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बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज़... कुछ इस तरह जोश की जिंदादिली को स्वर दिया मेहदी हसन ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८६

दैनिक जीवन में आपका ऐसे इंसानों से ज़रूर पाला पड़ा होगा जिनके बारे में लोग दो तरह के ख्यालात रखते हैं, मतलब कि कुछ लोग उन्हें नितांत हीं शरीफ़ और वफ़ादार मानते हैं तो वहीं दूसरे लोगों की नज़र में उनसे बड़ा अवसरवादी कोई नहीं। हमारे आज के शायर की हालत भी कुछ ऐसी हीं है। कहीं कुछ लोग उन्हें राष्ट्रवादी मानते हैं तो कुछ उन्हें "छिपकली की तरह रंग बदलने वाला" छद्म-राष्ट्रवादी। उनका चरित्र-चित्रण करने के लिए जहाँ एक और "अली सरदार जाफरी" का "कहकशां"(धारावाहिक) है तो वहीं "प्रकाश पंडित" की "जोश और उनकी शायरी"(पुस्तक)। जी हाँ हम जोश की हीं बात कर रहे हैं। जोश अकेले ऐसे शायर हैं जिनकी अच्छाईयाँ और बुराईयाँ बराबर-मात्रा में अंतर्जाल पर उपलब्ध है, इसलिए समझ नहीं आ रहा कि मैं किसका पक्ष लूँ। अगर "कहकशां" देखकर कोई धारणा निर्धारित करनी हो तब तो जोश ने जो भी किया वह समय की माँग थी। उनके "पाकिस्तान-पलायन" के पीछे उनकी मजबूरी के अलावा कुछ और न था। जान से प्यारा "देश" उन्हें बस इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि उनके परिवार-वालों ने उनका जीना मुहाल कर दिया था। जाते-जाते उन्होंने नेहरू (जो कि जोश के जिगरी दोस्त थे) के सामने अपनी मजबूरियों का हवाला दिया। तब नेहरू ने उन्हें बीच का रास्ता दिखाते हुए कहा कि आप जाओ लेकिन साल में तीन महिने हिन्दुस्तान में गुजारना, इससे आपका यह अपराध-बोध भी जाता रहेगा कि आपने हिन्दुस्तान छोड़ दिया है। लेकिन एक बार पाकिस्तान जाने के बाद यह हो न पाया। यह था "अली सरदार जाफरी" का मत। इस मुद्दे पर "प्रकाश" कुछ नहीं कहते, लेकिन इस मुद्दे पर "अंतर्जाल" चुप नहीं। मुझे कहीं यह पढने को मिला कि "जोश" पाकिस्तान इसलिए गए थे क्योंकि "वहां उन्हें रिक्शा चलाने के लाइसेंस मिले, कुछ सिनेमाघरों में हिस्सेदारी मिली और शासकों के कशीदे काढ़ने के लिए मोटी रकम। " साथ हीं साथ पाकिस्तान के मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक सिकंदर मिर्ज़ा उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे। लेकिन दु:ख की बात यह है कि मिर्जा के पतन के बाद पाकिस्तान में जोश को गद्दार कहकर सार्वजनिक रूप से दुत्कारा गया। इसलिए कई बार उन्होंने भारत लौटने की कोशिश भी की। कहा जाता है कि "तब स्वर्गीय मौलाना आजाद अड़ गए, वे एक ही शर्त पर जोश के भारत लौटने पर सहमत थे कि लौटने पर उन्हें जेल में रखा जाए।" अब यह किस हद तक सच है यह मालूम नहीं लेकिन अगर आप इस वाक्ये पर नज़र दौड़ाएँगे तो ऊपर कही बात पर यकीन करने का मन न होगा:

जोश साहिब और मौलाना आज़ाद भी दोस्त थे तथा वह प्राय: आज़ाद साहिब से मिलने जाते रहते थे। एक बार जब वह मौलाना से मिलने गए, तो वह अनेक सियासी लोगों में घिरे हुए थे। दस-बीस मिनट इंतज़ार के बाद जोश साहिब ने यह शेर कागज़ पर लिखकर उनके सचिव को दिया और उठकर चल पड़े—

