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नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना.. इसरार अंसारी के बोलों के सहारे प्यार की कसमें खा रहे हैं रूप कुमार और सोनाली

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६५

मारी यह महफ़िल इस बात की गवाह रही है कि आज तक सैकड़ों ऐसे फ़नकार हुए हैं जिनके सहारे या यूँ कहिए जिनके दम पर दूसरे फ़नकार संगीत की चोटी पर पहुँच गए, लेकिन उन्हें वह सब कुछ हासिल न हुआ जिनपर उनका पहला हक़ बनता था। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। ऐसे कम हीं लोग होंगे (न के बराबर) जिन्होंने इस गज़ल को सुना न होगा, लेकिन शायर को जानने वाला कोई इक्का-दुक्का हीं मिलेगा और वह भी मिल गया तो गनीमत है। वहीं अगर हम इस बात का जिक्र करें कि इस गज़ल को गाया किसने है तब तो जवाबों की झड़ी लग जाएगी..आखिरकार जो दिखता है वही बिकता है। हम यहाँ पर इस बात की वकालत नहीं कर रहे कि गायकों को हद से ज्यादा रूतबा हासिल होता है, बल्कि समाज की कचहरी में यह अर्जी देना चाहते हैं कि शायरों को बराबर न सही तो आधा हीं महत्व मिल जाए..उनके लिए यह हीं काफी होगा। अगर हम आपको यह कहें कि इस शायर ने हीं "ज़िंदगी मौत न बन जाए संभालो यारों(सरफ़रोश)", "आँखें भी होती है दिल की जुबां(हासिल)", "क्या मेरे प्यार में दुनिया को भूला सकते हो(मनपसंद)", आखिरी निशानी(जब दिल करता है पीते हैं)", "आपका मकान बहुत अच्छा है(हम प्यार तुम्हीं से कर बैठे)", "प्यार में चुप चुप के(मितवा)" जैसी गज़लें और नज़्में लिखी थीं, मेरा दावा है कि तब भी आप इन्हें पहचान न पाएँगे। अरे भाई, उदास मत होईये..इसमें आपकी कोई गलती नहीं, यह तो अमूमन हर शायर के साथ होता है, यही तो सच्चाई है शायरों की। आपको बता दें कि इस शायर को सबसे ज्यादा जिन दो फ़नकारों ने गाया है, आज हम उन्हीं की गज़ल लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं। तो राज़ को ज्यादा देर तक राज़ न रखते हुए, हमें यह बताने में बहुत खुशी हो रही है कि उस शायर का नाम है इसरार अंसारी और वे दोनों फ़नकार हैं रूप कुमार राठौर और सोनाली (आजकल सुनाली) राठौर। आपलोग रूप कुमार और सोनाली से तो बड़े अच्छे तरीके से वाकिफ़ होंगे तो क्या आप यह जानते हैं कि रूप कुमार गायक बनने से पहले अनुप जलोटा के साथ काम किया करते थे, उनके ग्रुप में तबला-वादक थे और सोनाली पहले सोनाली जलोटा हुआ करती थीं। आगे चलकर सोनाली... राठौर हो गईं और रूप कुमार गायक। इस घटना का असर इन दोनों परिवारों पर कितना हुआ, यह तो हमें नहीं पता लेकिन इतना पता है कि सोनाली के राठौर हो जाने से संगीत जगत का बड़ा फ़ायदा हुआ। जरा सोचिए तो..अगर यह न हुआ होता तो क्या हमें रूप कुमार-सोनाली मिलते और क्या ऐसी चाशनी में डूबी हुई गज़लें हमें सुनने को नसीब होतीं। नहीं ना? अब इनके बारे में हम कुछ कहें इससे अच्छा है कि इनकी कहानी इन्हीं की जुबानी सुन ली जाए। तो roopsunali.com से साभार हम ये सारी जानकारियाँ आपके लिए लेकर हाज़िर हुए हैं। मुलाहजा फरमाईयेगा।

