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हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है....गुलाम अली के मार्फ़त जता रहे हैं "हसरत मोहानी" साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५५

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की तीसरी गज़ल लेकर। गज़लों की इस फ़ेहरिश्त को देखकर लगता है कि सीमा जी सच्ची और अच्छी गज़लों में यकीन रखती है। जैसे कि आज की हीं गज़ल को देख लीजिए, इस गज़ल की खासियत यह है कि गज़ल-विधा को न के बराबर जानने वाला एक शख्स भी इसे बखूबी जानता है और बस जानता हीं नहीं बल्कि इसे गुनगुनाता भी है। ताज्जुब तो तब होता है जब यह मालूम चले कि ऐसी रूमानी गज़ल को लिखने वाला गज़लगो हिन्दुस्तानी स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण सिपाही था। जी हाँ, हम "हसरत मोहानी" साहब की बात कर रहे हैं, जिन्हें "इन्कलाब ज़िंदाबाद" शब्द-युग्म के ईजाद का श्रेय दिया जाता है। इस गज़ल के बारे में इसके फ़नकार "गुलाम अली" साहब कहते है: यह गजल मेरी पहचान बन चुकी है, इसीलिए मेरे लिए बहुत खास है। मेरे स्टेज पर पहुंचते ही लोग इस गजल की फरमाइश शुरू कर देते हैं। दरअसल इस गजल के बोल और इसकी कंपोजिशन इतनी खास है कि हर दौर के लोगों को यह पसंद आती है। मैंने सबसे पहले रेडियो पाकिस्तान पर यह गजल गाई थी और जहां तक मेरा ख्याल है, उसके बाद से मेरी ऐसी कोई परफॉर्मेन्स नहीं रही, जब मैंने यह गजल न गाई हो। हमने आज से पहले एक कड़ी में गुलाम अली साहब की तो एक कड़ी में हसरत मोहानी साहब की बातें की थीं। इस क्रम को ध्यान में रखा जाए तो आज गुलाम अली साहब की बारी है। तो चलिए आज की कड़ी को हम उन्हीं के हवाले कर देते हैं और उन्हीं के शब्दों में उनकी आपबीती का आनंद लेते हैं।(साभार: नवभारत टाईम्स)

हिन्दुस्तान में आकर परफॉर्म करना मेरे लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर कलाकार के लिए खास महत्व रखता है। यहां सुननेवालों से हर कलाकार को जैसी मुहब्बत और इज्जत मिलती है, वैसी दुनिया में और कहीं नहीं मिलती। यहां के लोगों का प्यार ही है, जो हर बार मुझे यहां खींच लाता है। यहां मेरे हर कार्यक्रम में जिस तरह भीड़ उमड़ती है, उसे देखकर अहसास होता है कि वाकई मैंने यहां के लोगों के दिलों में अपनी खास जगह बनाई है। यह मेरे लिए बड़े फख्र और खुशी की बात है। यह सही है कि वक्त के साथ काफी कुछ बदला। चीजें काफी कॉमर्शलाइज्ड हो गई हैं। लोगों के पास अब वक्त भी कम है लेकिन जहां तक मेरी बात है तो मैं मानता हूं कि हर कलाकार की अपनी अलग शैली होती है। यह सच है कि समय के साथ-साथ गजल में कई तरह के बदलाव आए हैं, लेकिन मुझे लगता है कि ट्रडिशनल तरीके से गजल गाना अब मेरी पहचान बन चुकी है। लोग शायद इसीलिए आज भी मुझे और मेरी गायकी को पसंद करते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं गजलों में नए प्रयोग करने के खिलाफ हूं, लेकिन प्रयोग के नाम पर गजल की रूह के साथ छेड़छाड़ करना मुझे पसंद नहीं है। मैं कभी अपना क्लासिकल बेस नहीं छोड़ता। हिंदुस्तानियों के दिलों में भी गजल का उतना ही खास मुकाम है, जितना पाकिस्तानियों के दिलों में है। यही वजह है कि यहां आज भी गजल की रवायत मौजूद है। तलत अजीज, हरिहरन, पंकज उधास और पीनाज मसानी जैसे कई फनकारों ने इसे सजाया, संवारा और संभाला है। जगजीत सिंह का तो इसमें सबसे खास योगदान रहा है। पाकिस्तान में भी लोग उन्हें चाहते हैं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच पल रहे इस वैमनस्य से वे काफ़ी चिंतित दिखते हैं। फिर भी उनका मानना है कि: हमें यह समझना चाहिए कि अगर हम आपस में एक हो जाएं, आपसी समझदारी बढ़ाएं तो फिर दुनिया की कोई ताकत हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मुझे लगता है कि दोनों मुल्कों के बीच आपसी समझदारी बढ़ रही है, रिश्ते सुधर रहें हैं। मैं अल्लाह ताला से गुजारिश करता हूं कि इन दोनों मुल्कों में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में अमन-चैन कायम रहे। अभी पिछले दिनों जो कुछ मुंबई में हुआ हमें वह सख्त नापसंद है। ऐसा लगता है मानो हमारे ही साथ हुआ हो। एक फनकार होने के नाते मेरे सुर पर इसका असर पड़ा है और तबाही का वह मंजर मेरी आँखों के सामने घूम रहा है। ऐसे में कोई कैसे गा सकता है। हम चाहते हैं कि सब लोग सुर में आ जाएँ क्योंकि सुर में प्रेम है। हम फनकारों का काम तो प्यार बाँटना ही है। कलाकार तो वैसे भी किसी सरहद के बँधे नहीं होते। लताजी को पाकिस्तान में उतना ही प्यार मिलता है जितना मुझे हिन्दुस्तान में। सोलह आने सच बात कही है आपने!