नामुनासिब है ख़ून खौलाना
फिर किसी और व़क्त मौलाना

जोश अभी बाहरी गेट तक भी नहीं पहुंचे थे कि सचिव भागे आगे आए और रुकने को कहा। जोश साहिब ने मुड़कर देखा। मौलाना कमरे के बाहर खड़े मुस्कुरा रहे थे।

यानि कि जोश और मौलाना में अच्छी दोस्ती थी, फिर मौलाना क्योंकर यह चाहने लगें कि जोश को जेल में डाल दिया जाए। यही तो दिक्कत है.... दो अलग तरह के विचार अंतर्जाल पर चक्कर काट रहे हैं और मुझे इन दोनों विचारों को पढकर कोई निष्कर्ष निकालना है। अब मुझमें इतना तो सामर्थ्य नहीं कि कुछ अपनी तरफ़ से कह सकूँ या कोई निर्णय हीं दे सकूँ इसलिए मुझे जो भी हासिल हुआ है आप सबके सामने रख रहा हूँ। सबसे पहले जोश का परिचय (सौजन्य: प्रकाश पंडित):

शबीर हसन खां जोश का जन्म ५ दिसम्बर, १८९४ ई. को मलीहाबाद (जिला लखनऊ) के एक जागीरदार घराने में हुआ। परदादा फ़कीर मोहम्मद ‘गोया’ अमीरुद्दौला की सेना में रिसालदार भी थे और साहित्यक्षेत्र के शहसवार भी। एक ‘दीवान’, (ग़ज़लों का संग्रह) और गद्य की एक प्रसिद्ध पुस्तक ’बस्ताने-हिकमत’ यादगार छोड़ी। दादा मोहम्द अहमद खाँ ‘अहमद’ और पिता बशीर अहमद ख़ाँ ‘बशीर’ भी अच्छे शायर थे। यों जोश ने उस सामन्ती वातावरण में पहला श्वास लिया जिसमें काव्यप्रवृत्ति के साथ साथ घमंड स्वेच्छाचार, अहं तथा आत्मश्लाघा अपने शिखर पर थी। गाँव का कोई व्यक्ति यदि तने हुए धनुष की तरह शरीर को दुहरा करके सलाम न करता था तो मारे कोडों के उसकी खाल उधेड़ दी जाती थी। ज़ाहिर है कि जन्म लेते ही ‘जोश’ इस वातावरण से अपना पिंड न छुड़ा सकते थे, अतएव उनमें भी वही ‘गुण’ उत्पन्न हो गए जो उनके पुरखों की विशेषता थी। इस वातावरण में पला हुआ रईसज़ादा जिसे नई शिक्षा से पूरी तरह लाभान्वित होने का बहुत कम अवसर मिला और जिसके स्वभाव में शुरू ही से उद्दण्डता थी, अत्यन्त भावुक और हठी बन गया। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते उनके कथनानुसार वे बड़ी सख्ती से रोज़े-नमाज़ के पाबंद हो चुके थे। नमाज़ के समय सुगन्धित धूप जलाते और कमरा बन्द कर लेते थे। दाढ़ी रख ली और चारपाई पर लेटना और मांस खाना छोड़ दिया था और भावुकता इस सीमा पर पहुँच चुकी थी कि बात-बात पर उनके आँसू निकल आते थे। इस मंजिल पर पहुँचकर उनकी भावुकता ने उनके सामाजिक सम्बन्धों पर कुठाराघात किया। उन्होंने अपने पिता से विद्रोह किया। जोश लिखते हैं- "मेरे पिता ने बड़ी नर्मी से मुझे समझाया, फिर धमकाया, मगर मुझ पर कोई असर न हुआ। मेरी बग़ावत बढ़ती ही चली गई। नतीजा यह हुआ कि मेरे बाप ने वसीयतनामा लिखकर मेरे पास भेज दिया कि अगर अब भी मैं अपनी जिद पर कायम रहूँगा तो सिर्फ १०० रुपये माहवार वज़ीफ़े के अलावा कुल ज़ायदाद से महरूम कर दिया जाऊँगा लेकिन मुझ पर इसका कोई असर न हुआ"

