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"भर भर आईं अँखियाँ..." - जब महफ़िलों की शान बनी ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 688/2011/128

ल की कड़ी में हमने आपसे ठुमरी शैली के अत्यन्त प्रतिभाशाली कलासाधक और प्रचारक भैया गणपत राव के बारे में जानकारी बाँटी थी| फिल्मों में ठुमरी विषय पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन.." की आज की आठवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका पुनः स्वागत करता हूँ और भैया गणपत राव के एक शिष्य मौज़ुद्दीन खां के विषय में कुछ जानकारी देता हूँ| जिस प्रकार भैया जी अपने गुरु सादिक अली खां की ठुमरी का पाठान्तर करते थे, उसी तरह मौज़ुद्दीन खां अपने गुरु भैया जी की ठुमरी की अपने ढंग से व्याख्या करते थे| मौज़ुद्दीन खां ठुमरी के विलक्षण कलाकार थे| मात्र 33 वर्ष की उम्र में दिवंगत होने से पहले मौज़ुद्दीन खां ने ठुमरी शैली को इतना समृद्ध कर दिया था कि आज के ठुमरी गायक भी सम्मान के साथ उनकी गायन शैली को स्वीकार करते हैं|

आइए आपको मौज़ुद्दीन खां से जुड़ा एक रोचक प्रसंग सुनाते हैं| बात 1909 की है, बनारस (अब वाराणसी) के प्रसिद्ध रईस और संगीत-प्रेमी मुंशी माधवलाल की विशाल कोठी में संगीत की महफ़िल का आयोजन हुआ था जिसमे उस समय की प्रसिद्ध गायिकाएँ राजेश्वरी बाई, हुस्ना बाई, मथुरा के शीर्षस्थ गायक चन्दन चौबे, ग्वालियर के भैया गणपत राव, कलकत्ता (अब कोलकाता) के श्यामलाल खत्री और प्रसिद्ध सारंगी-नवाज छन्नू खां आमंत्रित थे| भैया गणपत राव उस गोष्ठी का सञ्चालन कर रहे थे| बनारस के एक अन्य रईस सेठ धुमीमल उस महफ़िल में एक भोले-भाले किशोर को लेकर आए थे| चन्दन चौबे के ध्रुवपद गायन के बाद राजेश्वरी और हुस्ना बाई के ठुमरी गायन की तैयारी चल रही थी, उसी मध्यान्तर में सेठ धुमीमल ने पाँच मिनट के लिए उस भोले-भाले किशोर को सुन लेने का आग्रह किया| भैया गणपत राव की सहमति मिलने पर उस किशोर ने जब पूरे आत्मविश्वास के साथ राग "ललित" का आलाप किया तो पूरी महफ़िल दंग रह गयी| 15 साल का वह किशोर मौज़ुद्दीन था जिसने उस महफ़िल में बड़े-बड़े उस्तादों और संगीत के पारखियों के बीच "ललित" का ऐसा जादू चलाया कि उसके प्रवाह में सब बहने लगे| बन्दिश के बाद जब तानों की बारी आई तो हारमोनियम संगति कर रहे श्यामलाल खत्री की उंगलियाँ मौज़ुद्दीन की फर्राटेदार तानों से बार-बार उलझने लगीं| इस पर भैया गणपत राव ने हारमोनियम अपनी ओर खींच लिया और संगति करने लगे| दोनों में जबरदस्त होड़ लग गयी और पूरी महफ़िल वाह-वाह कर रही थी| जिस किशोर मौज़ुद्दीन को बतौर 'फिलर' पांच मिनट के लिए मंच दिया गया था, उसने कद्रदानों की उस महफ़िल को डेढ़ घण्टे से भी अधिक समय तक बाँधे रखा| इसी महफ़िल में मौज़ुद्दीन खां, भैया गणपत राव के गण्डाबद्ध शिष्य बने|

बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में रईसों और जमींदारों की कोठियों में संगीत की महफ़िलें सजती थी| ऐसी महफ़िलों में बड़े दरबारी संगीतकार और तवायफों की सहभागिता रहती थी| संगीत देवालयों से राज-दरबार और फिर वहाँ से निकल कर धनिकों की महफ़िलों तक पहुँच गया था| ठुमरी ने ऐसी महफ़िलों के जरिए ना केवल अपने अस्तित्व को बचाए रखा बल्कि इस शैली में नित नये प्रयोग भी जारी थे| नवाब वाजिद अली शाह के समय में ठुमरी का विकास नृत्य के पूरक के रूप में हुआ था| आगे चल कर इसका विकास स्वतंत्र गायन के रूप में हुआ| ठुमरी के इस स्वरूप को "बन्दिश" अथवा "बोल-बाँट" की ठुमरी का नाम दिया गया| सच कहा जाए तो ऐसी ही छोटी-छोटी महफ़िलों के कारण ही तमाम प्रतिबन्धों के बावजूद भारतीय संगीत की अस्तित्व-रक्षा हो सकी|

विश्वविख्यात फिल्मकार सत्यजीत रे ने 1959 में भारतीय संगीत की इसी दशा-दिशा पर बांग्ला फिल्म "जलसाघर" का निर्माण किया था| इस फिल्म में गायन-वादन-नर्तन के कई उत्कृष्ट कलासाधकों -उस्ताद बिस्मिल्लाह खां (शहनाई), उस्ताद वहीद खां (सुरबहार), रोशन कुमारी (कथक) और उस्ताद सलामत अली खां (ख़याल गायन) के साथ सुप्रसिद्ध ठुमरी गायिका बेग़म अख्तर को भी शामिल किया गया था| संगीत संयोजन उस्ताद विलायत खां का था| फिल्म में जमींदारों की महफ़िल में बेग़म अख्तर ने प्रत्यक्ष रूप से (पार्श्वगायन नहीं) राग "पीलू" की ठुमरी -"भर-भर आईं मोरी अँखियाँ.." का इतना संवेदनशील गायन प्रस्तुत किया है कि मैं इसे आपको सुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया| थोड़ी चर्चा बेग़म अख्तर के गायकी की भी आवश्यक है| बेग़म साहिबा की ठुमरी गायकी न तो लखनऊ की थी और न बनारस की, उनकी शैली मिश्रित शैली थी और उसमें पंजाब अंग अधिक झलकता था| उस्ताद अता खां से संगीत शिक्षा पाकर गायकी का यह निराला अन्दाज़ स्वाभाविक था| आइए सुनते हैं, बांग्ला फिल्म "जलसाघर" में बेग़म अख्तर की गायी राग "पीलू" की बेहतरीन ठुमरी-



क्या आप जानते हैं...
कि सत्यजीत रे के अनुसार हिंदी फ़िल्म जगत के लिए सबसे ख़ूबसूरत अभिनेत्री हुई हैं जया प्रदा।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 19
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - अन्तराल संगीत (इण्टरलयूड) छोड़ कर शेष पूरा गीत राग तिलंग में है.
सवाल १ - फिल्म की नायिका कौन है - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Comments

Prateek Aggarwal said…
Mala Sinha
Kshiti said…
shailendr
Avinash Raj said…
Geetkar:HASRAT JAIPURI
Kshiti said…
Geetkar - Shailendra
हिन्दुस्तानी said…
Main Nashe Men Hoon
AVADH said…
आज तो क्षिति जी अविनाश जी ही सही हैं.
बहुत ही सुन्दर गीत -'सजन संग काहे नेहा लगाये'. लता दीदी की आवाज़ का माधुर्य. क्या कहने.
लाजवाब शंकर जयकिशन जोड़ी.
पर गीतकार तो हसरत जयपुरी ही हैं.
शायद 'सजन' और 'नेहा' जैसे हिंदी शब्द देख कर आप शैलेन्द्र जी की रचना समझ बैठीं?
मजेदार बात यह है कि इस फिल्म के अन्य गीत जिनमें उर्दू लफ़्ज़ों का इस्तेमाल ज्यादा किया गया था जैसे 'नज़र नज़र से हो रही है बात प्यार की', 'मुझको यारो माफ करना मैं नशे मैं हूँ' और 'किसी नरगिसी नज़र को दिल देंगे हम' के रचयिता थे - शैलेन्द्र.
है न अजीब बात?
अवध लाल

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