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Showing posts from August, 2009

तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनाता जाऊं...उम्र भर तो गाया मुकेश ने पर अफ़सोस ये उम्र बेहद कम रही

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 188 आ ज एक बार फिर से हम वापस रुख़ करते हैं ४० के दशक की आख़िर की तरफ़। १९४९ का साल संगीतकार नौशाद के लिए बेहद फ़ायदेमंद साबित हुआ था। महबूब ख़ान का 'अंदाज़', ए. आर. कारदार की 'दिल्लगी' और 'दुलारी', तथा ताज महल पिक्चर्स की 'चांदनी रात', ये सभी फ़िल्में ख़ूब चली, और इनका संगीत भी ख़ूब हिट हुआ। हालाँकि इसके पिछले साल, यानी कि १९४८ में महबूब साहब की फ़िल्म 'अनोखी अदा' का संगीत हिट हुआ था, नौशाद साहब के संगीत ने कोई कसर नहीं छोड़ी आम जनता के होठों तक पहुँचने के लिए, लेकिन बद-क़िस्मती से बॉक्स ऑफिस पर फ़िल्म असफल रही थी। यही नहीं, १९४७ की महबूब साहब की फ़िल्में 'ऐलान' और 'एक्स्ट्रा गर्ल' भी पिट चुकी थी। इन सब के मद्देनज़र महबूब साहब ने आख़िरकार यह निर्णय लिया कि सिवाय नौशाद साहब के, बाक़ी पूरी टीम में कुछ फेर-बदल की जाए। गीतकार शक़ील बदायूनी के जगह मजरूह सुल्तानपुरी को चुना गया। मेरा ख़याल यह है कि ऐसा महबूब साहब ने इसलिए नहीं किया होगा कि मजरूह शक़ील से बेहतर लिख सकते थे, बल्कि इसलिए कि वो शायद कुछ नया प्रयोग

फ़िक्र करे फुकरे....मिका ने दिया खुश रहने का नया मन्त्र

ताजा सुर ताल (18) ताजा सुर ताल में आज सुनिए प्रीतम और जयदीप सहानी का रचा ताज़ा हिट गीत सजीव - सुजॉय, कभी कभी मन करता है कि कुछ ऐसे मस्ती भरे गीत सुनें की सारे गम और फ़िक्र दूर हट जाएँ...क्या आपका भी मन होता है ऐसा कभी... सुजॉय - पंजाबी धुन और बोलों से सजे ढेरों गीत है ऐसे हिंदी फिल्मों में जिसमें मस्ती जम कर भरी है...."नि तू रात खड़ी थी छत पे कि मैं समझा कि चाँद निकला", "ये देश है वीर जवानों का", "नि मैं यार मनाना नी चाहे लोग बोलियाँ बोले", और हाल के बरसों में तो जैसे हिट गीत बनाने का फ़ार्मूला जैसे बन गया है पंजाबी संगीत का आधार. सजीव - बिल्कुल! 'जब वी मेट' के "मौजा ही मौजा" और "नगाड़ा नगाड़ा" के बाद तो जैसे पंजाबी लोक धुनों के साथ रीमिक्स फ़िल्म संगीत पर छा सा गया है। सुजॉय - 'जब वी मेट' से याद आया सजीव कि इन दिनों शाहीद कपूर के नए फ़िल्म की प्रोमो ज़ोर शोर से हर चैनल पर चल रहा है। सजीव - कहीं तुम्हारा इशारा 'दिल बोले हड़िप्पा' की तरफ़ तो नहीं? सुजॉय - बिल्कुल! शाहीद और पंजाबी धुनों का तो जैसे चोली दाम

सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं....कौन न खो जाए मुकेश की इस मस्ती भरी आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 187 दि लीप कुमार के लिए पार्श्वगायन की अगर बात करें तो सब से पहले उनके लिए गाया था अरुण कुमार ने उनकी पहली फ़िल्म 'ज्वार भाटा' में। उसके बाद कुछ वर्षों के लिए तलत महमूद बने थे दिलीप साहब की आवाज़। बाद में रफ़ी साहब की आवाज़ ही ज़्यादा सुनाई दी थी दिलीप साहब के होठों से। लेकिन ५० के दशक में कुछ ऐसे गीत बनें हैं जिनमें दिलीप कुमार का प्लेबैक दिया था मुकेश ने, और ख़ास बात यह कि मुकेश की आवाज़ भी उन पर बहुत जचीं और ये तमाम गानें ख़ूब चले भी, फ़िल्म 'यहूदी' का 'ये मेरा दीवानापन है" कह लीजिए या फिर फ़िल्म 'अंदाज़' का "झूम झूम के नाचो आज, गाओ ख़ुशी के गीत", या फिर 'मधुमती' का "सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं" और "दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा"। लेकिन कहा जाता है कि दिलीप साहब नहीं चाहते थे कि मुकेश उनके लिए गाए क्योंकि उनका ख़याल था कि मुकेश की आवाज़ उन पर फ़िट नहीं बैठती। यह बात है १९४८ की जब 'अंदाज़' बन रही थी। फ़िल्म के संगीतकार नौशाद साहब ने उन्हे समझाया कि ऐसे गीतों के लिए मुकेश की आव

पॉडकास्ट कवि सम्मलेन - अगस्त 2009

इंटरनेटीय कवियों की इंटरनेटीय गोष्ठी रश्मि प्रभा खुश्बू यदि आप पुराने लोगों से बात करें तो वे बतायेंगे कि भारत में एक समय कॉफी हाउसों की चहल-पहल का होता था। कविता-रसज्ञों के घरों पर हो रही कहानियों-कविताओं, गाने-बजाने, बहसों की लघु गोष्ठियों का होता था। जैसे-जैसे तकनीक ने हर किसी को उपभोक्ता बना दिया, हम ग्लोबल गाँव के ऐसे वाशिंदे हो गये जो मोबाइल से अमेरिका के अपने परिचित से तो जुड़ गया, लेकिन अपने इर्द-गिर्द से दूर हो गया। लेकिन वे ही बुजुर्ग एक और बात भी कहते हैं कि हर चीज़ के दो इस्तेमाल होते हैं। चाकू से गर्दन काटिए या सब्जी काटिए, आपके ऊपर है। हमने भी इस तकनीक का सदुपयोग करने के ही संकल्प के साथ पॉडकास्ट कवि सम्मेलन की नींव रखी थी, ताकि वक़्त की मार झेल रहे कवियों को एक सांझा मंच मिले। जब श्रोता ऑनलाइन हो गया तो कवि क्यों नहीं। इस संकल्पना को मूर्त रूप देने में डॉ॰ मृदुल कीर्ति ने हमारा बहुत सहयोग दिया। हर अंक में नये विचारों ने नये दरवाजे खोले और इस आयोजन की सुगंध चहुँओर फैलने लगी। रश्मि प्रभा के संचालन सम्हालने के बाद हर अंक में नये प्रयोग होने लगे और नये-नये कवियों का इससे जु

दोस्त दोस्त न रहा प्यार प्यार न रहा...पर मुकेश का आवाज़ न बदली न बदले उनके चाहने वाले

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 186 मु केश के पसंदीदा गीतों में घूम फिर कर राज कपूर की फ़िल्मों के गानें शामिल होना कोई अचरज की बात नहीं है। राज साहब ने दिए भी तो हैं एक से एक बेहतर गीत मुकेश को गाने के लिए। शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी और शंकर जयकिशन ने ये तमाम कालजयी गीतों की रचना की है। कल आप ने सुने थे राम गांगुली की बनाई धुन पर राज कपूर की पहली निर्मित व निर्देशित फ़िल्म 'आग' का गीत। इस फ़िल्म के बाद राज कपूर ने अपनी नई टीम बनायी थी और उपर्युक्त नाम उस टीम में शामिल हुए थे। इस टीम के नाम आज जो गीत हम कर रहे हैं वह है सन् १९६४ की फ़िल्म 'संगम' का। 'संगम' राज कपूर की फ़िल्मोग्राफ़ी का एक ज़रूरी नाम है, जिसने सफलता के कई झंडे गाढ़े। जहाँ तक फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार की बात है, इस फ़िल्म की नायिका वैजयंतीमाला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला और राजेन्द्र कुमार को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता का पुरस्कार। राज कपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार नहीं मिल पाया क्योंकि वह पुरस्कार उस साल दिया गया था दिलीप कुमार को फ़िल्म 'लीडर' के लिए। दोस्तों, फ़िल्म 'संगम'