यह इंटरव्यु तब का है जब गुलजार साहब की "हु तू तू" रीलिज होने वाली थी कि यानि कि १९९९ की बात है। अपने बारे में रूप कुमार कहते हैं: आज मैं फिल्मों के लिए कुछ चुनिंदा गाने गाकर हीं संतुष्ट हूँ। ज्यादातर वक्त मैं अपनी पत्नी सोनाली के साथ गैर फिल्मी एलबम की तैयारी में हीं व्यस्त रहता हूँ। मुझे खुशी इस बात की है कि बार्डर के बाद मुझे मनमुताबिक गाने का मौका मिल रहा है। रूटीन टाईप के गाने अब मेरे पास नहीं आ रहे। संगीतकार अब मेरी रेंज और मेरी रूचि को काफी हद तक समझने लगे हैं। यह मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य है कि गुलज़ार, जावेद अख्तर, राहत इंदौरी जैसे गीतकारों के साथ काम करने का मुझे अवसर मिल रहा है। गुलज़ार साहब के "हु तू तू" में मैने चार गाने गाए हैं, चारों एक से बढकर एक हैं और चारों अलग-अलग मिजाज के हैं। चारों गाने नाना पाटेकर पर फिल्माए गए हैं। यह मेरे लिए एक दिलचस्प चुनौती रही है क्योंकि नाना कोई रोमांटिक या रेगुलर हीरो नहीं है। इन गीतों के नएपन का आलम यह है कि इसके एक गाने "बंदोबस्त है, बंदोबस्त" को मैंने कई बार अलग-अलग ढंग से गाया पर मज़ा नहीं आ रहा था। तब विशाल जी(विशाल भारद्वाज) ने मुझे दिलचस्प बात बताई। उन्होंने कहा कि कल नाना आए थे। उन्होंने पूरा गाना सुना है। उन्होंने कहा कि गाने का सिचुएशन ऐसा है कि लगना चाहिए कि गाने वाले के गले से खून टपक रहा है। यह सुनकर मैंने अपने आप को भुला दिया। मैंने तय किया कि भले हीं यह मेरा आखिरी गाना साबित हो लेकिन मैं वही मूड लाऊँगा जो नाना चाहते हैं। गाना सुनकर नाना ने मुझे गले से लगा लिया। यह मेरी सबसे बड़ी तारीफ़ थी। आजकल जैसे गाने मैं गा रहा हूँ, उन्हें देखकर यह कहा जा सकता है कि फिल्मी गानों के बारे में मेरी जो शास्त्रीय सोच थी मुझे वैसे हीं गाने मिल रहे हैं। मैं इसके लिखे खुद को खुशकिस्मत मानता हूँ। मैंने न सिर्फ़ फिल्मों और एलबमों में गाने गाए हैं, बल्कि कई धारावाहिकों में भी गाया है। श्याम बेनेगल की "भारत एक खोज" में मैने पारंपरिक ध्रुपद गाया है। उस्ताद अमजद अली खान के संगीत निर्देशन में धाराविक "गुफ्तगू" में गज़ल गाई है। संगीतकार वनराज भाटिया ने ध्यान के एक प्रयोगत्माक एलबम में मेरी आवाज़ इस्तेमाल की है। वीनस द्वारा जारी मेरा पहला एलबम "इशारा" काफी लोकप्रिय हुआ। इसकी एक गज़ल "वो मेरी मोहब्बत का गुजरा जमाना" (आज की गज़ल) तो आज भी गज़ल-प्रेमी गुनगुनाते हैं। इस एलबम में मेरे साथ सोनाली भी थी। वीनस द्वारा रीलिज किया गया "खुशबू" भी काफी पसंद किया गया। मेरा नया एलबम है "मितवा"। यह एलबम हमने दिल से बनाया है। हमें यकीन है कि यह हमारे प्रशंसकों के दिलों को उसी तरह धड़का देगा जिस तरह बनाते समय हमारे दिल धड़के हैं। इस पैराग्राफ़ की शुरूआत में हमने बार्डर की बात की। तो क्या आपको मालूंम है कि "संदेशें आते हैं" के लिए रूप कुमार जी को "बेस्ट सिंगर" की श्रेणी(शायद जी सिने अवार्ड्स) में नामांकित नहीं किया गया था। यह गाना भले हीं एक दोगाना हो लेकिन न जाने किस वज़ह से बस सोनू निगम को नामांकित किया गया। सोनू निगम पुरस्कार जीत भी गए..लेकिन उन्होंने इस पुरस्कार को लेने से मना कर दिया यह कहकर कि इस पुरस्कार पर दोनों का बराबर हक़ बनता है। नामांकित न होने से जहाँ रूप कुमार नाराज़ दिखे वहीं पुरस्कार नकारने पर सोनू निगम की काफी प्रशंसा की गई।........ अरे किन पुरानी यादों में खो गए हम। चलिए अब सोनाली राठोर की बारी है। अब उनसे भी रूबरू हो लिया जाए।

