फिल्म में मोहम्मद रफी का गाया और मदनमोहन का स्वरबद्ध किया गीत ‘मत भूल अरे इंसान...’ मेरा सर्वप्रिय गीत था। परन्तु बैंड वाले इस गीत के बजाय फिल्म का एक दूसरा गीत ‘झूम झूम के दो दीवाने गाते जाएँ गली गली...’ की धुन ही बजाते थे। बैंड वालों का यह अन्याय प्रायः मुझे झेलना पड़ता था। फिल्म ‘मस्ताना’ के मेरे सर्वप्रिय गीत को आप भी सुनिए। यह गीत 1955 के ‘बिनाका गीतमाला’ की वार्षिक हिट गीतों में शामिल था। हम आपको गीत का वही रेडियो संस्करण सुनवा रहे हैं।


फिल्म - मस्ताना : ‘मत भूल अरे इंसान...’ : मोहम्मद रफी : संगीत – मदनमोहन


बचपन में देखी हुई फिल्म ‘मस्ताना’ को मैं दोबारा कभी देख नहीं पाया। शायद यह फिल्म इतनी हिट न रही हो कि दोबारा इसे प्रदर्शित किया जा सके। परन्तु मेरे लिए तो ‘मस्ताना’ तब खुशियों का खजाना थी। इस गीत का दृश्य आज भी स्मृतियों में सुरक्षित है। एक माँ अपने नवजात शिशु को मन्दिर की सीढ़ियों पर छोड़ कर चली जाती है। मन्दिर में एक साधु यह गीत गा रहे हैं। बाद में इस शिशु का पालन-पोषण झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले फिल्म के अविवाहित नायक (मोतीलाल) द्वारा की जाती है। बड़ा होकर यह बालक (मास्टर रोमी) सारी बस्ती का दुलारा बन जाता है। रोते हुए इस अनाथ बच्चे को पुचकारने, दुलराने और चुप कराने के प्रयास में हास्य अभिनेता गोप और सुन्दर के अनेक हास्य प्रसंग मेरी स्मृति में आज भी सुरक्षित हैं। इन अभिनेताओ के नाम तो तब नहीं जानता था, परन्तु साथियों को फिल्म की कथा बताते समय मोटू (गोप) और ठिंगनू (सुन्दर) नामों का प्रयोग किया करता था। फिल्म में कई बालसुलभ प्रसंग और गीत भी थे। परन्तु यह प्रसंग और गीत मेरी स्मृतियों में बहुत स्पष्ट नहीं हैं। हाँ, एक गीत कुछ ऐसा था, जिसमें सभी पात्र चीनी या जापानी बने नाच रहे थे, वह कुछ-कुछ याद है। यह भी सम्भव है कि इस प्रकार के बालसुलभ प्रसंग उन दिनों पसन्द आए हों और याद भी रहे हों, किन्तु जैसे-जैसे आयु बढ़ी होगी वयस्क मानसिकता ने उन्हें बचकाना मान कर त्याग दिया हो। बहरहाल, फिल्म का वह प्रसंग एकदम स्पष्ट है, जब बड़ा होकर मुन्ना (मास्टर रोमी) आगे-आगे धनिकों के मुहल्ले में खिड़कियों के शीशे पत्थर मार कर तोड़ते हुए गुजरता था और उसके पीछे-पीछे नायक (मोतीलाल) पीठ पर शीशे का थैला लटकाए, ‘टूटे-फूटे शीशे बदलवा लो...’ की आवाज़ लगाते हुए आता था। इस दृश्य का अभिनय मैं अनेकानेक बार अपने बालसखाओं के साथ किया करता था। अपने साथियों को यह दृश्य मैं ही समझाता था और जाहिर है कि नायक की भूमिका मेरे अलावा और कौन करता। अब हम आपको फिल्म ‘मस्ताना’ का वह गीत सुनवाते हैं जिसकी धुन उन दिनों बैंड पर बेहद लोकप्रिय थी। यह एक युगल गीत है जिसे मोहम्मद रफी और लक्ष्मी शंकर ने गाया है।

फिल्म - मस्ताना : ‘झूम झूम के दो दीवाने...’ : मोहम्मद रफी और लक्ष्मी शंकर : संगीत – मदनमोहन


इस गीत ने उस आयु में मुझे एक अमूल्य ज्ञान यह भी दिया कि बम्बई की गलियाँ भी हमारे बनारस की सड़कों से भी अधिक चौड़ी होती हैं। अपने इस ज्ञान का उल्लेख मैंने काफी समय तक अपने साथियों से किया था। फिल्म के गीत ‘झूम झूम के दो दीवाने गाते जाएँ गली गली...’ की शूटिंग तत्कालीन बम्बई के किसी सूनसान सड़क पर की गई थी और गीत में शब्द आया है- ‘गली गली’। यह प्रसंग मेरे लिए आश्चर्यजनक इसलिए था कि मेरा जन्म गलियों के लिए विख्यात बनारस के गंगातट पर स्थित गलियों वाले मुहल्ले में हुआ था और फिल्म में जिस चौड़ी सड़क को गली कहा गया था, उस उम्र तक मैंने उतनी चौड़ी सड़क देखी नहीं थी। बहरहाल आइए, अब हम आपको ‘मस्ताना’ का वह गीत सुनवाते है जिसके शब्द मैं बिलकुल भूल चुका था किन्तु इसकी धुन आज भी मेरी स्मृतियों के किसी कोने में दबी पड़ी थी। फिल्म के गीतों की खोज करते समय जब यह गीत मेरे हाथ लगा तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। दरअसल इसी गीत को सुन कर मैंने बचपन में मुख से सीटी बजाना सीखा था। मोहम्मद रफी के गाये इस गीत- ‘दुनिया के सारे गमों से बेगाना...’ को आप भी सुनिए।