नसीहतों का दफ्तर - मुंशी प्रेमचंद

सुनो कहानी: मुंशी प्रेमचंद की "नसीहतों का दफ्तर" 'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने नीलम मिश्रा की आवाज़ में प्रेमचंद की कहानी "बूढी काकी" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की कथा " नसीहतों का दफ्तर ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 22 मिनट है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी एक रोज जब अक्षयकुमार कचहरी से आये तो सुन्दर और हँसमुख हेमवती ने एक रंगीन लिफाफा उनके हाथ में रख दिया। उन्होंने देखा तो अन्दर एक बहुत नफीस गुलाबी रंग का निमंत्रण था। (

जिन्दा हूँ इस तरह कि गम-ए-जिंदगी नहीं....उफ़ कैसा दर्द है मुकेश के इन स्वरों में...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 185 मु केश का फ़िल्म जगत में दाख़िला तो सन् १९४१ में ही हो गया था, लेकिन सही मायने में उनके गानें मशहूर हुए थे सन् १९४८ में जब उन्होने फ़िल्म 'मेला', 'अनोखी अदा'और 'आग' में गानें गाये। जी हाँ, यह वही 'आग' है जिससे शुरुआत हुई थी राज कपूर और मुकेश के जोड़ी की। मुकेश ने राज साहब और उनके इस पहली पहली फ़िल्म के बारे में विस्तार से अमीन सायानी के एक इंटरव्यू में बताया था जिसे हमने आप तक पहुँचाया था 'राज कपूर विशेष' के अंतर्गत, लेकिन उस समय हमने आप को फ़िल्म 'आग' का कोई गीत नहीं सुनवाया था। तो आज वह दिन आ गया है कि हम आप तक पहुँचायें राज कपूर की पहली निर्मित व निर्देशित फ़िल्म 'आग' से मुकेश का गाया वह गीत जो मुकेश और राज कपूर की जोड़ी का पहला पहला गीत था। और पहले गीत में ही अपार कामयाबी हासिल हुई थी। "ज़िंदा हूँ इस तरह के ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं, जलता हुआ दीया हूँ मगर रोशनी नहीं"। शुरु शुरु में मुकेश सहगल साहब के अंदाज़ में गाया करते थे। यहाँ तक कि १९४५ की फ़िल्म 'पहली नज़र' में अनिल बिस्वास के संगीत

शीशा-ए-मय में ढले सुबह के आग़ाज़ का रंग ....... फ़ैज़ के हर्फ़ों को आवाज़ के शीशे में उतारा आशा ताई ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४० म हफ़िल-ए-गज़ल की ३८वीं कड़ी में हुई अपनी गलती को सुधारने के लिए लीजिए हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। इस गज़ल के बारे में क्या कहें....सुनते हीं दिल में आशा ताई की मीठी आवाज़ उतर जाती है। आशा ताई हमारी महफ़िल में एक बार पहले भी आ चुकी हैं। उस समय आशा ताई के साथ थे सुर सम्राट ख़य्याम और गज़ल थी " चाहा था एक शख्स को जाने किधर चला गया ।" उस वक्त हमें उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम न था, लेकिन इस बार ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। आज की गज़ल के गज़लगो का ज़िक्र करना खुद में एक गर्व की बात है और हमारी यह खुशकिस्मती है कि आशा ताई की तरह हीं ये साहब भी हमारी महफ़िल में दूसरी बार तशरीफ़ ला रहे हैं। इससे पहले हमने इनकी लिखी एक नज़्म "गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम" सुनी थी, जिसे अपनी आवाज़ से सजाया था बेग़म आबिदा परवीन ने। उस कड़ी को हमने पूरी तरह से इन्हीं मोहतरम के हवाले कर दिया था और इनके बारे में ढेर सारी बातें की थीं। उसी अंदाज़ और उसी जोश-औ-जुनूं के साथ हम आज की कड़ी को भी इन्हीं के हवाले करते हैं। तो चलिए हम शुरू करते हैं चर्चाओ