जोश ने घर पर उर्दू फारसी की पाठ्य पुस्तकें पढ़ीं। फिर अंग्रेजी शिक्षा के लिए सीतापुर स्कूल, जुबली स्कूल लखनऊ और सेंट पीटर कॉलेज आगरा और अलीगढ़ में भी प्रविष्ट हुए, लेकिन पूरी तरह कहीं भी न पढ़ सके। अपनी शायरी के लटके बारे में वे कहते हैं कि "मैंने नौ बरस की उम्र से शेर कहना शुरू कर दिया था। शेर कहना शुरू कर दिया था-यह बात मैंने खिलाफ़े-वाक़ेआ और ग़लत कही है। क्योंकि यह किसी इन्सान की मज़ाल नहीं कि वह खुद से शेर कहे। शेर अस्ल में कहा नहीं जाता, वो तो अपने को कहलवाता है। इसलिए यही तर्ज़े-बयान अख़्तियार करके मुझे यह कहना चाहिए कि नौ बरस की उम्र से शेर ने मुझसे अपने को कहलावाना शुरू कर दिया था। जब मेरे दूसरे हम-सिन (समवयस्क) बच्चे पतंग उड़ाते और गोलियाँ खेलते थे, उस वक़्त किसी अलहदा गोशे (एकान्त स्थान) में शेर मुझसे अपने को कहलवाया करता था।" उस समय उनकी आयु २३-२४ वर्ष की थी जब उन्होंने पहले ‘उमर ख़य्याम’ और फिर ‘हाफ़िज़’ की शायरी का अध्ययन किया। फ़ारसी भाषा के ये दोनों महान कवि अपने काल के विद्रोही कवि थे। अध्ययन का अवसर मिलने पर जोश मिल्टन, शैले, बायरन और वर्डजवर्थ से भी प्रभावित हुए और आगे चलकर गेटे, दांते, शॉपिनहार, रूसों और नित्शे से भी। विशेषकर नित्शे से वे बुरी तरह प्रभावित हुए। नित्शे, गेटे के बाद वाली पीढ़ी का दार्शनिक साहित्यकार था, जिसने जर्मनी में एक जबरदस्त राज्य और केन्द्रीय शक्ति का समर्थन किया और हर प्रकार के नैतिक सिद्धान्त अहिंसा और समानता को अस्वीकार किया। जोश ने नित्शे के हर विचार को अपनी नीति और नारा बना लिया और अपनी हर रचना पर बिस्मिल्लाह (ख़ुदा के नाम से शुरू करता हूँ) के स्थान पर ब-नामे कुब्वतों बयात (शक्ति तथा जीवन के नाम) लिखना शुरू कर दिया। इन सबके अतिरिक्त देश की राजनैतिक परिस्तिथियों ने भी उन पर सीधा प्रभाव डाला और उनकी विद्रोही प्रवृत्ति को बड़ी शक्ति मिली। अंग्रेजी राज्य में बुरी तरह पिसी जा रही देश की जनता ने उनके नारों को उठा लिया और इस तरह उन्हें शायर-ए-इंकलाब की उपाधि हासिल हुई।

जोश का स्वभाव बागी था और इसमें कोई दो राय भी नहीं है। वह किसी भी एक निज़ाम से कभी संतुष्ट नहीं हुए। हैदराबाद में निज़ाम दक्कन की मुलाज़मत में होते हुए, उसी के ख़िलाफ़ एक स़ख्त नज़्म लिख दी। जिस पर उन्हें चौबीस घंटे के अंदर-अंदर हैदराबाद छोड़ देने का आदेश मिला। अगर प्रकाश पंडित की मानें तो जोश साहब अपनी कही बात पर कभी भी टिकते नहीं थे। जोश साहब के विचारों का यह परस्पर विरोध उनकी पूरी शायरी में मौजूद है और इसकी गवाही देते हैं ‘अ़र्शोफ़र्श’ (धरती-आकाश) ‘शोला-ओ-शबनम (आग और ओस) संबलों-सलासिल (सुगन्धित घास और ज़ंजीरें) इत्यादि उनके कविता-संग्रहों के नाम। और उनकी निम्नलिखित रूबाई से तो उनकी पूरी शायरी के नैन-नक्श सामने आ जाते हैं;

