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फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी–८


स्वरगोष्ठी – ९७ में आज

मान-मनुहार की ठुमरी : ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...’


‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर इन दिनों हम कुछ ऐसी पारम्परिक ठुमरियों पर चर्चा कर रहे हैं, जिन्हें पूरा मान-सम्मान देते हुए फिल्मों में शामिल किया गया और इन ठुमरियों को भरपूर लोकप्रियता भी मिली। ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ श्रृंखला के अन्तर्गत अब तक आपने जो भी पारम्परिक ठुमरियाँ और उनके फिल्मों सहित अन्य अनुप्रयोगों का रसास्वादन किया है, उनमें रागों की समानता थी, अर्थात, मूल ठुमरी जिस राग में थी, अन्य अनुप्रयोग भी उसी राग में बँधे हुए थे। परन्तु आज के अंक में हमने जिस ठुमरी का चयन किया है, वह मूल पारम्परिक ठुमरी तो राग भैरवी में निबद्ध है, किन्तु उसी ठुमरी के परवर्ती प्रयोग के राग भिन्न-भिन्न हैं। यहाँ तक कि उसी ठुमरी के फिल्मी प्रयोग में भी राग बदला हुआ है। हमारी आज की ठुमरी है- ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ साँवरिया...’। इस ठुमरी को सुप्रसिद्ध गायिका रसूलन बाई ने भैरवी में गाया है। मान-मनुहार की इस श्रृंगारप्रधान ठुमरी को सुनने से पहले पूरब अंग की ठुमरियों की कुछ विशेषताओं के बारे में हम आपसे चर्चा करना चाहते हैं। 

ठुमरी गायन के दो प्रकार हैं, पहला है बन्दिश अथवा बोल-बाँट की ठुमरी और दूसरा प्रकार है, बोल-बनाव की ठुमरी। १८५६ में अंग्रेजों द्वारा नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ते के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर नज़रबन्द कर दिये जाने के बाद ठुमरी का केन्द्र लखनऊ से स्थानान्तरित होकर बनारस हो गया था। बोल-बनाव की ठुमरियों का विकास बनारस के संगीत परिवेश में हुआ। इस प्रकार की ठुमरियों में शब्द बहुत कम होते हैं और यह विलम्बित लय से शुरू होती हैं। इनमें स्वरों के प्रसार की बहुत गुंजाइश होती है। छोटी-छोटी मुरकियाँ, खटके, मींड आदि का प्रयोग ठुमरी की गुणबत्ता को बढाता है। कुशल गायक ठुमरी के शब्दों से अभिनय कराते हैं। गायक कलाकार ठुमरी के कुछ शब्दों को लेकर अलग-अलग भावपूर्ण अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं। अन्त में कहरवा ताल की लग्गी के साथ ठुमरी समाप्त होती है। ठुमरी के इस भाग में तबला संगतिकार को अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिलता है। बात जब बोल-बनाव ठुमरी की हो तो रसूलन बाई का ज़िक्र आवश्यक है। आज की पहली ठुमरी हम उन्हीं की आवाज़ में ही प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्होने ठुमरी ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...’, राग भैरवी में प्रस्तुत किया है।

ठुमरी भैरवी : ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...’ : विदुषी रसूलन बाई



इसी ठुमरी को जानी-मानी गायिका रोशन आरा बेगम ने भी अपना स्वर दिया है, किन्तु उन्होने इसे राग खमाज के स्वरों में गाया है। रोशन आरा बेगम, किराना घराने के शीर्षस्थ गायक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की भतीजी थीं। खाँ साहब के तीन भाई थे; अब्दुल लतीफ़ खाँ, अब्दुल मजीद खाँ और अब्दुल हक़ खाँ। गायिका रोशन आरा अब्दुल हक़ खाँ की बेटी थीं। उनकी संगीत-शिक्षा उस्ताद अब्दुल करीम खाँ द्वारा ही हुई थी। १९१७ (अनुमानित) में कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ था। देश के विभाजन के बाद १९४८ में वह अपने पति के साथ पाकिस्तान चली गई थीं। खयाल, ठुमरी, दादरा और गजल गायन के क्षेत्र में उन्हें खूब यश मिला। आज की ठुमरी ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ साँवरिया...’, रोशन आरा बेगम के स्वरों में भी अत्यन्त लोकप्रिय हुई थी, परन्तु उन्होने इसे राग खमाज के स्वरों में गाया था। लीजिए उनकी गायी यह ठुमरी आप भी सुनिए।