गुलाम अली साहब के बारे में कहने को ऐसे तो बहुत कुछ है,लेकिन आज बस इतना हीं। वो क्या है कि कभी-कभी डायटिंग भी कर लेनी चाहिए...मतलब कि हर बार हम जो सामग्री पेश करते हैं वो अमूमन हद से ज्यादा होता है यानि ओवरडोज....तो हमने सोचा कि क्यों न आज हल्के-फ़ुल्के में हीं काम निपटा लिया जाए और वैसे भी कभी-कभी जानकारियों के बोझ तले उस दिन की गज़ल/नज़्म दम तोड़ देती है। इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ संतुलन में होना चाहिए....क्या कहते हैं आप? तो चलिए हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। उससे पहले हर बार की तरह आज के गज़लगो का लिखा एक शेर पेश-ए-खिदमत है:

देखो तो हुस्न-ए-यार की जादू निगाहियाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम...


वल्लाह!!!!

और अब पेश है वह गज़ल जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। सुनिए और खुद अंदाजा लगाईये कि लिखने वाले के दिल पर क्या बीती है..... रही बात गाने वाले की तो उसे तो खुदा की नेमत नसीब है, उसके बारे में क्या कहना:

चुपके चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़-अ-तन
और दुपट्टे में वो तेरा मुँह छुपाना याद है

बेरुखी के साथ सुनना दर्द-ए-दिल की दास्तां
वो कलाई में तेरा कंगन घुमाना याद है

वक़्त-ए-रुख्सत अलविदा का लफ़्ज़ कहने के लिये
वो तेरे सूखे लबों का थर-थराना याद है

चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है

तुझसे मिलते ही वो बेबाक़ हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उंगली दबाना याद है

तुझ को जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है

आ गया अगर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक़्र-ए-फ़िराक़
वो तेरा रो-रो के भी मुझको रुलाना याद है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

आखिरी ___ तेरे ज़ानों पे आये,
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ ....


आपके विकल्प हैं -
a) ग़ज़ल, b) हिचकी, c) सांस, d) अशार

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "लिबास" और शेर कुछ यूं था -

यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं,
मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम दे...

बशीर बद्र साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना एक साथ दो लोगों ने(हम सेकंड के अंतर को नहीं गिनते)। सीमा जी के साथ हमें एक और साहब मिले जो उद्गार नाम से टिप्पणी करते हैं(असली नाम यही है या नहीं, कहा नहीं जा सकता)। तो इन जनाब ने सही शब्द तो बता दिया लेकिन उस पर शेर कहना भूल गए। इसलिए हम यहाँ बस सीमा जी के शेरों को पेश कर रहे हैं:

कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो गलत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो गलत है (निदा फ़ाज़ली)

ये हमीं थे जिन के लिबास पर सर-ए-राह सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गये (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)

इनके बाद महफ़िल में हाज़िरी लगाई दिशा जी और शरद जी ने। जहाँ शरद जी ने स्वरचित शेर कहे, वहीं दिशा जी ने जानेमाने शेर से महफ़िल की रौनक बढाई। ये रहे आप दोनों के शेर (क्रम से):

कौन कहता है कि दुनिया से जा रहा है ’शरद’
वो है मौज़ूद यहाँ , बस लिबास बदला है (एक बार फिर से जबरदस्त, हम धीरे-धीरे आपके फ़ैन बनते जा रहे हैं)

कोइ कैसे पहचान पायेगा असलियत उनकी
लिबास की तरह बदलना है फितरत जिनकी

सुमित जी महफ़िल में आए, फिर लौटकर आने का वादा करके निकल लिए..लेकिन लौटे नहीं...गलत बात!!
मंजु जी अपने चिरपरिचित अंदाज़ में महफ़िल का हिस्सा बनीं। यह रहा आपका स्वरचित शेर:

लिबास उनका पहन कर आईना हैरान हुआ ,
उनकी जुदाई का लम्हा करीब आ गया..