झुकता हूँ कभी रेगे-रवाँ की जानिब,
उड़ता हूँ कभी कहकशाँ की जानिब,
मुझ में दो दिल हैं, इक मायल-ब-ज़मीं,
और एक का रुख़ है आस्माँ की जानिब।


रेगे-रवाँ - बहती हुई रेत
कहकशाँ - आकाशगंगा
मायल-ब-जमीं- धरती की ओर जिसका रूख है

न सिर्फ जोश साहब के विचारों में परस्पर विरोध था, बल्कि उनकी शायरी में छुपे भावों और शायरी के स्तर में भी कभी-कभी आसमान-जमीन का अंतर दिख पड़ता है। अगर आपसे कहा जाए कि जिस शायर ने आज की गज़ल लिखी है उसी की कलम से कभी "मोरे जोबना का देखो उभार" भी निकला था तो आप निस्संदेह हीं दंग रह जाएँगे। अगर मेरी बात पर आपको यकीन न हो तो यहाँ जाएँ। खैर उन सब बातों पर चर्चा कभी और करेंगे अभी तो आज की गज़ल का लुत्फ़ उठाने का समय है। हाँ, जोश के बारें आप क्या ख्याल रखते हैं, अपनी टिप्पणियों के माध्यम से यह जरूर बताईयेगा।

आज हम जो गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं उन्हें अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है "मेहदी हसन" साहब ने। तो पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल:

नक़्श-ए-ख़याल दिल से मिटाया नहीं हनोज़
बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज़

तेरी हीं जुल्फ़-ए-नाज़ का अब तक असीर हूँ,
यानि किसी के दाम में आया नहीं हनोज़

या दस-बा-खैर (?) जिसपे कभी थी तेरी नज़र
वो दिल किसी से मैंने लगाया नहीं हनोज़

वो सर जो तेरी राहगुज़र में था सज्दा-रेज़
मैं ने किसी क़दम पे झुकाया नहीं हनोज़

बेहोश हो के जल्द तुझे होश आ गया
मैं ______ होश में आया नहीं हनोज़

मर कर भी आयेगी ये सदा क़ब्र-ए-"जोश" से
बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हनोज़




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सूफ़ी" और शेर कुछ यूँ था-

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल

इस शब्द को सबसे पहले पहचाना "सीमा" जी ने लेकिन शेर लेकर सबसे पहले हाज़िर हुए अवनींद्र जी।
ये रहे अवनींद्र जी के शेर:

मेरी मुहब्बत पे इतनी हैरत न जताओ
आशिक़ सी फितरत है सूफी न बनाओ (स्वरचित )...... माशा-अल्लाह! इस इश्क़ पर वारा जाऊँ!!

जिस तरह पत्थर पे घिस के रंग हिना देती है
आशिकी हद से जो गुजरे सूफी बना देती है ... पहले शेर में हद मालूंम थी शायद जो इस शेर में टूट गई :)

और ये सारे शेर सीमा जी ने पेश किए:

जिसे पा सका न ज़ाहिद जिसे छू सका न सूफ़ी,
वही तीर छेड़ता है मेरा सोज़-ए-शायराना (मुईन अहसन जज़्बी)

ज़ाहिद को तआज्जुब है, सूफ़ी को तहय्युर है।
सद-रस्के-तरीक़त है, इक लग़ज़िशे-मस्ताना॥ (असग़र गोण्डवी)

डाक्टर अनुराग साहब, आपका दस्तखत, आपकी उपस्थिति इस मंच पर देखकर मैं बता नहीं सकता कि मुझे कितनी खुशी हासिल हुई है। आप तो शेर-ओ-शायरी और त्रिवेणियों के उस्ताद हैं फिर खाली हाथ इस महफ़िल में आने का सबब? अगली बार ऐसा नहीं चलेगा :)

नीलम जी, तो इस तरह आप भी शेरो-शायरी के कुरूक्षेत्र में उतर हीं गईं। चलिए अच्छा है, अवनींद्र जी को टक्कर देने के लिए एक और रथी/महारथी की जरूरत थी। यह रहा आपका शेर, जो मुझे खासा पसंद आया:

तेरी ये इबादत सूफी न बना दे मुझको
मेरी ये हसरत,इन्सां ही नजर आऊँ तुझको (स्वरचित)

शन्नो जी, आप भी कमर कस लीजिए। नीलम जी मैदान में उतर चुकी हैं। यह रहा आपकी तरकश का तीर:

हर शख्श जो शायरी करते हुये रोता है
वह दिल सूफी न होगा तो क्या होगा..?