ठुमरी खमाज : ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...’ : रोशन आरा बेगम




इसी ठुमरी का प्रयोग संगीतकार अनिल विश्वास ने १९६२ में प्रदर्शित फिल्म ‘सौतेला भाई’ में भी किया था। महेश कौल द्वारा निर्देशित इस फिल्म के नायक गुरुदत्त थे। अनिल विश्वास ने इस ठुमरी को फिल्म के एक ऐसे प्रसंग के लिए तैयार किया था, जब नायक का सौतेला छोटा भाई अपने कुछ बिगड़ैल दोस्तों के साथ तवायफ के कोठे पर पहुँचता है। इस प्रसंग में नर्तकी इसी ठुमरी पर नृत्य करती है। अनिल विश्वास ने ठुमरी का स्थायी तो परम्परागत रूप में ही रखा, किन्तु अन्तरा की कुछ पंक्तियों को गीतकार शैलेन्द्र से लिखवाया था। उन्होने मूल भैरवी की ठुमरी के स्वरों में भी परिवर्तन किया और बेहद चंचल प्रवृत्ति के राग अड़ाना के स्वरों में और एकताल में बाँधा। फिल्म ‘सौतेला भाई’ में प्रयुक्त इस ठुमरी को स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने अपने आकर्षक स्वरों से सजाया है। लीजिए, आप भी सुनिए, इस ठुमरी का मोहक फिल्मी रूप और हमें आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।

फिल्म सौतेला भाई : ‘जा मैं तोसे नाहीं बोलूँ...’ : लता मंगेशकर





आज की पहेली

‘स्वरगोष्ठी’ पर आज की संगीत पहेली में एक बार फिर हम आपको एक बेहद लोकप्रिय ठुमरी का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। पहेली के सौवें अंक तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा।



१ - संगीत के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि यह ठुमरी किस राग में निबद्ध है?

२ – इस पारम्परिक ठुमरी को सातवें दशक की एक फिल्म में भी शामिल किया गया था। फिल्म में शामिल यह ठुमरी किस राग पर आधारित है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के ९९वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता

‘स्वरगोष्ठी’ के ९५वें अंक में हमने आपको सुप्रसिद्ध गायक पण्डित भीमसेन जोशी की आवाज़ में चर्चित ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग भैरवी और दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- नवाब वाजिद अली शाह। दोनों प्रश्नो के सही उत्तर लखनऊ के प्रकाश गोविन्द, जबलपुर की क्षिति तिवारी और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से बधाई।

झरोखा अगले अंक का


मित्रों, ‘स्वरगोष्ठी’ के आगामी अंक में हम लघु श्रृंखला ‘फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी’ के अन्तर्गत पुनः एक ऐसी ठुमरी का परिचय देंगे, जिसके विभिन्न प्रयोगों में अलग-अलग रागों का इस्तेमाल हुआ है। हमारे एक पाठक (अपना नाम उन्होने नहीं लिखा) ने इस श्रृंखला के लिए छः पारम्परिक ठुमरियों के एक सूची भेजी है, जिनका प्रयोग फिल्मों में किया गया है। आज के अंक में हमने जो ठुमरी प्रस्तुत की है, वह उसी सूची से ली गई है। अगले अंक में रविवार को प्रातः ९-३० बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इस मंच पर आप सब संगीत-रसिकों की हम प्रतीक्षा करेंगे। 

कृष्णमोहन मिश्र

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