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ....वो आवाज़ जिसने दी हर दिल को धड़कने की वजह- मुकेश

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 184 "क ल खेल में हम हों न हों गर्दिश में तारे रहेंगे सदा, भूलोगे तुम भूलेंगे वो, पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा"। वाक़ई मुकेश जी के गानें हमारे साथ सदा रहे हैं, और आनेवाले समय में भी ये हमारे साथ साथ चलेंगे, हमारे सुख और दुख के साथी बनकर, क्योंकि इसी गीत के मुखड़े में उन्होने ही कहा है कि "जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ, जी चाहे जब हमको आवाज़ दो, हम हैं वहीं हम थे जहाँ"। मुकेश जी को गये ३५ साल हो गए हैं ज़रूर लेकिन उनके गानें जिस तरह से हर रोज़ कहीं न कहीं से सुनाई दे जाते हैं, इससे एक बात साफ़ है कि मुकेश जी कहीं नहीं गए हैं, वो तो हमारे साथ हैं हमेशा हमेशा से। दोस्तों, आज है २७ अगस्त, यानी कि मुकेश जी का स्मृति दिवस। इस अवसर पर हम 'हिंद युग्म' की तरफ़ से उन्हे दे रहे हैं भावभीनी श्रद्धांजली। '१० गीत जो मुकेश को थे प्रिय' लघु शृंखला के अंतर्गत इन दिनों आप मुकेश जी के पसंदीदा १० गीत सुन रहे हैं। आज जैसा कि आप को पता चल ही गया है कि हम सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'मेरा नाम जोकर' से "जीना यहाँ मरना यहाँ"। दोस्तों

चांदन में मैं तकूँ जी...तेरा सोना मुखडा.....प्यार से पुकारा कैलाश खेर ने "आओ जी..."

ताजा सुर ताल (17) ता जा सुर ताल में आज जिक्र एक गैर फ़िल्मी एल्बम के गीत की सुजॉय -आज ताज़ा सुर ताल में हम जिस गायक की बात कर रहे हैं उनके बारे में हम बस यही कह सकते हैं कि "सुभान अल्लाह सुभान अल्लाह", ठीक वैसे ही जैसे कि उस गायक ने ये कहा था फ़िल्म 'फ़ना' के उस गीत में। जी हाँ हम बात कर रहे हैं कैलाश खेर साहब की, और मेरे साथ हैं मेरे को-होस्ट और मेरे साथी सजीव सारथी. सजीव - यानी कि जिक्र है एक बार फिर कैलाश खेर की अल्बम "चांदन में", हमारे श्रोताओं को याद होगा इस अल्बम का और अन्य गीत हमने कुछ दिन पहले सुनवाया था जिसके बोल थे -" भीग गया मेरा मन.. ." सुजॉय - ज़मीन से उठ कर जब कोई ज़र्रा सितारा बन जाए तो सभी को हैरत होती है। सीधे सादे ज़मीन से जुड़े कैलाश खेर के साथ भी यही हुआ। जो भी हुआ उनके साथ, मंगलमय ही हुआ, यहाँ भी मुझे उन्ही का गाया मंगल पाण्डेय का गीत याद आ रहा है "मंगल मंगल हो"। सजीव - हाँ और यही वो गीत थे जिसमें उनके साथ थे सुखविंदर और संगीतकार थे रहमान, यही हमारे पिछले अंक का सवाल भी था, पर अफ़सोस किसी भी श्रोता ने सही जवाब न

मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज़ न दो....दर्द और मुकेश की आवाज़ का था एक गहरा नाता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 183 '१० गीत जो थे मुकेश को प्रिय' लघु शृंखला के अंतर्गत आप सुन रहे हैं मुकेश की गाए हुए उन गीतों को जो उनके दिल के बहुत करीब थे। इसमे कोई दोराय नहीं कि ये गानें सिर्फ़ उन्ही को नहीं, हम सभी को अत्यंत प्रिय हैं, और तभी तो इतने दशकों बाद भी लोगों की ज़ुबाँ पर अक्सर चढ़े हुए मिलते हैं। विविध भारती के वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा के शब्दों में, "मुकेश के स्वर में नैस्वर्गिक मिठास थी, सोज़ और मधुरता तो थी ही, साधना और लगन से उन्होने उसमें और निखार ले आए थे। चाहे शृंगार रस हो या मस्ती भरा कोई गीत, या फिर टूटे हुए दिल की सिसकियाँ, हर मूड को बख़ूबी पेश करने की क्षमता रखते थे मुकेश। लेकिन सच तो यही है कि मुकेश ने प्रेम से ज़्यादा विरह और वेदना के गीत गाए हैं। एक ज़माना था जब प्रेम निवेदन मे एक शालीनता हुआ करती थी। और प्यार में नाकामी में भी कुछ ऐसी ही बात थी। ऐसे ही टूटे हुए किसी दिल की दुनिया में ले जाते हैं मुकेश की आवाज़। रात के गभीर सन्नाटे मे जब ये आवाज़ हौले हौले गूँजती है तो बेचैन कर देती है मन को।" एक ऐसा ही बेचैन कर देने वाला गीत अज पेश-ए-ख़िदमत

झूमती चली हवा याद आ गया कोई...संगीतकार एस एन त्रिपाठी के लिए भी गाये मुकेश ने कुछ बेहरतीन गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 182 '१० गीत जो थे मुकेश को प्रिय', इस शृंखला की दूसरी कड़ी में मुकेश और शैलेन्द्र की जोड़ी तो बरकरार है, लेकिन आज के गीत के संगीतकार हैं एस. एन. त्रिपाठी, जिनका नाम ऐतिहासिक और पौराणिक फ़िल्मों में सफल संगीत देने के लिए श्रद्धा से लिया जाता है फ़िल्म जगत में। त्रिपाठी जी के अनुसार, "मुकेश जी ने मेरे गीत बहुत ही कम गाए हैं, मुश्किल से १५ या २०, बस! मगर यह बात देखने लायक है कि उन्होने मेरे लिए जो भी गीत गाये हैं, वो सब 'हिट' हुए हैं, जैसे "नैन का चैन चुराकर ले गई" (चंद्रमुखी), "आ लौट के आजा मेरे मीत" (रानी रूपमती), "झूमती चली हवा याद आ गया कोई" (संगीत सम्राट तानसेन), इत्यादि इत्यादि।" दोस्तों, इन्ही में से फ़िल्म 'संगीत सम्राट तानसेन' का गीत आज हम आप को सुनवा रहे हैं, जो मुकेश जी को भी अत्यंत प्रिय था। १९६२ के इस फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन स्वयं एस. एन. त्रिपाठी ने ही किया था। बैनर का नाम था 'सुर सिंगार चित्र'। भारत भूषण और अनीता गुहा अभिनीत यह फ़िल्म अपने गीत संगीत की वजह से आज भी लोगों क

खुद-बखुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे...... तलत अज़ीज़ साहब की एक और फ़रियाद

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३९ आ ज का अंक शुरू करने से पहले हम पिछले अंक में की गई एक गलती के लिए माफ़ी माँगना चाहेंगे। यह माफ़ी सिर्फ़ एक इंसान से है और उस इंसान का नाम है "शरद जी"। दर-असल पिछले अंक में हमने आपको जनाब अतर नफ़ीस की लिखी जो नज़्म सुनाई थी, वह है तो यूँ बड़ी हीं खुबसूरत, लेकिन उसकी फ़रमाईश शरद जी ने नहीं की थी। हुआ यूँ कि शरद जी की पसंद की तीन गज़लें/नज़्में और "आज जाने की ज़िद न करो" एक हीं जगह संजो कर रखी हुई थी, अब उस फ़ेहरिश्त से दो गज़लें हम आपको पहले हीं सुना चुके थे तो तीसरे के रूप में हमारी नज़र "आज जाने की ज़िद न करो" पर पड़ी और जल्दीबाजी में आलेख उसी पर तैयार हो गया। चलिए माना कि हमने इस नाम से नज़्म पोस्ट कर दी कि यह शरद जी की पसंद की है, लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि खुद शरद जी ने इस गलती की शिकायत नहीं की। शायद वो कहीं अन्यत्र व्यस्त थे या फिर वो खुद हीं भूल चुके थे कि उन्होंने किन गज़लों की फ़रमाईश की थी। जो भी हो, लेकिन यह गलती हमारी नज़र से छिप नहीं सकी और इसलिए हमने यह फ़ैसला किया है कि महफ़िल-ए-गज़ल की ४०वीं कड़ी (जो यूँ भी फ़रमाईश

सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है...शायद ये गीत काफी करीब था मुकेश की खुद की सोच से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 181 "ह म छोड़ चले हैं महफ़िल को, याद आए कभी तो मत रोना, इस दिल को तसल्ली दे लेना, घबराए कभी तो मत रोना।" आज से लगभग ३५ साल पहले, २७ अगस्त १९७६ को, दुनिया की इस महफ़िल को हमेशा के लिए छोड़ गए थे फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्व गायक और एक बेहतरीन इंसान मुकेश। मुकेश उस आवाज़ का नाम है जिसमें है दर्द, मोहब्बत, और मस्ती भी। आज उनके गए ३५ साल हो गए हैं, लेकिन उनके गाए अनगिनत नग़में आज भी वही ताज़गी लिए हुए है, समय असर नहीं कर पाया है मुकेश के गीतों पर। मुकेश का नाम ज़हन में आते ही सुर लहरियों की पंखुड़ियाँ ख़ुद ब ख़ुद मचलने लग जाती हैं, दुनिया की फिजाओं में ख़ुशबू बिखर जाती है। २७ अगस्त को मुकेश की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य पर आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम शुरु कर रहे हैं मुकेश को समर्पित १० विशेषांकों की एक ख़ास लघु शृंखला '१० गीत जो थे मुकेश को प्रिय'। जी हाँ, ये वो १० गीत हैं, जो मुकेश को बहुत पसंद थे और जिन्हे वो अपने हर शो में गाते थे। इस शृंखला की शुरुआत हम कर रहे हैं जीवन दर्शन पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम' के एक मशहूर गीत से - &

पतवार पहन जाना... ये आग का दरिया है....गीत संगीत के माध्यम से चेता रहे हैं विशाल और गुलज़ार.

ताजा सुर ताल (16) ता जा सुर ताल में आज पेश है फिल्म "कमीने" का एक थीम आधारित गीत. सजीव - मैं सजीव स्वागत करता हूँ ताजा सुर ताल के इस नए अंक में अपने साथी सुजॉय के साथ आप सब का... सुजॉय - सजीव क्या आप जानते हैं कि संगीतकार विशाल भारद्वाज के पिता राम भारद्वाज किसी समय गीतकार हुआ करते थे। जुर्म और सज़ा, ज़िंदगी और तूफ़ान, जैसी फ़िल्मों में उन्होने गानें लिखे थे.. सजीव - अच्छा...आश्चर्य हुआ सुनकर.... सुजॉय - हाँ और सुनिए... विशाल का ज़िंदगी में सब से बड़ा सपना था एक क्रिकेटर बनने का। उन्होप्ने 'अंडर-१९' में अपने राज्य को रीप्रेज़ेंट भी किया था। हालाँकि उनके पिता चाहते थे कि विशाल एक संगीतकार बने, उन्होने अपने बेटे को क्रिकेट खेलने से नहीं रोका। सजीव - ठीक है सुजॉय मैं समझ गया कि आज आप विशाल की ताजा फिल्म "कमीने" से कोई गीत श्रोताओं को सुनायेंगें, तभी आप उनके बारे में गूगली सवाल कर रहे हैं मुझसे....चलिए इसी बहाने हमारे श्रोता भी अपने इस प्रिय संगीतकार को करीब से जान पायेंगें...आप और बताएं ... सुजॉय - जी सजीव, जाने माने गायक और सुर साधक सुरेश वाडकर ने विशाल