सारे शायरों ने अपनी तरफ से "सूफ़ी" का सही अर्थ जानने की पूरी कोशिश की , लेकिन मुझे लगता है कि अभी भी कुछ छूट रहा है, इसलिए यह लिंक यहाँ डाले देता हूँ:
http://en.wikipedia.org/wiki/Sufism

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

shanno said…
जोश साहेब की गजल मेंहदी हसन की आवाज़ में काफी अच्छी लगी...इसमें जो गायब शब्द था वह है ' बदनसीब '...
और एक मैं यहाँ बदनसीब हूँ की मेरी उर्दू कमजोर है..इम्प्रूव करने की कोशिश तो जारी है...लेकिन लगता है की हम यहाँ बैक बेंचर थे और वही बने रहेंगे..इसी में ही हमारी और सबकी ख़ुशी / भलाई दिखती है...रोने से क्या फायदा..हम जो है सो हैं...हा हा..अब इस बार तरकश से कोई तीर निकलेगा भी की नहीं..कुछ नहीं कहा जा सकता...फिर भी कोशिश करनी ही होगी...हार मानने वाले नहीं हम..
seema gupta said…
कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूचा -ए-यार में.
बहादुर शाह ज़फर

regards
seema gupta said…
मिलने थे जहाँ साये , बिछुडे वहां पर हम
साहिल पे बदनसीब कोई डूबता गया ।
(Shana)
avenindra said…
विश्व जी आपने अबकी बार मेरी तारीफ कुछ ज्यादा ही कर दी मैं इतना भी लायक नहीं हूँ मैं तो बस थोडा बहुत कोशिश कर लेता हूँ अपने देखा होगा मेरे शेरो मैं शब्द बहुत हलके होते हैं मेरी vocubalary बहुत कमज़ोर है ,,,,लीजिये बदनसीब शब्द पे एक शेर अर्ज़ है

टूटे मन की दर पे कोई फ़रियाद लाया है
कितना बदनसीब है वो जो मेरे पास आया है (स्वरचित )
shanno said…
जब दिमाग को थोडा हिलाया-डुलाया तो हमारी भी खोपड़ी में कुछ आया..और तुरंत हाजिर हो गयी अपना शेर लिख कर पेश करने के लिए..अब इसकी किस्मत पर छोड़ती हूँ की इसको कैसे आँका जायेगा..

वो खुशनसीब हैं जिन्हें आता है हँसाना
हम हैं बदनसीब जो रोते और रुलाते हैं..

- शन्नो

और ये नीलम जी किधर छिपी हैं आज ???????..अभी तक उनका अट्टहास नहीं गूंजा यहाँ पर..हा हा हा...
shanno said…
This post has been removed by the author.
shanno said…
This post has been removed by the author.
shanno said…
दो शेर और लिखे हैं...सोचा की इन्हें भी यहाँ लाकर दाखिल कर दूं :

बदनसीब वो अमीरी जिसे नींद ना आये
गरीबी फुटपाथ पे ख्वाबों में खो जाये.

कोई भी यहाँ इतना बदनसीब ना हो
दोस्ती के नाम पे कोई रकीब ना हो.

-शन्नो
avenindra said…
ये रफ़ी साहेब के गाने की पंक्ति हैं
ये हमारी बदनसीबी जो नहीं तो और क्या है
के उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा
रहा गर्दिशों मैं हरदम ......................................
neelupakhi said…
aajkal gabbar bahut vyast hai. mauka milte hi aayega sher ke saath tab tak ke liye khuda haafij .

shanno ji lagi rahiye raah tarakki par hai.
shanno said…
@ अरे अवेनिन्द्र जी..कहाँ भागे जा रहे हैं आप इतनी जल्दी..अधूरा शेर तो पूरा किये जाइये जनाब..काहे को सस्पेंस क्रियेट कर रहे हैं...और आप कभी हँसते क्यों नहीं..?