फिल्म - मस्ताना : ‘दुनिया के सारे गमों से बेगाना...’ : मोहम्मद रफी : संगीत – मदनमोहन




आपको कृष्णमोहन जी का यह गैर-प्रतियोगी संस्मरण कैसा लगा, हमें अवश्य लिखिएगा। आप अपनी प्रतिक्रिया radioplaybackindia@live.com पर भेज सकते हैं। ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता का यह समापन गैर-प्रतियोगी संस्मरण था। आप अपने सुझाव, संस्मरण और फरमाइश हमें अवश्य भेजें।


‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता के विजेता 

दोस्तों, भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ के अन्तर्गत आपके संस्मरणों पर आधारित प्रतियोगिता का आयोजन किया था। विगत जून माह से आरम्भ किये गए इस स्तम्भ में हमने 11 प्रतियोगी और 6 गैर-प्रतियोगी संस्मरण प्रस्तुत किये। इस प्रतियोगिता के मुख्य निर्णायक का दायित्व हमने मुम्बई में कार्यरत वरिष्ठ फिल्म पत्रकार और स्तम्भ लेखक श्री शिशिर कृष्ण शर्मा को सौंपा था। आपने 30 अगस्त, 2012 को प्रकाशित ‘मैंने देखी पहली फिल्म’ स्तम्भ में शिशिर जी का ही गैर-प्रतियोगी संस्मरण पढ़ा था। आपके आलेखों का गहन अध्ययन कर उन्होने अपना निर्णय हमें भेज दिया है। शिशिर जी के प्रति आभार प्रकट करते हुए हम विजेताओं की घोषणा कर रहे हैं।

‘मैंने देखी पहली फिल्म’ प्रतियोगिता में औसत 84 अंक अर्जित कर प्रथम स्थान प्राप्त किया है, लखनऊ की श्रीमती सुमन दीक्षित ने। गुड़गाँव, हरियाणा की सुश्री सीमा गुप्ता ने औसत 81 अंक के साथ दूसरा स्थान प्राप्त किया है। तीसरे स्थान पर बैंगलुरु की श्रीमती अंजू पंकज रहीं। इनका औसत प्राप्तांक 77 है। इनके अलावा संचालक मण्डल और निर्णायक मण्डल द्वारा सुश्री रंजना भाटिया, श्री सतीश पाण्डेय और श्री प्रेमचन्द्र सहजवाला के आलेखों की विशेष सराहना की गई। साथ ही सुश्री सुनीता शानू, श्री पंकज मुकेश, श्री मनीष कुमार, श्री निखिल आनन्द गिरि और श्री मिकी गोथवाल की सहभागिता का भी सम्मान करते हैं। उपरोक्त तीनों विजेताओं को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।

तीनों विजेताओं से अनुरोध है कि आप अपना डाक का पूरा पता हमें radioplaybackindia@live.com पर शीघ्र मेल कर दें। आपका पुरस्कार हम आपके भेजे पते पर डाक द्वारा भेजेंगे।

प्रस्तुति : सजीव सारथी 





Comments

Unknown said…
आपके आलेख में जैसे पूरी की पूरी फिल्म फिर से जिंदा हो गयी, बहुत बढ़िया लगा आपका संस्मरण, विशेषकर बैंड बाजे वालों पर निर्भर रहने वाला लोकप्रियता का पैमाना और दोस्तों को अभिनय के साथ कहानी सुनाना विवेचना करना...वास्तव में फ़िल्में हमारे जीवन का कितना अहम हिस्सा बन जाती हैं...:) सभी विजेताओं को बहुत बहुत बधाई
...अत्यंत रोचक !!! संस्मरण को पढ़कर लगा कि भविष्य में यदि कभी फ़िल्म 'मस्ताना' देखने का अवसर मिला तो उसका लाभ उठाना ही होगा।...रोचक और गतिमय लेखनी हेतु आपको बधाई !!!

विजेताओं को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!! :) :) :)
Pankaj Mukesh said…
atyant rochak anubhav raha aapka, mujhe lagta hai ki agar aapne prayas kiya hota to shayad geetkaar aur sangeetkaar-PREM DHAWAN Ki pankti mein aapka naam jaroor hota....aapke shabdon dwara-
दरअसल मेरी माँ के अनुसार बचपन से ही मुझमें सबसे बड़ा गुण और पिताजी के अनुसार सबसे बड़ा दुर्गुण यह था की कोई गीत एक बार सुन लेने पर धुन तो लम्बे समय तक याद रहती थी किन्तु शब्द भूल जाता था। अपने इस गुण या दुर्गुण के कारण प्रायः मेरी स्थिति तब हास्यास्पद हो जाती थी, जब भूले हुए शब्दों के स्थान पर जोड़-तोड़ कर, अटपटे शब्दों को ठूँस कर गीत को पूर्ण कर देता था और गलियों में, घाट (गंगा के तट) पर और खेल के दौरान ज़ोर-ज़ोर से गाया करता था।
bahut-2 shukriya jo aapne apni smiriti patal ke dhoomil chinhon ko shabdon mein pirokar hum sabhi ke sath banta!!!!
Pankaj Mukesh said…
sabi 3 vijetawon ko bahut bahu badhai, aur Shishir ji ka bahut-2 shukriya!!!

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