सोनाली कहती हैं: मेरी गायिकी का आधार शास्त्रीय गायन है। पर सच कहूँ तो बचपन में गायन की प्रति मेरा आकर्षण फिल्मी गानों के चलते हीं हुआ था। मेरी माँ लीना सेठ शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में काफी नाम कमा चुकी थीं। दादा जी अमृतलाल सेठ गुजराती अखबार "जन्म-भूमि" के संपादक थे। जाहिर है कला और साहित्य का मुझपर गहरा प्रभाव था। उन दिनों मैं स्टेज पर रफ़ी जी और आशा जी के गाने खूब गाती थी। ऐसे हीं एक कार्यक्रम में हृदयनाथ मंगेशकर जी से मेरा परिचय माँ ने करवाया। दस साल की छोटी उम्र से मैं हृदयनाथ जी की शिष्या हूँ। शास्त्रीय गायन की तरफ मेरा झुकाव उन्हीं की वजह से हुआ। बीच में गले की खराबी की वज़ह से मैं गायन से दूर हो गई थी। तब उन्हीं ने सुझाव दिया कि मैं कोई साज बजाना शुरू कर दूँ। मैंने सितार बजाने में अपना सारा ध्यान लगा दिया। आज जबकि ईश्वर की दुआ से मैं फिर गा रही हूँ तो सितार बजाना मैंने छोड़ दिया है। मुझे पहली बार शोहरत मिली गुजराती गानों की एक डिस्क से, जिसका संगीत संयोजन पुरूषोत्तम उपाध्याय ने किया था। १९८५ में मेरा पहला गज़ल एलबम "आगाज़" रीलिज हुआ। इस एलबम की सफलता के बाद मेरे पाँच एलबम "भजन-कलश", "दिलकश", "खजाना-८५", "भजन-यात्रा-८६" और "शबनम" रीलिज हुए। मैंने धारावाहिक "जान-ए-आलम" और "बहादुर शाह ज़फ़र" के लिए भी गाया। १९८६ में मुझे अमीरात इंटरनेशनल की ओर से सर्वश्रेष्ठ गज़ल-गायिका का पुरस्कार मिला। मैंने गुजराती के आधुनिक गानों के एक एलबम "मोगरा नो फूल" में भी गाने गाए। हिन्दी फिल्मों में मैंने "बार्डर" के लिए "हिन्दुस्तान-हिन्दुस्तान" गाया था, लेकिन चूँकि उसे फिल्म से काट दिया गया इसलिए उसकी ज्यादा चर्चा न हो सकी। मेरे पति रूप एक बहुत अच्छे गायक हैं। हम दोनों मोहब्बत से भरी गज़लें सिर्फ़ गाते हीं नहीं हैं, उन्हें वास्तविक जीवन में जीते भी हैं। सोनाली जी के बारे में इस तरह हमें बहुत कुछ जानने को मिला। अभी और भी ऐसी चीजें हैं जो हम आपसे शेयर करना चाहते हैं, लेकिन वो सब फिर कभी। अभी तो हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। उससे पहले आज के गज़लगो के चंद शेरों पर गौर फरमा लिया जाए। यह करना इसलिए भी लाजिमी हो जाता है क्योंकि इसके अलावा हम इनके सम्मान में और कुछ कर भी नहीं सकते हैं। तो यह रही वो पेशकश:

दामन मे कंकड़ों के अंबार हैं तो क्या है,
बन जाएँगे ये गौहर अल्लाह के सहारे।

तय कर लिया समंदर अल्लाह के सहारे,
बदला मेरा मुकद्दर अल्लाह के सहारे।


इन दो शेरों के बाद हम रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। इस गज़ल को हमने लिया है "रूप कुमार-सोनाली" के पहले एलबम "इशारा" से। यह गज़ल तब भी बड़ी मकबूल थी और आज भी उतनी हीं मकबूल है। और हो भी क्यों न जब असल ज़िंदगी के जोड़ीदार गज़ल में अपनी ज़िंदगी को पिरो रहे हों..। जमाने-भर की रूमानियत मखमली आवाज़ के बहाने ओठों से टपक न पड़े तो और क्या हो.. क्या कहते हैं आप? और हाँ सुनते-सुनते आप इसरार साहब के बोलों को गुनना मत भूल जाईयेगा:

वो मेरी मोहब्बत का गुजरा जमाना,
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना।

हवा, तेज बारिश, वो तूफ़ां की आमद,
और ऐसे में भी तेरा वादा निभाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥

समुंदर किनारे वो रेतों पे अक्सर,
मेरा नाम लिखना, लिखके मिटाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥

कुछ ऐसी अदा से तेरा देख लेना,
बिना कुछ पिए हीं मेरा लड़खड़ाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥

वो एकबार तेरी _____ से तौबा,
मेरा रूठ जाना तेरा मनाना।
नहीं मेरे बस में उसे भूल जाना॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "कुदरत" और शेर कुछ यूं था -