@ गब्बर साहिबा नीलम जी...कभी तो रामगढ़ की पहाड़ियाँ आपके अट्टहास से गूँजती हैं और कभी ख़ामोशी में डूबी रहती हैं..ऐसा क्यों ? और आप तो हमरी गुरु निकलीं...हम आपके चेला शक्कर ही रह गये..हा हा..इस बार का अपना हिसाब पूरा हो गया..तन्हा जी एक शेर ही तो लेंगे मेरा..बाकी तो कूड़ेदान में फेंक देते होंगे..तो फिर..? इतना ही सही इस बार के लिये...अब हम आपकी बहादुरी देखने का इंतजार कर रहे है...अपनी तो अब टांय-टांय फिस्स...तो चलती हूँ फिर..ओके..?
neelupakhi said…
गब्बर आजकल मौसी बन गया है ,....................................हा हा हा हा हा हा .(अरे बच्चे आये हैं अपनी मौसी के पास )
शेर पेश -ए -खिदमत है शन्नो जी.

बदनसीब ख्याल था ,या कोई ख्वाब था
खुशनसीब जहाँ भी था और हमनवा वहाँ भी था

(gabbar ne khud likha hai )
और भाई हमे कोई रथी-महारथी न बनाओ तन्हा जी ,अब आपकी बिमारी का क्या इलाज किया जाय ,इतने सारे लोग गुफ्तगू के लिए फिर भी जनाब तन्हा हैं ,खैर कोई बात नहीं आप भीड़ में भी तन्हा हैं.........................लाइलाज बिमारी है आपको

आजकल अंग्रेजों के जमाने के जेलर नजर नहीं आते ,
आते तो शेर नहीं लाते
वो आते तो हम जाते

(जय राम जी की भईया )
shanno said…
वाह ! वाह ! नीलम जी, आपने बड़ी धमाकेदार एंट्री मारी है..और हमारा नाम लेकर शेर पेश करने का आपको तहे दिल से शुक्रिया...एक बात कहूँ..अंग्रेजों के जमाने के जेलर साहब जब भी आते हैं अपनी पतलून में...तो हमेशा सकपकाये से रहते हैं...उन्हें जल्दी पड़ी रहती है जाने की...और अब आपके शेर को देखकर हमें फिर तैश आ गया लिखने पर... और तन्हा जी को अब हमारा एक शेर और झेलना पड़ेगा..खुदा खैर करे..

किसी बदनसीब का कसूर नहीं होता है
जब किस्मत को ही मंजूर नहीं होता है
हँसते हुये जो झेलते मुसीबतों को लोग
तो खुदा भी उनसे कभी दूर नहीं होता है.

- शन्नो

गुडबाई....
Manju Gupta said…
जवाब - बदनसीब

जीवन में उसके बदनसीब का साया यूँ मडराया ,
आतंक के फाग ने उसके सुहाग को था उजाडा .
neelupakhi said…
दीपक जी, उर्फ़ तन्हा जी, उर्फ़ विश्व जी
गौर फरमाएं कि जो शब्द आपने लिखा है

या दस-बा-खैर (?) जिसपे कभी थी तेरी नज़र
वो दिल किसी से मैंने लगाया नहीं हनोज़

दस-बा-खैर (?)

इसे दस्तबख़ैर होना चाहिए था ????????????????????
avenindra said…
शन्नो जी अपने हमसे कहा की हम हँसते नहीं लो जी आज आप भी हंस लो
हमारे इस हँसते हुए शेर पे
इक बदनसीब हम जो तू भुला गया हमें
इक बदनसीब वो जिसे तेरा साथ मिल गया (स्वरचित )
shanno said…
हा हा हा हा ह्ह्ह..अवनींद्र जी, आपका शेर हमारे दिमाग को गड़बड़ा गया...समझ न पाये की साथ पाने वाला बदनसीब कैसे बन गया..फिर भी हम हँसे जा रहे हैं...लेकिन माफ़ करियेगा...आपकी हँसी अब भी कहीं नहीं महसूस हुई इस दुख भरे शेर में..( हा हा )....

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