अंत में शामिख जी अपने शेरों के कारवां के साथ महफ़िल में तशरीफ़ लाए। ये रहे उस कारवां के कुछ मुसाफ़िर:

वरक पे रोशनी जो मैं गिरता हूँ
लिबास अल्फाज़ को सोचों के उढाता हूँ. (स्वरचित)

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़िर नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
के हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में (इक़बाल)

अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए,
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Comments

seema gupta said…
अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ

कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ

थक गया मैं करते-करते याद तुझको
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ

क़तील शिफ़ाई
regards
seema gupta said…
साथ हर हिचकी के लब पर उनका नाम आया तो क्या?
जो समझ ही में न आये वो पयाम आया तो क्या?
(आरज़ू लखनवी )
तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है,
कि जैसे याद की खुशबू किसी हिचकी से आती है।
ये माना आदमी में फूल जैसे रंग हैं लेकिन,
'कुँअर' तहज़ीब की खुशबू मुहब्बत ही से आती है।

- डा. कुँअर 'बेचैन'

regards
seema gupta said…
खींच लेना वो मेरा पर्दे का कोना दफ़-अ-तन
और दुपट्टे में वो तेरा मुँह छुपाना याद है
गुलाम अली जी की आवाज मे ये ग़ज़ल सुनवाने का बेहद आभार....वाकई इस ग़ज़ल मे कुछ बात तो है जो दिल को बेचैन कर जाती है जितना सुनो कम लगता है........जिस अंदाज मे इस ग़ज़ल को गाया गया है बेपनाह दर्द झलकता है....हर एक शब्द में जादू हो जैसे.....ना जाने कितनी बार आज इसको हम सुनने वाले हैं हा हा हा शुक्रिया....

regards
Shamikh Faraz said…
सीमा जी की पसंद ग़ज़लों के मामले में बहुत ही शानदार है. जहाँ तक मुझे लगता है यह ग़ज़ल शायद निकाह फिल्म में भी है.
Shamikh Faraz said…
आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ

क़तील शिफ़ाई
Shamikh Faraz said…
लो! मसिहा ने भी, अल्लाह ने भी याद किया
आज बीमार को हिचकी भी, क़ज़ा भी आई

fani badayuni
Shamikh Faraz said…
हिचकी थमती ही नहीं 'नासिर'
आज किसी ने याद किया है
Shamikh Faraz said…
ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो |
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ||

सुभद्राकुमारी चौहान
Shamikh Faraz said…
नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी,
किसी की आखरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी

seemab akbarabadi
Shamikh Faraz said…
न ख़त न लफ्ज़ के मोताज़ हे हम.पर आपके दिल को एक हिचकी से हिला सकते हें।

anam
(स्वरचित)
मैं इसलिए तुझे अब याद करूंगा न सनम
जो हिचकियाँ तुझे चलने लगीं तो बन्द न होंगीं ।

इधर हिचकी चली मुझको ,उधर तू मुझको याद आई
मगर ये तय है कि तुझको भी अब हिचकी चली होगी ।
Disha said…
सही शब्द है- हिचकी
आंखिरी हिचकी तेरी जा़नों पे आये
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ
Manju Gupta said…
जवाब -हिचकी
स्वरचित शेर -
हिचकी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी ,
सजा ए मौत लगने लगी ,
रोकने के लिए कई टोटके भी किये ,
जैसे ही उसका नाम लबों ने लिया
झट से गायब हो गयी .
मन्जु जी
आपकी भेजी हुई पंक्तियों को शे’र तो नहीं कह सकते । शे’र में तो सिर्फ़ दो ही मिसरे होते है । हाँ चाहे तो इसे ’शेरनी’ कह सकते हैं ।
Manju Gupta said…
आदरणीय शरद जी
आपने ठीक कहा है .पंक्तियाँ लिखने के बदले शेर लिख दिया .गलती सुधारने के लिए aabhaar
lion said…
आज इस ठण्ड में फिर कोई पुराना दोस्त याद आ गया
शुक्रिया जख्म को नासूर में बदलने का

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