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर।

सीमा जी ने सबसे पहले इस शब्द को पहचाना। ये रहे वो शेर जो आपने महफ़िल में पेश किए:

वो आये घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं (ग़ालिब)

चश्म्-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
दस्त-ए-कुदरत को बे-असर कर दे (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)

जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.
दख्ल कुदरत के करिश्मों में भला देता है कौन. (ज़ैदी जाफ़र रज़ा)

नीलम जी और निर्मला जी, यह आप लोगों का प्यार हीं है जो हमें प्रोत्साहित करता रहता है और फिर हमें भी तो हर बार किसी न किसी भूल-बिछड़े(गीत) को जानने का मौका मिल जाता है। बस यही आग्रह है कि आप लोग यह स्नेह हमेशा बरकरार रखिएगा।

मंजु जी, शायद यह आपका स्वरचित शेर हीं है। है ना?

कुदरत की महिमा की नहीं है मिसाल ,
सृष्टि में भरे हैं रंग बेमिसाल .

अवध जी, किस शायर के नाम यह शेर डालूँ? :) स्वरचित हो तो स्वरचित डाल दें बगल में नहीं तो शायर का हीं जिक्र कर दें...हमें सहुलियत होगी:

कुछ ऐसी प्यारी शक्ल मेरे दिलरुबा की है.
जो देखता है कहता है कुदरत ख़ुदा की है

शामिख जी, इतनी देर कहाँ लगा दी आपने? समय का ख्याल रखा करें और आप तो कभी हमारी महफ़िल की शोभा हुआ करते थे..क्या हुआ? अगली बार से ध्यान रखिएगा :) यह रही आपकी पेशकश:

कुदरत ने देखो पत्तों को
है एक नया परिधान दिया
दुल्हन जैसे करके श्रृंगार
सकुची शरमाई है
क्या पतझड़ आया है? (तेजेन्द्र शर्मा)

खेत, शजर, गुल बूटे महके, पग—पग पर हरियाली लहके
लफ़्ज़ों में क्या रूप बयाँ हो कुदरत के इस पैराहन का (सुरेश चन्द्र)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

bahut badhiya prastuti hai bhai
लाजवाब प्रस्तुति बधाई
AVADH said…
लफ्ज़ है शरारत.
शेर है
उफ यह कमसिनी, यह मासूमियत तेरी
जान ले गयी मेरी इक शरारत तेरी.
स्वरचित
अवध लाल
AVADH said…
प्रिय तनहा जी,
माफ़ कीजियेगा मैंने अपनी समझ से पिछली बार भी शायर का नाम दिया था.
शायद ग़लती से या यूं कहिये कि जल्दी में रह गया होगा.
उस ज़बरदस्त शेर के रचयिता थे क़तील शिफाई.
अवध लाल
seema gupta said…
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है
(जिगर मुरादाबादी )
सुर्ख़ होंठों पर शरारत के किसी लम्हें का अक्स
रेशमी बाहों में चूड़ी की कभी मद्धम धनक
(परवीन शाकिर )
हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी
हिरन की पीठ पर बैठे परिन्दे की शरारत सी
(बशीर बद्र )
अशवों को चैन नहीं आफ़त किये बगैर

तुम, और मान जाओ शरारत किये बगैर!

(जोश मलीहाबादी )
हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर इज़्हार-ए-मुसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदादिली दानिस्ता शरारत कर बैठे
(शकील बँदायूनी )
regards
Manju Gupta said…
आदरणीय विश्व जी ,
नमस्ते .

आवाज मेरा मन पसंद कार्यक्रम है .क्योंकि मैं मौलिक सृजन कर लिखती हूँ ,शेर -पंक्तियाँ मेरी खुद की होती हैं .
आज की गज़ल के रिक्त स्थान में 'शरारत 'आएगा .शेर प्रस्तुत है -
उनकी अदाओं की शरारतों ने घायल कर दिया ,
अरे!हम तो उनसे दिल लगा ही बैठे .
आभार .
Shamikh Faraz said…
सही लफ्ज़ शरारत
Shamikh Faraz said…
आँखों से मीठी शरारत करती हो तुम
दिल ही दिल में मुहब्बत करती हो तुम
vinay 'nazar'
Shamikh Faraz said…
गुल था शरारत करने लगा जब
तितली ने कोसा जा खार हो जा
shyam sakha shyam
Shamikh Faraz said…
किस से शिक़ायत करूँ, शरारत मेरे साथ हुई इतना तो याद है मुझे की उनसे मुलाक़ात हुई.
Shamikh Faraz said…
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई, मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई - गोपालदास 'नीरज'
Shamikh Faraz said…
है सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है

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